निजीकरण रोक पाएंगे कर्मचारी?
गोलाबारूद कंपनियों के निजीकरण के मामले में सरकार को फिलहाल पुनर्विचार के लिए तैयार होना पड़ा है
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। गोलाबारूद कंपनियों के निजीकरण के मामले में सरकार को फिलहाल पुनर्विचार के लिए तैयार होना पड़ा है। ऐसा इन कारखानों के मजदूरों की एकता और संघर्ष के इरादे के कारण करना पड़ा। गौरतलब है कि ऑर्डनेंस फैक्टरी बोर्ड (ओएफबी) की देश भर में फैली 41 इकाइयों के 70 हजार से ज्यादा कर्मचारियों ने 12 अक्टूबर से बेमियादी हड़ताल पर जाने का एलान किया था। तो केंद्रीय रक्षा मंत्रालय के भरोसा दिलाने के बाद उन्होंने हड़ताल टाल दी है। लेकिन तमाम जानकार मानते हैं कि इन सरकारी कंपनियों के निजीकरण का खतरा अभी टला नहीं हैं। इसलिए ये बुनियादी सवाल कायम है कि आखिर सरकार इन कारखानों को निजी हाथों में क्यों सौंपना चाहती है? एक तर्क है कि यहां बनने वाले रक्षा उपकरणों की गुणवत्ता पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। सेना भी कथित घटिया उत्पादों के लिए ओएफबी को कठघरे में खड़ा कर चुकी है। उसी के बाद केंद्र ने इसके कॉर्पोरेटाइजेशन यानी निजीकरण की योजना का एलान किया था।
इसके तहत ओएफबी की तमाम फैक्टरियों को अलग-अलग फैक्टरी का दर्जा दिया जाएगा। इसके विरोध में तमाम कर्मचारी यूनियनें एकजुट हो गईं हैं। यहां तक कि सरकार के इस फैसले के विरोध में आरएसएस से संबधित भारतीय मजदूर संगठन (बीएमएस) भी लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस से जुड़े मजदूर संगठनों के साथ हो गया है। ओएफबी के देश भर में 41 फैक्टरियां हैं। उनमें करीब 80 हजार कर्मचारी काम करते हैं। सरकार ने जुलाई 2020 में ऑर्डनेंस फैक्टरी बोर्ड को बदलकर रक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ ऑफिस बनाने का फैसला किया था। इसके खिलाफ ट्रेड यूनियनों ने चार अगस्त 2020 को एक साझा नोटिस देकर 12 अक्टूबर से बेमियादी हड़ताल बुलाए जाने की बात कही। ओएफबी से सेना को गोलाबारूद से लेकर वर्दी और जूते तक की सप्लाई की जाती है। माना जाता है कि धीरे-धीरे विभिन्न वजहों से इनकी क्वॉलिटी में गिरावट आई है। लेकिन सरकार की ऐसी दलीलें कर्मचारी संगठनों के गले के नीचे नहीं उतर पाई हैं। उन्हें शिकायत है कि सरकार आम निजीकरण की तरफ बढ़ रही है और उसी नीति में गोलाबारूद बनाने वाले फैक्टरियों को भी शामिल कर लिया गया है। उन्हें इस बात का भी डर है कि निजीकरण का रास्ता साफ होने के बाद उनकी नौकरी की स्थिति पहले जैसी नहीं रह जाएगी। फिलहाल, उन्हें सीमित सफलता मिली है। लेकिन अगर सरकार की आम नीति निजीकरण की है, तो आखिर ये क्षेत्र उससे कब तक बच पाएगा?