महिला दिवस बनाम मैरिटल रेप: कटघरे में इंतजार करती औरतों की दैहिक स्वतंत्रता

महिला दिवस बनाम मैरिटल रेप

Update: 2022-03-06 05:49 GMT
स्वाति शैवाल.

उसे शामों का इंतजार नहीं रहता,
न ही वो सुनहरी सुबह से खुश होती है।
रोज टीस मारती है उसकी आत्मा,
जब भी वो बिस्तर पर होती है।
जानती है बिक चुकी है वो,
प्रेम, परिवार, त्याग जैसे बड़े शब्दों की खातिर।
इसलिए कभी भी,
उसकी 'न' उसकी 'न' नहीं होती है।
वो तो 60 की उम्र में भी,
फकत जिस्म होने का कर्ज चुकाती है।
दफन है वो खुद की देह के भीतर,
रोज मरती है, फिर भी जीती जाती है।
कई लोगों के लिए यह निजी जिंदगी से जुड़ा सिर्फ बेडरूम टॉक का विषय है। कुछ लोग इसे वर्जित फल मानकर खारिज कर देंगे तो कुछ लोग इसे अकेले में देखने-सुनने-पढ़ने वाला विषय (जी हां, ऐसी मानसिकता वाले भी बड़ी संख्या में हैं) मानेंगे। तो जनाब दिल्ली हाईकोर्ट में इन दिनों एक बहुत ही जायज और पीड़ादायक विषय चर्चा में है। ये है मैरिटल रेप का विषय। जो घाव अब तक घर के भीतर, सात तालों में बंद किसी तरह छुपाया जा रहा था, अब उसकी सड़ांध दरवाजे पार करके सड़क पर आ गई है। लेकिन उम्मीद यह है कि शायद यह घाव अब सही मरहम पा सकेगा।
दरअसल यह विषय है-
मैरिटल रेप यानी विवाह पश्चात पत्नी की अनुमति या रजामंदी के बिना उसके साथ बनाए गए शारीरिक संबंध का।
अव्वल तो हमारे देश की महिलाओं के लिए यह विषय ही सात आसमान पार का आसमानी-सुल्तानी विषय है। याद है न कुछ समय पहले हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे क्रमांक 5 के पहले चरण का परिणाम? एक बार और उसे ताजा कर लेते हैं। इस सर्वे में दर्जनभर से ज्यादा महत्वपूर्ण शहरों और कस्बों की 40 प्रतिशत महिलाओं ने यह माना था कि अगर वे अपने पति को संबंध बनाने के लिए मना करती हैं तो पति द्वारा की गई उनकी पिटाई जायज है।
खासबात यह है कि इनमें पढ़ी-लिखी नौकरी करने वाली महिलाएं भी शामिल थीं। वहीं इसके पूर्व हुए इसी सर्वे में केवल एक राज्य के 65 प्रतिशत से अधिक पुरुषों ने यह कहा था कि पत्नी के साथ जबरन सेक्स करना तो पति का अधिकार है। अब भला ये भी कोई सजा दिलाने का मामला हुआ क्या?
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 375 के अंतर्गत बिना सहमति के किसी भी महिला से शारीरिक संबंध बनाना रेप या बलात्कार की श्रेणी में आता है लेकिन हां, यदि कोई अपनी 15 वर्ष से अधिक की पत्नी के साथ ऐसा करता है तो वो इस श्रेणी में नहीं आता। धारा 375 के अपवाद 2 को लेकर ही दिल्ली हाईकोर्ट में बहस जारी है।
यूं यह बहस पिछले कुछ सालों से जारी है लेकिन कई स्थितियां हैं जो इसके निर्णय या निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले पार करनी होंगी। बहरहाल यह एक पुरानी व्यवस्था और पुराना कानून है जिसमें फिलहाल बदलाव की गुंजाइश हो सकती है।
सोवियत यूनियन 1922 में ही मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में रखने वाला पहला देश बन गया था।
अपराध जिसे हमारे देश में पहचाना ही नहीं गया
दुनिया के कई देशों में यह कानूनन जुर्म है। वहां बलात्कार, बलात्कार ही है चाहे किसी अनजान लड़की से हुआ हो या स्वयं की पत्नी के साथ किया गया हो। सोवियत यूनियन 1922 में ही मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में रखने वाला पहला देश बन गया था। 70 के दशक तक ज्यादातर पश्चिमी देश इस बात को लागू कर चुके थे। उस लिहाज से देखा जाए तो हम बहुत पीछे रह गए हैं।
इस मामले में दिल्ली सरकार ने एक और बात कही है। वह यह कि मैरिटल रेप के मामले में महिलाओं के पास और भी तरीके हैं जो वह इस स्थिति में अपना सकती है, जैसे कि तलाक की ओर कदम उठाना या घरेलू उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज कराना आदि। मगर क्या यह व्यवहारिक रूप से इतना आसान हो सकता है? क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज अदालतों में देश की आधी से ज्यादा औरतों ने तलाक के लिए केस फाइल कर रखे होते या आधे से ज्यादा आदमी सलाखों के पीछे होते। परंतु ऐसा नहीं है।
कारण? हमारे देश मे जब औरतें शराबी पति की पिटाई, दहेज के लिए प्रताड़ना के साथ, नपुंसक या ड्रग एडिक्ट पति के साथ जीवन बिता लेती हैं तो पति द्वारा बलात्कार किया जाना तो उन्हें पति के अधिकार क्षेत्र का ही मामला लगता है। जिसमें न आवाज उठाने की जरूरत होती है, न सुनवाई की गुंजाइश होती है।
