केशव मौर्य को क्यों आया गुस्सा? कहीं अपने ही बुने जाल में तो नहीं फंस गई है बीजेपी?

केशव मौर्य को क्यों आया गुस्सा?

Update: 2022-01-11 14:24 GMT
कई मौकों पर ऐसा देखा गया है, जब मीडिया के सवालों से राजनेता घिर जाते हैं, घबरा जाते हैं और ऐसे में जब उन्हें कोई जवाब सूझता नहीं है तो यह कहकर माइक निकाल इंटरव्यू को जारी रखने से मना कर देते हैं कि आपके सवाल संतुलित नहीं, संदर्भ से अलग हटकर हैं आदि-आदि. ऐसे नेताओं की फेहरिस्त लंबी है और इसमें ताजा नाम जुड़ गया है उत्तर प्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य (Keshav Prasad Maurya) का.
यूपी विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election) को लेकर विदेशी मीडिया के एक देशी पत्रकार ने जब केशव मौर्य से हाल ही में हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने वाले बयान पर सवाल किया तो केशव मौर्य आग-बबूला हो गए. उन्होंने यहां तक कह दिया कि आप पत्रकार की तरह नहीं, बल्कि किसी के 'एजेंट' की तरह बात कर रहे हैं. इसके बाद उन्होंने अपनी जैकेट पर लगे माइक को हटा दिया और इंटरव्यू देने से मना कर दिया. बातें बहुत सारी हैं लेकिन हम उतनी ही बातों का विश्लेषण करेंगे जितनी बातें ऑन रिकॉर्ड कही गई हैं. आखिर धर्म संसद के सवाल पर केशव मौर्या को गुस्सा क्यों आया? कहीं ऐसा तो नहीं है कि बीजेपी अपने ही बुने जाल (ध्रुवीकरण की राजनीति) में फंस गई है और अब कोई जवाब देते नहीं बन रहा है?
धर्म संसद में हेट स्पीच के सवाल पर गुस्सा क्यों?
यह बात सभी जानते हैं कि भारत की संसद से बड़ा कोई संसद देश में हो नहीं सकता. देश संविधान से चलता है इसमें भी कोई दो राय नहीं. ऐसे में धर्म संसद अगर समानांतर सत्ता चलाने की कोशिश करे, संवैधानिक मर्यादा को तार-तार करने की कोशिश करे, कानून व्यवस्था को अपने हाथों में लेने का दुस्साहस करे तो सत्ता पर सवाल उठना स्वाभाविक है. एक खास अल्पसंख्यक समुदाय पर निशाना साधने वाले हरिद्वार की धर्म संसद में जो कुछ कहा गया, वह न सिर्फ भारतीय संविधान के पंथनिरपेक्ष भारत को चुनौती देता है, बल्कि कानून व्यवस्था के लिए भी खतरा पैदा करता है.
चूंकि केशव मौर्य उत्तर प्रदेश की सरकार में एक जिम्मेदार पद पर काबिज हैं लिहाजा सवाल तो उनसे पूछे ही जाएंगे. धर्म संसद से संबंधित सवालों के जवाब में केशव प्रसाद मौर्य ने जो कुछ कहा- उसे जायज नहीं ठहराया जा सकता. उन्होंने कहा कि धर्माचार्यों को अपनी बात अपने मंच से कहने का अधिकार होता है. आप हिन्दू धर्माचार्यों की ही बात क्यों करते हो? बाकी धर्माचार्यों की बात क्यों नहीं करते हो? दूसरी बात जो मौर्य ने कही वो ये कि धर्म संसद बीजेपी की नहीं होती है, वो संतों की होती है. संत अपनी बैठक में क्या कहते हैं, क्या नहीं कहते हैं, यह उनका विषय है. यही दो-तीन बातें बोलकर केशव मौर्य ऐसे फंसे कि उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि अब अगर उन्होंने इंटरव्यू जारी रखा तो आगे के सवालों का जवाब वो नहीं दे पाएंगे.
दरअसल, केशव मौर्य से सवाल किसी बीजेपी नेता के तौर पर तो किया नहीं गया था. चूंकि वह सरकार में नंबर-2 की भूमिका में थे, लिहाजा हिन्दू धर्माचार्य हो या किसी और धर्म के धर्माचार्य, जब उसमें सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की बात होगी तो उसपर कानूनी कार्रवाई की ही जानी चाहिए. धर्म संसद बेशक बीजेपी की नहीं थी और होनी भी नहीं चाहिए, लेकिन अगर उस धर्म संसद में संविधान और कानून की धज्जियां उड़ाई जाएंगी तो सरकार को दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई करनी ही चाहिए. और अगर कार्रवाई नहीं की जाती है तो स्वभाविक तौर पर ये सवाल उठेंगे कि धर्म संसद को बीजेपी नीत सरकार का संरक्षण तो प्राप्त नहीं है.
कांटे की तरह चुभ तो नहीं रही धर्म संसद?
