क्यों ओवैसी के नाम से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों को मिर्ची लगती है?
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में चुनावी सरगर्मी रफ़्तार पकड़ने लगी है.
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| अजय झा| उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में चुनावी सरगर्मी रफ़्तार पकड़ने लगी है. पहले बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती (BSP Chief Mayawati) का ऐलान की उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में उनकी पार्टी चुनाव अकेले लड़ेगी और फिर AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) का रविवार को यह घोषणा करना कि उनकी पार्टी ओम प्रकाश राजभर (Om Prakash Rajbhar) की अगुवाई वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और कई छोटी पार्टियों के गठबंधन 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ेगी, ने अभी से चुनावी गतिविधि बढ़ा दी है. ओवैसी ने यह भी ऐलान किया कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.
स्वाभाविक है कि इन एक के बाद एक हुए दो ऐलानों से गैर-बीजेपी दलों में हड़कंप मच गया है. एक बार फिर से ओवैसी के नेतृत्व वाली AIMIM को बीजेपी (BJP) की बी टीम की संज्ञा दी जाने लगी है. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि मायावती और ओवैसी जिस वोट बैंक पर सेंध लगाएंगे वह बीजेपी का पारंपरिक वोट बैंक नहीं है, ओवैसी के कारण सबसे बड़ा नुकसान समाजवादी पार्टी का होगा और कांग्रेस पार्टी की हालत और खस्ता हो सकती है, जिसका अप्रत्यक्ष फायदा बीजेपी को मिलेगा. पर क्या ओवैसी पर बीजेपी की बी टीम होने का आरोप लगाना सही है? हर एक राजनीतिक पार्टी का अपना एक प्रभाव क्षेत्र होता है, जिससे आगे बढ़ने की उस पार्टी की इच्छा पर सवाल उठाना गलत है. हर पार्टी चाहती है कि उसे राष्ट्रीय दल में रूप में मान्यता मिले.
93 साल पहले बनी थी AIMIM
AIMIM काफी पुरानी पार्टी है, जिसका गठन 1927 यानि 93 साल पहले हुआ था. उस समय भारत में कांग्रेस, मुस्लिम लीग, शिरोमणि अकाली दल और AIMIM जैसी बहुत कम ही पार्टियां थीं. AIMIM का गठन असदुद्दीन ओवैसी के दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी ने की थी. फिर असदुद्दीन ओवैसी के पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी पार्टी के अध्यक्ष बने, लगातार 6 बार हैदराबाद सीट से लोकसभा के लिए चुने गए. 2004 में उन्होंने राजनीति से सन्यास ले लिया और अब 2004 से असदुद्दीन ओवैसी लगातार हैदराबाद लोकसभा सीट जीत रहे हैं. ओवैसी परिवार 1984 से यानि पिछले दस चुनावों में हैदराबाद सीट जीत रही है.
AIMIM का शुरुआती नाम सिर्फ MIM था जो हैदराबाद के निज़ाम के संरक्षण में चलता था. बाद में MIM के आगे अखिल भारतीय यानि All India जोड़ा गया, पर पार्टी का प्रभाव क्षेत्र हैदराबाद और सिकंदराबाद तक ही सीमित था. 2008 में पिता की मृत्यु के बाद पार्टी की कमान असदुद्दीन ओवैसी के हाथों में आई और तबसे ही वह पार्टी का विस्तार करने में लगे हैं, वह दिन दूर नहीं की AIMIM अपने नाम यानि All India को सार्थक कर दे और उसे एक राष्ट्रीय दल के रुप में मान्यता मिल जाए. उस लिहाज से उत्तर प्रदेश चुनाव AIMIM के लिए काफी अहम है.
AIMIM को राष्ट्रीय पार्टी बनाना चाहते हैं ओवैसी
पहले यह सिर्फ हैदराबाद की पार्टी थी और बाद में इसका प्रभाव क्षेत्र पूरे अविभाजित आंध्रप्रदेश में फ़ैल गया. 2009 के आंध्रप्रदेश विधानसभा चुनाव में और फिर 2014 और 2019 के तेलंगाना विधानसभा चुनावों में AIMIM लगातार सात सीटों पर जीत हासिल करती रही है. 2014 में पार्टी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हाथ आजमाने की सोची और दो सीट जीतने में सफल रही. 2019 के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र से एक लोकसभा सीट और विधानसभा में दो सीट जीतने में AIMIM कामयाब रही. पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी ने पांच सीटों पर जीत हासिल की.
