क्या संसद के सदनों को ठीक से चलाने के लिए जनता को सड़क पर उतरना होगा?
राजस्थान विधानसभा (Rajasthan Assembly) का एक किस्सा याद आ रहा है
विजय त्रिवेदी राजस्थान विधानसभा (Rajasthan Assembly) का एक किस्सा याद आ रहा है. उस वक्त बीजेपी नेता भैरोंसिंह शेखावत (Bhairon Singh Shekhawat) मुख्यमंत्री थे, उन्होंने विधानसभा में एक परपंरा शुरू की कि हर दिन सदन में एक विधायक को सर्वश्रेष्ठ वक्ता घोषित किया जाता था और उस वक्ता की तरफ से शाम को लड्डू मंगाए जाते थे और फिर स्पीकर के कमरे में सब उन लड्डुओं का मज़ा लेते थे. आमतौर पर सर्वश्रेष्ठ वक्ता विपक्ष से होता था, यानि सरकार की सबसे ज़्यादा और दमदार तरीके से खिंचाई करने वाला विधायक. लेकिन शाम को कड़वाहट मिठास में बदल जाती, माहौल और रिश्ते बेहतर रहते. यह घटना मुझे हाल में चल रहे उस संसदीय हंगामे की वजह से याद आई जो राज्यसभा (Rajya Sabha) में 12 सांसदों के निलंबन की वजह से चल रहा है.
शेखावत उपराष्ट्रपति के तौर पर जब राज्यसभा के सभापति बने तो किसी विषय पर सरकार और विपक्ष के बीच ठनने से सदन को स्थगित करना पड़ता था, तो वे स्थगन के वक्त के बीच विपक्षी सांसदों और सरकार के प्रतिनिधियों को अपने चैम्बर में बुलाते और वहां गर्मागर्म गुलाब जामुन के बीच सरकार को विपक्ष की बात कहने का मौका देते और विपक्ष को सदन की कार्यवाही चलने के लिए राजी कर लेते थे. लेकिन क्या अब वो माहौल दिखाई देता है. संसद के मानसून सत्र में हुए हंगामे और चेयर के सामने प्रदर्शन पर सरकार के प्रस्ताव के बाद इन सांसदों को निलंबित किया गया है. सरकार की तरफ से माफ़ी मांगने पर निलंबन वापसी की बात कही गई, जबकि विपक्षी सांसद माफ़ी मांगने के लिए तैयार नहीं है.
हंगामा है क्यूं बरपा?
संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा में पहले सप्ताह में मोटे तौर पर कोई कामकाज नहीं हुआ. सदन के बाहर निलंबित सांसद गांधी जी की प्रतिमा के सामने धरने पर बैठे रहे तो सदन के अंदर विपक्षी सांसदों के हंगामे की वजह से हर दिन बार-बार स्थगन होता रहा. शुक्रवार को तो बीजेपी सांसदों ने भी विपक्षी सांसदों के व्यवहार के ख़िलाफ़ अम्बेडकर की प्रतिमा के पास प्रदर्शन किया. सरकार मे वरिष्ठ मंत्री पीयूष गोयल ने फिर से कहा कि विपक्षी सांसद अगर सदन और सभापति से माफ़ी मांग लेते हैं तो निलंबन वापस हो सकता है और यदि वे माफ़ी नहीं मांग रहे तो क्या इसके यह मायने माने जाए कि वो सदन के भीतर अमर्यादित आचरण और मार्शल के साथ दुर्व्यवहार का समर्थन कर रहे हैं. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का कहना है कि जनता के मुद्दे उठाने के लिए माफ़ी क्यों मांगें, यानि साफ है कि दोनों पक्षों ने इसे अहम का मुद्दा बना लिया है और जनता के मुद्दों पर बहस नहीं हो रही .
देश की राजनीति में जब से गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ तब से संसद में हंगामों का शोर बढ़ने लगा और दबाव की राजनीति के लिए इसका इस्तेमाल सरकार के कामकाज पर रोक लगाने के लिए किया जाने लगा. कमज़ोर बहुमत वाली गठबंधन सरकारों की मजबूरी होती कि वे इस दबाव में आकर फ़ैसले बदलें, लेकिन लंबे समय बाद जब 2014 में स्पष्ट बहुमत वाली मोदी सरकार आई तो लगा कि वो इस दबाव की राजनीति के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हमेशा ही संसद की बैठक शुरू होने से पहले हर मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार रहने की बात करते रहे हैं. आंकड़ों की बात माने तो साल 2009 से 2014 के बीच मनमोहन सिंह सरकार के मुकाबले 2014 से 2019 और बाद में सदन में ज़्यादा चर्चाएं हुईं करीब 32 फीसदी. बहुत से महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा भी हुई तो बहुत से बिल बिना विस्तृत चर्चा के भी पास किए गए.
