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हिमाचल के उपचुनाव दिल से सच्चे, यथार्थ से बहके और भविष्य को गुमराह करते नतीजे हो सकते हैं, फिर भी राजनीति का हर पक्ष गुणगान कर सकता है। नेताओं की बस्ती में उलझे सवाल और दो टके के मजमून बन सकते हैं, तो उन शक्तियों की असीम संभावना को भी देखना होगा, जो वर्तमान राजनीति को चुन या चुनवा सकती है। गौर से देखें तो इन उपचुनावों का एक सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष है, तो आर्थिक पक्ष से टकराते मुद्दे भी हैं। यहां मुकाबला आधी दुनिया यानी स्त्री भंगिमाओं का सीधे युवा उत्साह से भी है। उपचुनाव हमारी साक्षरता दर की श्लाघा में कितने जागरूक होंगे यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन प्रदेश की शिक्षा का स्तर अब राजनीतिक हो गया है। कमोबेश हर नया स्कूल या इसके स्तरोन्नत होने का जज्बा अगर राजनीतिक है, तो परिसर की चर्चाओं में सियासत तो रहेगी और फिर संभल के देखिए कि स्कूल के मुखिया अपनी बफादारी किस तरह निभाते हैं। अब तो कालेज से विश्वविद्यालयों तक को मालूम नहीं उनके लक्ष्य में कितनी शिक्षा और कितनी सियासत भरी है। आश्चर्य यह कि हिमाचल में छात्र राजनीति का इतिहास अब राज्य की सियासत का सरगना बन गया है।
ऐसे में युवा मंतव्य में ही युवा गंतव्य बन कर राजनीति नौकर बन जाती है या सरकारी धन की नौकरी दे देती है। इसीलिए आज तक किसी भी चुनाव ने शैक्षणिक माहौल के बजाय शिक्षा की उत्पत्ति में राजनीति को ही परखा। शिमला विश्वविद्यालय का इतिहास कभी युवा महत्त्वाकांक्षा का संगम होता था, लेकिन छात्र राजनीति के एक रंग ने सारी दीवारें रंग दीं और छात्र दाढ़ी के नीचे तिनके ही तिनके फंस गए। हम शिमला विश्वविद्यालय को राजनीति की परिणति की ओर बढ़ते हुए देखते हैं, तो केंद्रीय विश्वविद्यालय तो राजनीति का जुआघर बना हुआ है। यहां शिमला से विपरीत सियासी पौध व रंग तैयार हो चुका है। यहां चैन से चुनने का मकसद और महफिल स्पष्ट है। राजनीतिक उत्पत्ति के शैक्षिक केंद्रों का हवाला इस बार के स्थानीय निकाय चुनावों में भी देखने को मिला। प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे दर्जनों युवाओं ने पंचायत सदस्य या प्रधान बनने का रास्ता किसी समाज सेवा से अभिभूत होकर चुना या राजनीति को प्रोफेशनल मानने का सबब दिखाई दे रहा है, यह साबित करते चुनावों को हर बार समझना पड़ेगा।
हिमाचल की वर्तमान सत्ता में विद्यार्थी परिषद की भूमिका अहम रही है, अतः उपचुनावों में इसे दोहराते हुए देखना भाजपा के लिए एक अनिवार्यता है। दूसरी ओर भले ही कांग्रेस में युवा चेहरों की कमी नहीं, लेकिन पार्टी में युवाओं को आगे ले जाने की हवाएं आज कुछ कमजोर दिखाई देती हैं। यह प्रचार अभियान में भी देखा जा रहा है कि कांग्रेस के मंच पर छात्र राजनीति का आरोहण न के बराबर है, जबकि भाजपा में विद्यार्थी परिषद का मैत्री पक्ष हावी है। विडंबना यह भी कि राजनीति में बुद्धिजीवी वर्ग की नुमाइंदगी अब इतनी घट गई है कि पार्टियों की भाषा और चुनाव की परिभाषा में आक्षेप निरंतर जहरीले और असभ्य हो रहे हैं। राजनीतिक पार्टियांे के बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ कब के अप्रासंगिक हो चुके हैं। यह दीगर है कि स्थानीय निकायों में महिला भागीदारी बढ़ने के कारण अब प्रत्यक्ष राजनीतिक भूमिका में इस वर्ग ने अपनी उपस्थिति बढ़ाई है। वर्तमान उपचुनावों में भी यह वर्ग नापतोल कर रहा है। रसोई गैस की सबसिडी का मोबाइल पर संदेश आते ही यह वर्ग सीधे प्रधानमंत्री का धन्यवाद करता रहा है, लेकिन अब इस मुद्दे पर औरतों के नए गणित पर चढ़ती कीमत का अवसाद सुनाई देता है। पेट्रोल में लगी आग का युवा बाइकर की औसत पर असर हो या न हो, लेकिन इस वर्ग की भूमिका में कांग्रेस के संबोधन आपेक्षित हैं। उपचुनावों के सुर बदलने में भाजपा एड़ी-चोटी का प्रयास कर रही है और हर मुद्दे को हवा में उछाल कर छिन्न-भिन्न करने में अग्रसर है, फिर भी युवाओं से संबंधित विषयों की तासीर पैदा नहीं हो रही। उपचुनावों से युवाओं की मुलाकात का पैगाम क्या अर्थ निकालता है, यह निष्कर्ष परिणामों के बाद ही निकलेगा।