भारत के कृषि क्षेत्र में निजी निवेश आखिर बढ़ता क्यों नहीं?
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कृषि क्षेत्र के तहत बजट कार्यान्वयन पर एक वेबिनार कार्यक्रम के दौरान यह कहा कि खेतीबाड़ी
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कृषि क्षेत्र के तहत बजट कार्यान्वयन पर एक वेबिनार कार्यक्रम के दौरान यह कहा कि खेतीबाड़ी में अनुसंधान और विकास में सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान अधिक है और अब निजी क्षेत्र के लिए अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने का समय आ गया है. राष्ट्रीय किसान आयोग, 2006 (स्वामीनाथन आयोग) की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है कि कृषि क्षेत्र में बुनियादी ढांचा विकसित करने की दरकार है, ताकि किसानों को उनकी उपज का उचित दाम मिल सके.
स्वामीनाथन आयोग के मुताबिक भारत में हर 80 वर्ग किलोमीटर पर एक कृषि मंडी बनाने की आवश्यकता है, जबकि कृषि व किसान कल्याण मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने बीते संसद सत्र के दौरान लोकसभा में यह जानकारी दी थी कि वर्तमान में हर 473 वर्ग किलोमीटर पर ही एक कृषि मंडी है. हालांकि, भारत के कृषि क्षेत्र में निजी कंपनियों का हस्तक्षेप नहीं है तो ऐसा नहीं है. लेकिन, सवाल है कि पिछले कई वर्षों से कृषि क्षेत्र में निजी निवेश अपेक्षा के मुताबिक बढ़ क्यों नहीं पा रहा है.
महाराष्ट्र से हुई थी शुरुआत
पृष्ठभूमि में जाएं तो 2004-05 से ही निजी कृषि मंडियां बनाने के लिए निजी निवेश को आकर्षित करने की शुरूआत महाराष्ट्र से हो गई थी. ऐसे में सवाल है कि क्या निजी कंपनियां मंडियों को बनाने में रूचि रखती हैं और यदि रखती हैं तो उनकी अपनी प्राथमिकताएं क्या हैं?
इसे लेकर गुजरात के बड़ोदरा जिले में जैविक खेती को प्रोत्साहित कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता कपिल शाह बताते हैं, "भारत में कृषि क्षेत्र के तहत निजी मंडियों को स्थापित करने की अनुमति तो एक दशक पहले ही मिल चुकी है. फिर भी इस दौरान गुजरात में कोई तीस निजी मंडियां ही बन सकी हैं. इनमें से भी जो तीन या चार मंडियां कार्यरत हैं, वे भी बड़े शहरों तक ही सीमित हैं. आमतौर पर गांव-देहात में किसानों के आसपास मंडियां नहीं होती हैं."
दरअसल, इसके पीछे एक बड़ी अड़चन यह है कि कॉर्पोरेट कंपनियों द्वारा किसानों से उनकी उपज की सीधी खरीद करना एक बेहद जटिल और लगभग अव्यवहारिक प्रक्रिया है. जैसा कि इस बारे में 'टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई' में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रामकुमार कहते हैं कि भारतीय खेती किसानी का भूगोल समझें तो दूर-दराज के क्षेत्रों तक छोटे किसानों के बीच मंडियां बनाने के लिए कोई भी कंपनी मुंबई से सैकड़ों किलोमीटर दूर किसी गांव या कस्बे में क्यों जाएगी?
इसलिए वह यदि अपनी मंडी बनाएगा भी तो शहर को ही केंद्र में रखेगा, वजह भी है कि ऐसा उसके लिए अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक है.
किसान को तुरंत नकद राशि चाहिए
देखा जाए तो भारत में करीब 86 प्रतिशत छोटे और मझौले किसान हैं, जो आधे से लेकर पांच एकड़ के छोटे-छोटे खेतों में खेती करते हैं. दूसरी समस्या यह है कि कोई भी निजी इकाई भला क्यों चाहेगी कि वह गांव पहुंचकर बड़ी संख्या में छोटे किसानों से अलग-अलग सौदेबाजी करके सीधे उनसे उनकी उपज खरीदे और सभी को अलग-अलग और तुरंत नकद भुगतान भी करती रहे. कोई भी बड़ी निजी इकाई सामान्यत: नकद भुगतान नहीं करना चाहती, जबकि किसान को तुरंत नकद राशि चाहिए होती है.
शहरों की आसपास मंडियां होने की एक बड़ी वजह लागत से जुड़ी हुई भी है. प्रो. रामकुमार के मुताबिक निजी इकाई यदि दूरदराज के क्षेत्रों से कृषि उत्पाद खरीदकर उसे अपनी गोदाम या शहरों की विभिन्न फैक्ट्रियों तक ढोएगी तो इसमें उसे बहुत सारा पैसा खर्च करना पड़ेगा. यहां यह बात ध्यान देने की है कि यदि कृषि मंडियां बनाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की बजाय निजी निवेश को प्रोत्साहित किया जाए, लेकिन इसके बावजूद निजी इकाईयां आगे न आएं तब क्या स्थिति बनेगी? जाहिर है कि इससे किसानों के सामने विकल्पहीनता की स्थिति बनेगी.