विवादास्पद किसान बिलों को कानून बनाते वक्त भी राज्यसभा में जो हंगामा हुआ, उस वक्त 6 सांसदों को निलंबित किया गया, फिर धरने पर बैठे सांसदों के लिए चाय नाश्ता लेकर भी उपसभापति संसद परिसर पहुंचे, लेकिन बात नहीं बन पाई. जब इस बार विपक्षी सांसदों ने राज्यसभा के सभापति पर अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाया तो आहत सभापति को कहना पड़ा कि इस तरह का निलंबन पहली बार नहीं हुआ है. सबसे पहली बार निलंबन साठ के दशक में हुआ और तब से अब तक ऐसे 11 मौके आए, जब सांसदों का निलंबन किया गया, क्या वो सब लोग भी अलोकतांत्रिक थे. वैसे हाल के वक्त में सबसे ज़्यादा हंगामा 2010 में 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर हुआ. उस साल लोकसभा में सिर्फ़ 2 फीसदी और राज्यसभा में सिर्फ 6 फीसदी काम हुआ. तब हंगामा करने वाले ज़्यादातर विपक्षी सांसद बीजेपी से थे. तब सत्ता पक्ष में कांग्रेस थी.
कब-कब हुआ सांसदों का निलंबन?
साल 1963 में पहली बार ऐसी घटना हुई. उस वक्त राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन संसद के दोनों सदनों से संयुक्त सत्र को संबोधित कर रहे थे. तब कुछ सांसदों ने हंगामा किया और फिर वॉकआउट कर गए. तब लोकसभा ने इन सांसदों पर कार्रवाई की. फिर 1989 में ठक्कर कमीशन की रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान हंगामे के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा 63 सांसदों को लोकसभा से निलंबित किया गया. 2010, जब राज्यसभा में केन्द्रीय मंत्री महिला आरक्षण से जुड़ा बिल पेश कर रहे थे, तो नाराज़ सासंदों ने मंत्री के हाथ से बिल की कॉपी छीन ली. तब सात सांसदों को निलंबित किया गया. 2013, तेलंगाना राज्य के गठन का विरोध करने वाले 9 सांसदों को, फिर 12 अन्य सांसदों को निलंबित किया गया.
2014, आंध्रप्रदेश के मुद्दे पर हंगामा हुआ. कांग्रेस के एक सांसद ने सदन के महासचिव की टेबल पर कांच के गिलास फेंक दिए. तेलंगाना के गठन के विरोध करने वाले 16 सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित किया गया. 2015, लोकसभा अध्यक्ष ने 25 कांग्रेस सांसदों को निलंबित किया था. 2019, लोकसभा में आंध्रप्रदेश के लिए विशेष दर्जे की मांग पर हंगामा करने वाले 45 सांसदों को एक दिन के लिए निलंबित किया गया. 2020, तीन कृषि कानूनों का विरोध करने वाले कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और टीएमसी के सांसदों ने हंगामा किया. कुछ सांसद महासचिव की टेबल पर चढ़ गए. इस पर आठ सांसदों को एक सप्ताह के लिए निलंबित किया गया. 2021, मॉनसून सत्र के दौरान विपक्षी सांसदों ने हंगामा किया. लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस के 6 सांसदों को एक दिन के लिए निंलबित किया.
2021, शीतकालीन सत्र में राज्यसभा के 12 सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया. इन सांसदों पर मॉनसून सत्र के दौरान कृषि कानून और पेगासस पर चर्चा के वक्त हंगामे का आरोप था. निलंबित सांसदों में कांग्रेस के 6, तृणमूल और शिवसेना के दो- दो और सीपीआई ,सीपीएम के एक-एक सांसद हैं. इन सांसदों के निलंबन वापसी को लेकर ही इस सत्र में कामकाज नहीं हो पा रहा.
सदन चलाने के क्या हैं नियम?
संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने के लिए दोनों सदनों में नियम बने हुए हैं. इन नियमों के तहत सांसदों को दूसरे के भाषण में बाधा करने की इजाजत भी नहीं है. लोकसभा में इन नियमों में 1989 में बदलाव किया गया. अब सांसदों के सदन में नारेबाज़ी करने, प्लेकार्ड दिखाने, सरकारी काग़ज फाड़ने और कैसेट या कुछ और बज़ाने पर रोक है. दोनों सदनों के सभापति को सांसद के ठीक से व्यवहार नहीं करने पर सदन से बाहर निकालने का अधिकार है. तब सांसद को पूरे दिन सदन से बार रहना पड़ेगा. ज़्यादा अशोभनीय व्यवहार होने पर सभापति सदस्य का नाम ले सकते हैं. इस पर संसदीय मंत्री उस सदस्य को निलंबित करने का प्रस्ताव ऱख सकते हैं और सदन उस पर सहमति दे तो निलंबन हो सकता है. यह निलंबन उस सत्र के आखिरी दिन तक रह सकता है. लोकसभा ने साल 2001 में नियमों में 374 A जोड़कर लोकसभा अध्यक्ष को किसी भी सदस्य को पांच दिन के लिए निलंबित करने का अधिकार दे दिया गया.
सदस्य का व्यवहार गंभीर रूप से गलत या असंसदीय होने पर उसकी सदस्यता ख़त्म करने के लिए विशेष कमेटी गठित की जाती है. उसकी रिपोर्ट पर सदन निर्णय करता है. ऐसा पहला वाकया पचास के दशक में हुआ जब सांसद एच जी मुदगल की वित्तीय अनियमितताओं और सदन की गरिमा गिराने के आरोप में सदस्यता रद्द की गई. इसी तरह की एक विशेष कमेटी साल 2005 में बनाई गई तब संसद में सवाल उठाने के लिए पैसा लेने का मामला सामने आया था. उस वक्त 10 सांसदों की सदस्यता खत्म की गई थी. लेकिन राज्यसभा में जब यह सवाल उठा कि क्या सांसद की सदस्यता खत्म की जा सकती है तो बताया गया कि राज्यसभा के नियमों के मुताबिक सदस्य को किसी खास समय के निलंबन से ज़्यादा सज़ा नहीं दी जा सकती.
बातें हैं बातों का क्या
सदन को सुचारू तरीके से चलाने के लिए वाजपेयी सरकार के वक्त एक राष्ट्रीय सम्मेलन साल 2001 में हुआ. उसमें बहुत से राजनेताओं ने अपने विचार ज़ाहिर किए. तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का कहना था कि सदन चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष या बहुमत वाले दल की होती है और उसे दूसरे दलों को विश्वास में लेकर सदन चलाना चाहिए. विपक्षी दलों को अपनी बात रखते के साथ सदन चलाने में मदद करनी चाहिए. तब विपक्ष की नेता सोनिया गांधी का मानना था कि चर्चा लोकतंत्र का अहम हिस्सा है, इसलिए सदन में हंगामे कम और चर्चा ज़्यादा होनी चाहिए. श्रीमती गांधी का कहना था कि सभापति को सरकार के ख़िलाफ़ मुद्दे या सवाल उठाने में विपक्षी दलों का सहयोग करना चाहिए.
आमतौर पर संसद का सत्र शुरू होने से पहले सरकार, लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति सर्वदलीय बैठक बुलाते हैं. इन बैठकों में सरकार हर मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार हो और विपक्ष सदन को ठीक से चलाने का भरोसा दिलाता है, लेकिन सदन शुरू होते ही वो वादे कहां हवा हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता. माना जाता है कि संसद आम जनता के मुद्दे उठाने का सशक्त मंच और बेहतर क़ानून बनाने की व्यवस्था है. हाल में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में प्रदूषण को लेकर गंभीर चिंता जताई, लेकिन सदन में यह मुद्दा गायब है.
अब विपक्ष ने तय किया है कि वो बहस में हिस्सा भी लेगा और विरोध भी करेगा. समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि- "अगर सड़कें खामोश हो जाएं तो संसद आवारा हो जाएगी", क्या माननीय सदस्य चाहेंगे कि सदन को ठीक से चलाने के लिए लोगों को सड़कों पर उतरना पड़े? वैसे उसका दूसरा तरीका लोकतंत्र में चुनाव भी है और याद रखिए- जनता सब देख रही है.