इसमें कोई शक नहीं कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड समेत पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के बीच हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद से निकले विवादित बोल बीजेपी के गले में बार-बार अटक रहे हैं. चुनाव सिर पर है और धर्म संसद के विवादित बयानों की अमरबेल बीजेपी और उसके नेताओं को लगातार चारों तरफ से घेर रही है. ऐसे में बीजेपी और बीजेपी शासित सत्ता को कहीं ऐसा तो नहीं लगने लगा है कि वह अपने ही बुने जाल (ध्रुवीकरण की राजनीति) में फंस गई है और अब उससे कोई जवाब देते नहीं बन रहा है? निश्चित रूप से बीजेपी और उसकी सत्ता के लिए हालात प्रतिकूल तो हो ही गए हैं.
क्योंकि धर्म संसद में अश्विनी उपाध्याय एक बीजेपी नेता के तौर पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी और जिनके बारे में कहा जाता है कि वह 'भगवा संविधान' लेकर आए थे और कहा था, 'हिंदुस्तान में, हिन्दी भाषा में, भगवा रंग में, संविधान हमें विशेष रूप से बनवाना पड़ रहा है.' हिन्दू महासभा की नेता पूजा शकुन पांडे ने कहा था, 'अगर हममें से 100 उन 20 लाख लोगों को मारने के लिए तैयार हैं तो हम जीतेंगे और भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाएंगे.' धर्म संसद में 20 लाख लोगों को मारने और हिन्दू राष्ट्र बनाने की खुले तौर पर कही गई बातें कोई मामूली घटना नहीं है. इस मसले को लेकर सात समंदर पार उन देशों की मीडिया द्वारा भी सवाल उठाए जा रहे हैं जहां पीएम मोदी को अपनी और अपने देश की छवि बनाने में कई साल लग गए.
अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस घटना की खबर को 'हिन्दू अतिवादियों ने मुसलमानों की हत्या का आह्वान किया, भारत के नेता चुप.' शीर्षक से प्रकाशित करते हुए लिखा- 'इस सप्ताह सैकड़ों दक्षिणपंथी हिंदू कार्यकर्ताओं और संतों ने एक सम्मेलन में एक सुर में शपथ ली. वे संवैधानिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र को एक हिन्दू राष्ट्र में बदलेंगे चाहे इसके लिए मरने और मारने की जरूरत क्यों न पड़े.'
नफरती भाषण को अब सुप्रीम कोर्ट भी सुनेगी
धर्म संसद में मुस्लिमों के खिलाफ कथित तौर पर नफरत भरे भाषण देने के साथ उनके नरसंहार का आह्वान करने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई का अनुरोध करने वाली जनहित याचिका पर देश की सर्वोच्च अदालत भी सुनवाई करने जा रही है. इससे पहले बेंगलुरु और अहमदाबाद स्थित भारतीय प्रबंधन संस्थानों (आईआईएम) के छात्रों एवं फैकल्टी सदस्यों के एक समूह ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर उनसे विभाजनकारी ताकतों को दूर रखते हुए देश को आगे ले जाने का आग्रह किया है. देश में अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमले और हेट स्पीच का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री को संबोधित पत्र में साफ तौर पर कहा गया है कि आपकी चुप्पी ने नफरत भरे भाषणों को प्रोत्साहित किया है और देश की एकता एवं अखंडता के लिए खतरा पैदा किया है.
कहने का मतलब यह कि मसला चाहे धर्म संसद में कही गई मुस्लिम विरोधी बातों का हो या फिर सीएम योगी का चुनाव को लेकर 80 बनाम 20 वाला बयान हो, मुद्दा अयोध्या का राम मंदिर हो, वाराणसी का काशी विश्वनाथ धाम हो या फिर कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा का हो, ये सारी बातें चुनाव को हिन्दू और मुसलमान के बीच लाकर खड़ी कर देती हैं. और यही बीजेपी चाहती भी है, बीजेपी नीत सत्ता को भी यही अनुकूल लगता है. क्योंकि अगर चुनाव विकास के मुद्दे पर ठहरती है, महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर आकर ठहरती है तो यह बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी करेगी.
बहरहाल, बात केशव प्रसाद मौर्य का धर्म संसद के सवाल पर दिए गए जवाब की करें या फिर एक न्यूज चैनल के मंच से योगी आदित्यनाथ के ताजा बयान की करें, साफतौर पर ऐसा लग रहा है कि सरकार यह संदेश देना चाह रही है कि अल्पसंख्यकों और कोई व्यक्ति या समूह, जिसका विचार सत्ताधारी दल से मेल नहीं खाता, उनके लिए राज्य में सुरक्षा नहीं होगी. इस तरह का सत्तावादी भाव संविधान के खिलाफ है. चूंकि देश संविधान से चलता है लिहाजा यह भाव देश व राज्य के भी खिलाफ है. बेशक यह सब सत्ता हासिल करने का तात्कालिक जरिया हो सकता है, लेकिन दीर्घकालिक तौर पर यह किसी भी समाज और देश के विकास के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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