दरअसल, उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में संविधान के आर्टिकल 32 के तहत अपनी याचिका की सुनवाई की मांग की है. आर्टिकल 32 संवैधानिक उपचार का अधिकार है. यानी संविधान के भाग-3 में देश के नागरिकों के लिए जिन मौलिक अधिकारों का ज़िक्र है, आर्टिकल 32 उन सभी की रक्षा करता है. अनुच्छेद 32 देश के हर नागरिक को ये अधिकार देता है कि वो अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट में मौलिक अधिकार की लड़ाई
लेकिन मुख्तार केस में पंजाब सरकार ने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में ऐतराज़ जताया. उसका कहना है कि 'अनुच्छेद 32 के तहत अपने मौलिक अधिकारों के लिए कोई 'नागरिक' ही सुप्रीम कोर्ट में जा सकता है, ना कि कोई राज्य, पंजाब सरकार का तर्क है कि उत्तर प्रदेश एक राज्य है, वो ना तो कोई नागरिक है, ना तो उसके कोई मौलिक अधिकार हैं और ना ही उसके किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है, तो फिर अदालत किन अधिकारों की रक्षा करे.
उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो सबमिशन दिया, उसमें कहा है कि आर्टिकल 32 में इस बात का कहीं उल्लेख नहीं है कि नागरिकों के मौलिक अधिकार की बहाली के लिए याचिका किसकी तरफ से दाखिल की जाएगी. इसलिए राज्य को भी हक है कि वो मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए कोर्ट का रुख करे. उत्तर प्रदेश सरकार ने कोर्ट में ये भी कहा कि बिना विलंब के न्याय पाना नागरिकों का मौलिक अधिकार है. पंजाब और यूपी की इस कानूनी लड़ाई में नागरिकों के इस मौलिक अधिकार का हनन नहीं होना चाहिए.
मुख्तार अंसारी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला चाहे जो हो, लेकिन आर्टिकल 32 के बारे में दो राज्यों ने दो अलग-अलग व्याख्या की. इस अनुच्छेद के बारे में पहले भी जजों ने जो टिप्पणी की है, उससे यही लगता है कि 'संविधान की आत्मा' की आवाज़ को समझना सरल नहीं है. मिसाल के तौर पर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 32 को लेकर अलग-अलग मामलों में अलग-अलग टिप्पणी की.
मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे़ ने एक मामले में कहा कि 'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाओं की भरमार हो रही है और लोग अपने मौलिक अधिकारों के लिए हाई कोर्ट की बजाय सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुंच रहे हैं, जबकि संविधान के आर्टिकल 226 के तहत उच्च न्यायालयों को भी ऐसे मामलों में रिट जारी करने का अधिकार दिया गया है'. जस्टिस बोबडे ने ही एक और मामले में कहा कि 'देश की कोई भी संस्था किसी को सुप्रीम कोर्ट आने से नहीं रोक सकती, अगर ऐसा किया तो फिर आर्टिकल 32 का क्या मतलब रह जाएगा'?
आत्मा की आवाज़ कोई सुन रहा है?
हमने जिन दो मामलों का जिक्र किया, उनमें परिस्थितियां अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन न्याय की मूल भावना एक ही है और वो ये कि हर नागरिक को बिना किसी अवरोध के जल्द से जल्द न्याय मिलना ही चाहिए. सवाल फिर वही, जैसा कि हमने शुरू में चर्चा की, क्या 'संविधान की आत्मा' की आवाज़ कोई सुन रहा है ? ऐसे में जबकि देश की निचली और उच्च अदालतों में 4 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं और सुप्रीम कोर्ट में करीब 63 हज़ार केस पेंडिंग हैं, तो 'संवैधानिक उपचार का अधिकार' मज़बूत क्यों नहीं बनाया जाता? देखा गया है कि आर्टिकल 32 का इस्तेमाल भी 'रसूखदार' मुवक्किल ही करते हैं.
मुख्तार के केस में भी पंजाब के विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लड़ने के लिए अपने वकील को 50 लाख रुपये दिए हैं. ज़ाहिर है संवैधानिक उपचार भी उन्हीं लोगों के हित साधते दिखते हैं, जो 'शक्तिमान' हैं. दरअसल, हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में न्यायिक अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने का काम 'आवश्यक सेवा' की श्रेणी में नहीं रखा जाता. जिस तरह से सरकार ने स्वच्छ भारत और डिजिटल भारत को बढ़ावा दिया वैसे ही 'न्यायिक अधिकारों के प्रति जागरूक भारत' बनाने के लिए भी अभियान चलाया जाना चाहिए.
