शादी के बाद लड़कियों की पढ़ाई छूटना अब भी सामान्य क्यों?

ऐसा क्या है कि इसी देश के एक हिस्से में कोई घटना सामान्य और ध्यान देने योग्य नहीं समझी जाती है, लेकिन

Update: 2022-01-10 11:40 GMT
ऐसा क्या है कि इसी देश के एक हिस्से में कोई घटना सामान्य और ध्यान देने योग्य नहीं समझी जाती है, लेकिन वही घटना एक बड़े जनमानस के लिए असामान्य और बढ़ा चढ़ाकर पेश की जाती है. इसका सबसे ताजा उदाहरण पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक तस्वीर के वायरल होने के रूप में देख सकते हैं, जिसमें एक युवक को परीक्षा केंद्र के बाहर इंतजार करते देखा जा सकता है, क्योंकि परीक्षा हाल में उसकी पत्नी बीएड की परीक्षा दे रही थी. तस्वीर देख ऐसा लगता है कि मानो वह युवक पत्नी की अनुपस्थिति में अपने बेटे को सुलाने के लिए लोरी गा रहा है. यह तस्वीर श्रीनगर के पास की बताई गई है, जो कुछ ही समय बाद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ट्रेंड करने लगी.
पश्चिम के देशों और यहां तक कि अब भारत के एक हिस्से में यह तस्वीर अति सामान्य समझी जा सकती थी, जिसमें मर्द द्वारा भी इस तरह की जिम्मेदारी निभाना कोई हैरान कर देने वाली घटना की तरह प्रस्तुत नहीं की जाती. लेकिन, सोशल मीडिया पर जिस तरह से लोगों की प्रतिक्रियाएं मिलीं, उन्हें देख लगा कि बहुमत युवक को किसी नायक की तरह देख रहा है, निश्चित ही उसके द्वारा पत्नी के लिए की जा रही सहायता सकारात्मक पहलू ही है, लेकिन उसे भी अतिशयोक्तिपूर्ण तरह से बताया गया जैसे कि पत्नी को परीक्षा में बैठने की अनुमति देना अठारवीं सदी की कोई महान सेवा हो, जबकि इस तरह की प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आने से पति-पत्नी के बीच का सहज संबंध भी असहज नजर आने लगता है.
हालांकि, देश की एक दुनिया है जो लड़की की शादी के बाद भी उसकी पढ़ाई और करियर को जीवन की पिछली घटनाओं से जोड़कर ही देखती है, वहीं देश की दूसरी एक और बड़ी दुनिया है, जो लड़की की शादी के बाद आज भी उसे महज स्तनपान कराने वाली महिला की छवि में बांध कर देखती है.
तस्वीर पर विमर्श की संभावना
दरअसल, इस तस्वीर पर आईं प्रतिक्रियाओं के आधार पर एक व्यापक विमर्श की आवश्यकता है, जिसका उद्देश्य महिलाओं के विवाह के बाद उनके शैक्षिक अधिकारों का संरक्षण कराना और इस दिशा में एक प्रगतिशील मानसिकता बनाना हो सकता है. इसमें यह बात प्रमुखता से शामिल हो कि आज विवाह जैसी संस्था लड़कियों की शैक्षणिक प्रगति में बाधक नहीं है और आजादी के कई दशक बाद अब यह कोई असामान्य बात नहीं रही है.
दूसरा, हमें यह भी देखना होगा कि उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों में पढ़ने के दौरान शैक्षिक डिग्री प्राप्त करने वाली लड़कियां आज भी अक्सर शादी करने से हिचकिचाती क्यों हैं? क्या उन्हें यह डर लगता है कि शादी करने से उनके जीवन में अकादमिक ठहराव आ जाएगा?
सवाल है कि क्यों विवाह हमारे जीवन में एक मुक्ति देने वाली शक्ति होने के बजाय इसके ठीक विपरीत समझी जा रही है? लिहाजा इस बारे में चर्चा की गुंजाइश है. वहीं, यह भी देखा गया है कि हमारे यहां शादियों में देरी होने का एक कारण अकादमिक संबंधी कार्य भी हैं, जिसके चलते लड़कियां अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद ही शादी करना पसंद करती हैं और यही वजह है कि आज के दौर की लड़कियां अब अधिक उम्र में शादी करना पसंद कर रही हैं.
