दिन-रात जुटे रहे 9 हजार मजदूर, फिर भी पूरा नहीं हो सका Luxurious होटल का सपना

Update: 2024-08-25 11:18 GMT

Lifetyle.लाइफस्टाइल: जर्मनी के बाल्टिक सागर के रुगेन द्वीप पर एडोल्फ हिटलर ने दुनिया का सबसे बड़ा होटल बनाने की योजना बनाई थी, लेकिन तकदीर को यह मंजूर नहीं था। हिटलर के आदेश पर कोलोसस ऑफ प्रोरा (Hotel Colossus Of Prora) में 9 हजार मजदूर भी तैनात कर दिए गए थे, जो दिन-रात इस होटल के कंस्ट्रक्शन में लगे रहे और लगातार 3 साल तक इसका काम चलता रहा। कहानी में मोड़ तब आया जब साल 1936 में शुरू हुआ यह निर्माण 1939 में दूसरे विश्व युद्ध (Second World War) की शुरुआत के बाद रुक गया। आइए जानते हैं कि आखिर क्यों 237.5 मिलियन जर्मन करेंसी यानी करीब 80 अरब रुपए खर्च होने के बाद भी हिटलर का यह ड्रीम प्रोजेक्ट पूरा न हो सका।

जर्मन तानाशाह का आलीशान होटल
हिटलर चाहता था कि होटल में 20,000 कमरे बनें, जहां जर्मन लोग खासकर सैनिक काम के घंटों के बाद मौज-मस्ती का वक्त बिता सकें। होटल के नाम में प्रोरा का अर्थ है-बंजर जमीन। ऐसा इसलिए क्योंकि हिटलर का यह ड्रीम प्रोजेक्ट समुद्र के बीच रेतीली जगह पर बनाया गया था। 1936 के बाद से बड़े पैमाने पर इसका काम भी चलता रहा, लेकिन दूसरे विश्व युद्ध (1939) की शुरुआत होने पर यह काम बंद हो गया क्योंकि हिटलर को सभी 9 हजार मजदूरों को सेना में भेजना पड़ा।
अधूरा रह गया हिटलर का सपना
दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने से पहले इस आलीशान होटल में आठ हाउसिंग ब्लॉक, थिएटर और सिनेमा हॉल बनकर तैयार हो गए थे, लेकिन स्विमिंग पूल और फेस्टिवल हॉल का काम अधूरा ही रह गया था। हिटलर चाहता था कि यहां 20,000 बेडरूम की व्यवस्था हो और हर कमरे का रुख समुद्र की ओर हो। हर कमरे का आकार 5 गुणा 2.5 मीटर होना था, जिसमें दो बेड, एक वार्डरोब और सिंक हो। काम्पलेक्स के बीचों-बीच एक बेहद विशाल भवन हो, जिसे जरूरत पड़ने पर सैन्य अस्पताल की तरह इस्तेमाल किया जा सके। हालांकि, तकदीर को ये सब मंजूर नहीं था।
दोबारा शुरू नहीं हुआ निर्माण कार्य
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बंद हुआ यह निर्माण कार्य दोबारा शुरू ही नहीं हो सका। पहले इसका इस्तेमाल सोवियत आर्मी के सैनिकों ने छिपने के लिए किया, तो वहीं बाद में नेशनल पीपल्स आर्मी और यूनिफाइड आर्म्ड फोर्स ऑफ जर्मनी ने यहां पनाह ली। युद्ध के बीच सिर्फ सैनिक ही नहीं, बल्कि कई आम लोग भी यहां छिपने आते थे। इसी तरह धीरे-धीरे यह अधबनी इमारतें टूट-फूटकर खंडहर में तब्दील हो गईं।
बेचने में भी आई मुश्किलें
हिटलर के इस ड्रीम प्रोजेक्ट की हालत कुछ ऐसी हुई कि यह आसानी से बिक भी नहीं सका। किसी न किसी वजह से हर बार डील रद्द हो जाती थी, क्योंकि ज्यादातर लोगों का मानना था कि युद्ध के दौरान यहां अनगिनत लोगों ने जान गंवाई होगी और यह जगह किसी भूतिया जगह से कम नहीं होगी। जैसे-तैसे साल 2004 में होटल के अलग-अलग हिस्सों को बेचने का काम शुरू हुआ, ऐसे में आज हर हिस्से के खरीददार अपनी तरह से इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
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