आप Habeas Corpus के बारे में जानते हैं?
लोगों को बताया जाना चाहिए कि आर्टिकल 32 के नाम पर उन्हें किस तरह के संवैधानिक अधिकार हासिल हैं. राशन कार्ड, जनधन खाता, आयुष्मान, उज्ज्वला के प्रति जागृति फैलाने वाली सरकार को जनता के बीच 'न्याय-दूत' (या किसी और नाम से अधिकृत सरकारी कर्मचारी या अधिकारी) बैठाने चाहिए. लोगों को बताया जाना चाहिए कि हैबियस कार्पस (Habeas Corpus) नाम का एक न्यायिक अस्त्र उन्हें मिला हुआ है। इस याचिका के जरिये सिस्टम को मजबूर किया जा सकता है कि वो अवैध रूप से हिरासत में रखे गए व्यक्ति को कोर्ट के सामने पेश करे. यानी इसका इस्तेमाल करके सुरक्षित जीवन के मौलिक अधिकार का बचाव किया जा सकता है. एक और उदाहरण- मान लीजिए कि आप आप ट्रेन में जा रहे हैं और किसी पुलिस वाले ने आपसे ट्रेन का टिकट मांग दिया. तो क्या ये सही है? नहीं, कानूनन ये काम सिर्फ टीटीई का है. आम जनता को इस तरह की कई परिस्थतियों का सामना सड़क पर, बैंक में, अस्पताल में या दूसरे दफ्तरों में करना पड़ता है. इनसे निपटने के लिए भी आर्टिकल 32 के तहत आपको क्वो वारंटो (Quo Warranto) नाम का न्यायिक अस्त्र मिला हुआ है. इस याचिका के जरिये आप उस सरकारी अधिकारी/कर्मचारी को सुप्रीम कोर्ट में खींच सकते हैं, जो अनधिकृत कार्य कर रहा है यानी जो काम उसके अधिकार में नहीं है वो उसे अंजाम दे रहा है.
कानून नहीं तो कानून का डर ही सही!
जाहिर है जिस सुप्रीम कोर्ट के पास पहले से ही मुकदमों का अंबार लगा हुआ है, वो ऐसे मामले क्यों स्वीकार करे। जवाब सीधा है. क्योंकि ये हमारे मौलिक अधिकारों का सवाल है. इनकी अहमियत को देखते हुए ही तो संविधान बनाने वालों ने आर्टिकल 32 (पहले आर्टिकल 25 के नाम से जाना जाता था) का प्रावधान किया. कई जगह बदमाशों को डराने के लिए भी लिख दिया जाता है कि कुत्ते से सावधान, जबकि कुत्ता वहां होता नहीं है. कानून का डर भी पैदा हो जाए तो कई मामलों में कानूनी कार्रवाई की नौबत ही नहीं आएगी. कहने का मतलब ये कि संविधान की आत्मा (आर्टिकल 32) को कुचलने वालों को भयभीत करने के लिए भी इस कानून की ताकत की मुनादी कराई जानी चाहिए.
आखिर में बात वहीं आकर अटकती है कि हमें न्याय के अधिकार को 'आवश्यक सेवा' मानना होगा, तभी न्यायिक अधिकारों को लेकर सक्रियता बढ़ेगी. आदर्श स्थितियां तो ये बननी चाहिए कि (1) राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणापत्रों में आर्टिकल 32 का जिक्र करें. मतदाताओं को समझाएं कि वो कैसे और क्यों इसका इस्तेमाल उनके लिए आसान बनाएंगे. (2) सरकारें आर्टिकल 32 का उसी तरह से प्रचार-प्रसार करें, जैसे आज कोरोना को लेकर हो रहा है. (3)अच्छा होता कि अंबेडकर की प्रतिमा, पार्क और स्मारक बनवाने में करोड़ों, अरबों खर्च करने वाले अंबेडकर के विचारों को हर भाषा में, किताबों का रूप देकर देश के कोने-कोने में बंटवा देते. लेकिन, ये आदर्श स्थितियां तभी बहाल होंगी, जब हमारी प्राथमिकता तय होगी. शायद नागरिक अधिकारों को लेकर जागरूकता का प्रसार हमारे राजनीतिक या सामाजिक संस्कार से मेल नही खाता है.