लड़के वालों की शर्तों को वरीयता
दरअसल, यह एक लैंगिक मुद्दा है जो हर धर्म और जाति से संबंधित हैं, क्योंकि आमतौर पर शादी या निकाह ऐसा पवित्र समझौता माना जाता है, जिसमें अमूमन लड़के के परिवार द्वारा निर्धारित नियम और शर्तों को वरीयता दी जाती है. इस तरह, लड़की राज्य के संवैधानिक अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में शिकायत किए बिना इन शर्तों को स्वीकार करती है.
कानूनी गारंटी के बावजूद ऐसा क्यों?
संविधान में अनुच्छेद 21 के अनुसार, लैंगिक भेदभाव के बिना प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान के साथ जीने और जीवित रहने के लिए आजीविका का अधिकार है, तो सवाल है कि किसी भी स्थिति में महिला अपनी ससुराल से पूर्व अनुमति के बिना और शादी के बाद भी शिक्षा जारी क्यों नहीं रख सकती है, यदि कानून उसे यह गारंटी देता है तो कानून साकार होता हुआ भी तो दिखना चाहिए.
दरअसल, अब होना यह चाहिए कि परिवार में एक दुल्हन के अधिकार और कर्तव्य वह खुद तय करे, लेकिन परिवारिक जिम्मेदारियों का ही ताना-बाना इतना जटिल होता है कि दुल्हन पर गृहस्थी का बोझ सबसे अधिक होता है और परंपरागत तौर पर वह उसे निभाती भी है, इसलिए घर के कामों में उसकी पढ़ाई कई बार बिना रोके जाने के बावजूद पीछे रह जाती है.
फिर जैसे-जैसे समय बीतता है, उसकी शिक्षा परिवार से मांगी गई अनुचित रियायत की तरह लगती है और धीरे-धीरे उसका शैक्षिक आवश्यकताओं के प्रति उत्साह कम होता जाता है. अंत में सामान्यत: वह स्वीकृति की एक कड़वी गोली निगलने के लिए मजबूर हो जाती है कि शादी के बाद शिक्षा खिड़की से बाहर कूद चुकी है और उसे अपनी ऊर्जा का उपयोग परिवार की सेवा में करना चाहिए, जो उसे अपनी पढ़ाई बीच में ही बंद करने के लिए मजबूर कर देती है.
ताकि स्त्री-विरोधी सनक बिना आगे बढ़ें
हमारे आसपास ऐसी कहानियां आम हैं, जिनमें यदि लड़का शिक्षित और आर्थिक तौर पर समर्थ है, तो लड़की का परिवार लड़की को तुरंत शादी करने के लिए मना लेता है, उस समय लड़की को मौखिक आश्वासन दिया जाता है कि शादी के कुछ समय बाद वह पढ़ाई पूरी कर सकती है और कहीं कुछ नौकरी भी कर सकती है.
फिर अमूमन होता यह है कि शादी के एक साल बाद जब पढ़ाई पूरी करने या नौकरी पर जाने का समय आता है, तो लड़की पर मां बनने का दबाव आ जाता है, जाहिर है कि बदली हुई परिस्थिति में परिजनों का रवैया भी बदल सकता है. दूसरी तरफ, यह आवश्यक नहीं है कि पति यदि शिक्षित है तो वह नारीवादी और उदार भी होगा ही. हो सकता है कि उसे परिवार के पालन-पोषण के लिए पत्नी से आर्थिक सहयोग लेना अच्छा न लगे. जाहिर है कि यदि पति का ही यह रवैया रहेगा, तो पत्नी सोचेगी ही कि यदि वह उच्च शिक्षा पूरी कर ले तब भी हासिल क्या होगा.
दरअसल, सरकार और नागरिक समाज को महिलाओं के अधिकारों को लेकर कुछ जागरूकता कार्यक्रम शुरू करना चाहिए, विशेष रूप से वैवाहिक जीवन के बाद की स्थिति को ध्यान में रखते हुए, चाहे वह अपने माता-पिता के घर में विरासत के अधिकारों के बारे में हो, या ससुराल में घरेलू अधिकारों को लेकर, ताकि वे भविष्य में एक सम्मानजनक जीवन जी सकें, बिना स्त्री-विरोधी सनक और कल्पनाओं के आगे बढ़ सकें.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
 
शिरीष खरे लेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.
Tags:    

Similar News

-->