ऊपर से कुछ औरतों ने अपने हक में बने कानूनों का ऐसा फायदा उठाया है कि पहले ही झूठी शिकायतों की सजा कुछ निर्दोष भुगत रहे हैं। फिर देश की अदालतों में यूं भी कई लाख केसेस पेंडिंग हैं जिनमें सिर्फ तारीख पर तारीख मिलती जाती है। यह मुद्दा जुड़ा है संस्कृति, धर्म और सामाजिक परिस्थितियों से। इसमें हाथ डालना मतलब बर्रे के छत्ते में हाथ डालना।
असल में पुरुष प्रधान हमारे समाज में बलात्कार का असल मतलब होता है, औरत को उसकी औकात याद दिलाना कि आखिर तो तुम्हारी "इज्जत' हमारे हाथ में है। जब चाहे उतार दें। इसलिए औकात में रहना। मैरिटल रेप में तो यह बात आधिकारिक बन जाती है।
पति-पत्नी में झगड़ा हुआ, दफ्तर में बहस हुई, राह चलते किसी व्यक्ति से पंगे ले लिए आदि। जब वहां न जीत पाए तो इस हार का बदला चुकाने के लिए घर पर एक अदद पत्नी तो है ही। भले ही वह किसी भी स्थिति में हो, क्या फर्क पड़ता है। हमारा गुस्सा तो उतर गया न!
यह कानून बने और साथ ही यह भी सुनिश्चित हो कि सही शिकायतें ही दर्ज हों।
वे किशोरावस्था के दिन थे और हम अपनी दुनिया में मस्त रहा करते थे। हमारे घर के ठीक बगल वाले घर में एक परिवार रहा करता था। पति-पत्नी और दो बड़े ही प्यारे बच्चे। हमारे वहां शिफ्ट होने के कुछ महीने बाद परीक्षा शुरू हुई और एक रात देर तक पढ़ने के लिए मैं बैठी ही थी कि पड़ोस वाले अंकल की मोटरसाइकिल रुकने की आवाज आई।
आंटी की शायद नींद लग चुकी थी। दो बार बेल बजने और फिर थोड़ी तेज आवाज में दरवाजा खटखटाने के बाद शायद आंटी ने दरवाजा खोला। उसके बाद तेज आवाज में दरवाजा बंद हुआ और कुछ ही देर में ऐसा लगा जैसे कोई चीखने की कोशिश में है लेकिन उसका मुंह बंद किया गया हैं। पांच-छह बार बेल्ट के सड़ाक से चलने की आवाजें भी आईं।
डर के मारे मैं अपनी किताब बंद कर लाइट जलाकर ही सो गई। अगली सुबह स्कूल जाने से पहले आंटी के घर की ओर झांका तो सारी आवाजें शांत थीं। फिर शाम को खेलकर आने के बाद जब पानी पीने रसोई में पहुंचे तो मम्मी और दादी को उन आंटी के साथ बैठे फुफुसाते पाया।
जो शब्द मेरे कान में पड़े वो थे- जानवर है भाभी। इतनी बदबू थी शराब की, मुझे उल्टी आने लगी।
मैंने मना किया तो बेल्ट निकाल लिया। रातभर ठंडी जमीन पर सोई। बच्चों की नींद न खुल जाए इसलिए मिन्नतें की कि ड्राइंग रूम में ही रहे। मेरा मुंह दबाकर रखा था। इतना बोलकर आंटी मम्मी के कंधे पर सिर रखकर रोने लगीं। उस समय मैं इस घटना को अंकल-आंटी का झगड़ा समझने तक ही पहुंच पाई। बाद में समझ आया कि वह प्रताड़ना तो मार खाने से कहीं ज्यादा दर्दनाक रही होगी।
भारत में ज्यादातर आदमियों के लिए शादी का मतलब है एक ऐसी शारीरिक सुविधा जिसका फायदा वे कभी भी बिना डर, बिना झिझक उठा सकते हैं। आखिर उनकी अपनी ही तो बांदी है, जिसे दो वक्त की रोटी, कुछ कपड़ों और खुशकिस्मत हुईं तो चंद गहनों के एवज में जब चाहे खसोट सकते हैं। हां, इक्का दुक्का मामलों में यह पुरुषों के साथ भी हो सकता है।
इसलिए जरूरी है कि यह कानून बने और साथ ही यह भी सुनिश्चित हो कि सही शिकायतें ही दर्ज हों। यदि यह कानून भी सिर्फ गलत लोगों के हत्थे चढ़ गया तो इसका हश्र भी वही होगा जो बाकी महिला कानूनों का हो रहा है। इसके अलावा स्कूल से ही लड़कियों को इस बात को लेकर आत्मविश्वासी बनाने और स्वतंत्रता देने की जरूरत है कि उनकी अनुमति के बिना उनके शरीर को छूने की इजाजत किसी को भी नहीं है, चाहे वो उनका पति ही क्यों न हो। साथ ही आर्थिक रूप से लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाना भी जरूरी है ताकि न कहने पर उन्हें घर से निकाल दिए जाने का डर न हो।
अपनी ही देह को सालों से शर्मिंदगी की तरह ढो रही औरतों के लिए असली महिला दिवस उसी दिन होगा जिस दिन वे अपनी देह और आत्मा को सम्मान देना सीख जाएंगी। जिस दिन उनकी 'न" इतनी ताकतवर होगी कि उनकी रक्षा के लिए कानून को भी बीच मे आने की जरूरत नहीं होगी।



डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता  उत्तरदायी नहीं है।
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