ओवैसी पर आरोप की वह बीजेपी को फायदा पहुंचाते हैं?
AIMIM की मौजूदगी के कारण राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाली महागठबंधन के वोटों का बंटवारा हुआ जिसका सीधा फायदा बीजेपी और एनडीए को मिला. अगर बिहार के चुनाव में AIMIM मैदान में नहीं होती तो शायद अभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नहीं बल्कि तेजस्वी यादव होते. पर यह आरोप लगाना कि AIMIM दूसरे प्रदेशों में सिर्फ बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए ही चुनाव लड़ती है सरासर गलत है. AIMIM के विस्तार से उन दलों का नुक्सान हो रहा है जो कभी मुस्लिम समाज के ठेकेदार कहलाते थे. कांग्रेस पार्टी, आरजेडी और समाजवादी पार्टी को AIMIM से खतरा लगना स्वाभाविक है, क्योंकि AIMIM उन्हें मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में चुनौती देने लगी है.
अभी हाल में हुए गुजरात नगर निगम चुनावों में भी AIMIM को उत्साहवर्धक रिस्पांस मिला था. 2017 के स्थानीय निकाय चुनावों में उत्तर प्रदेश में AIMIM का अच्छा प्रदर्शन रहा था, पार्टी ने 78 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे जिसमे से 31 चुनाव जीतने में सफल रहे थे. जाहिर सी बात है कि इसके बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में लड़ना तर्कसंगत है. AIMIM को ना तो इस बात की चिंता है और ना ही होनी चाहिए कि उसके चुनावी मैदान में होने से किसका नुकसान और किसका फायदा होने वाला है, और ना ही ओवैसी इसकी परवाह करते दिख रहे हैं.
बीजेपी को ओवैसी की मुस्लिम राजनीति से कितना फायदा
पश्चिम बंगाल के चुनाव में AIMIM एक भी सीट जीतने में सफल नहीं रही, जिसका सबसे बड़ा कारण था पश्चिम बंगाल के मुस्लिम मतदाताओं का बीजेपी से खौफ. वह नहीं चाहते थे कि मुस्लिम मतों का विभाजन हो और मुस्लिम समुदाय का वोट थोक के भाव तृणमूल कांग्रेस की झोली में गया. एक और कारण था कि अन्य राज्यों के विपरीत बंगाल में मुसलमान उर्दू नहीं, बल्कि बंगाली भाषा बोलते हैं, जिसके कारण वह ओवैसी से जुड़ नहीं पाए.
इसमें शक की गुंजाइश नहीं है कि ओवैसी के AIMIM के विस्तार की नीति से बीजेपी को कहीं ना कहीं फायदा जरूर हो रहा है, और उत्तर प्रदेश चुनाव में भी शायद फायदा ही मिलेगा, क्योंकि ओवैसी की छवि एक कट्टर मुस्लिम नेता की है. उनके आग उगलते भाषणों के कारण हिन्दू वोट बीजेपी के पक्ष में लामबंद हो जाता है. पर इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि वह घर बैठ जाएं और राजनीति करना छोड़ दें.
प्यार और जंग में सब जायज है
भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ नारा बन कर रह गया था और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम वोट बटोरने के काम चल रहा था. पर हकीकत में धर्म और जाती के नाम पर ही ज्यादातर पार्टियां जिन्दा हैं. लेकिन कहीं ना कहीं एक सशक्त मुस्लिम पार्टी की कमी थी जिसकी पूर्ति अब ओवैसी कर रहे हैं, जिससे उन दलों में जो मुस्लिम वोट के सहारे ही चुनाव जीतते थे खलबली मच जाना लाजमी है. रही बात AIMIM और बीजेपी के बीच अन्दर से सांठ-गाठं होने की, तो जब तक हिन्दू और मुस्लिम वोटों की लामबंदी से दोनों दलों को फायदा हो रहा है तो जाहिर सी बात है औरों को मिर्ची लगना स्वाभाविक है. वैसे भी कहते हैं कि प्यार और जंग में सब जायज है. वर्तमान में भारत की राजनीति किसी जंग से कम कतई नहीं है. बस अंतर यह है कि इस जंग में तलवार नहीं चलती बल्कि पीछे से छुरा ज़रूर घोंपा जाता है, जिसका ताजा उदाहरण कृषि कानूनों पर पिछले सात महीनों से चल रहा किसान आन्दोलन है.