बिहार का उदाहरण हमारे सामने हैं जहां वर्ष 2006 से सरकार की अपनी एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) मंडियां बंद हो चुकी हैं और पिछले 15 सालों से वहां निजी क्षेत्र की मंडियां भी नहीं बनने से विकल्पहीन किसान धान जैसी उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य से 30 से 40 फीसदी कम दाम पर बिचौलियों को ही बेचने के लिए मजबूर है.
तीन वर्षों में महज 38 निजी कृषि मंडियां
आंकड़े बताते हैं कि पिछले तीन वर्षों में कृषि क्षेत्र के अंतर्गत निजी कंपनियों द्वारा किया गया निवेश न के बराबर है. कृषि व किसान कल्याण मंत्रालय के मुताबिक बीते तीन वर्षों में निजी ईकाइयों ने तीन सौ करोड़ रुपए की लागत से 38 कृषि मंडियां विकसित की हैं. इनमें सबसे अधिक 18 निजी कृषि मंडियां महाराष्ट्र में विकसित की गई हैं.
दरअसल, कृषि क्षेत्र में निजी निवेश की धीमी गति को समझने के लिए हमें भारतीय कृषि संरचना को समझना पड़ेगा. इसके अंतर्गत निजी कंपनियों के बाजार में आने की कवायद आसान नहीं है. कारण यह है कि हमारे देश में ज्यादातर किसान पांच एकड़ तक छोटी जोत वाले खेतों से जुड़े हैं. कोई निजी इकाई नहीं चाहेगी कि वह दूरदराज के गांवों में जाकर बड़ी संख्या में ऐसे छोटे-छोटे किसानों से सीधे सौदेबाजी करे और उनका माल खरीदे और फिर वहां से गोदामों या बड़ी फैक्ट्रियों में उस माल को परिवहल लागत खर्च करके ढोये.
ऐसा किया तो निजी ईकाई पर लेन-देन की कीमत अत्याधिक बढ़ जाएगी. ऐसे में देखा गया है कि आमतौर पर बड़ी से बड़ी निजी ईकाई भी शहरों से मध्यस्थों के जरिए ही माल खरीदती हैं और दूरदराज के क्षेत्रों में जाकर सीधे किसानों से उनका माल ख्ररीदने से बचती रही हैं.
मिडिल-मैन पर निर्भर निजी ईकाइयां
इस बात को दुग्ध कारोबार से समझने की कोशिश करें तो दूध के लिए तो मंडी में बेचने की कोई व्यवस्था नहीं है. यदि सहकारी समितियां को छोड़ दें तो खुले बाजार में कितनी निजी ईकाइयां हैं जो सीधे किसान-पशुपालकों से दूध खरीदती हैं. वे भी सारा दूध मिडिल-मैन के जरिए ही खरदती हैं.
असल में इसके पीछे भी वही वजह है कि हर छोटा किसान चाहता है उसे तुरंत कैश पेमेंट मिले. लेकिन, आमतौर पर निजी ईकाइयां कैश पेमेंट नहीं करती हैं. इसलिए वे छोटे-छोटे किसानों का खाद्यान्न मिडिल-मैन के जरिए लेना ही पसंद करती हैं. दूसरी बात यह है कि किसान ग्रामीण स्तर पर मिडिल-मैन से सीधे जुड़े होते हैं तो निजी ईकाइयों की बजाय वे मिडिल-मैन पर अधिक भरोसा करते हैं. यही कुछ वजह हैं कि आज भी किसानों से खाद्यान्न खरीदने के मामले में कई बड़ी नामी निजी ईकाइयां थर्ड-पार्टी या मिडिल-मैन से ही डील करती हैं.
निजी मंडियों को स्थापित करने के लिए वर्ष 2004-05 से ही महाराष्ट्र सहित कुछ राज्यों में लगातार प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन इस दिशा में अपेक्षा के मुताबिक सफलता नहीं मिल पा रही है. इसके पीछे एक वजह यह भी है कि कई बार कुछ निजी ईकाइयां कृषि क्षेत्र में निवेश के लिए अपना रुचि दिखाती भी हैं तो वे सरकार के सामने अनके मांगें रखती हैं. उदाहरण के लिए वे सरकारों से कहती हैं कि निवेश के लिए उन्हें बैंक से ऋण चाहिए, जमीन चाहिए और अधोसंरचना आदि बनाने के लिए सरकार साझेदारी करे आदि.
दूसरी तरफ, भारत में करीब डेढ़ करोड़ लोग कृषि खाद्यान्न की खरीद से जुड़े हैं. इनमें से सारे मिडल-मैन नहीं कहे जा सकते हैं. उदाहरण के लिए पंजाब की मंडियों में देखें तो इनमें आधे से अधिक तो ऐसे किसान हैं जो खेती के साथ-साथ खाद्यान्न क्षेत्र में थोड़ा-बहुत व्यापार भी करते हैं. यानी यह ऐसा सेक्टर है जिसमें एक बड़ी आबादी की आजीविका भी जुड़ी हुई है और यहां तक कि कई निजी ईकाइयां इस बड़ी आबादी से परस्पर तालमेल करके अपना कारोबार कर रही हैं.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शिरीष खरे, लेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.