अपना भारत कहां है?
अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी की तारीख पक्की होने के साथ ही दुनिया, खासकर इस क्षेत्र में सारी कूटनीतिक गतिविधियों के केंद्र में अफगानिस्तान आ गया है। तमाम संकेत ऐसे हैं
अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी की तारीख पक्की होने के साथ ही दुनिया, खासकर इस क्षेत्र में सारी कूटनीतिक गतिविधियों के केंद्र में अफगानिस्तान आ गया है। तमाम संकेत ऐसे हैं कि अफगानिस्तान में अगस्त के बाद बनने वाली संभावित व्यवस्था को लेकर चली अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों में रूस, ईरान और चीन की भूमिका सबसे अहम हो गई है। भले इन देशों से अमेरिका के संबंध तनावपूर्ण हों, लेकिन अफगानिस्तान के मामले में वह भी इन गतिविधियों को प्रोत्साहित कर रहा है। अब जहां तक इन तीन देशों का सवाल है, तो वे अफगानिस्तान की मौजूदा अशरफ ग़नी सरकार से ज्यादा महत्त्व तालिबान को दे रहे हैँ। इसका भारत पर गहरा असर हो सकता है।
कुछ रक्षा विशेषज्ञों ने तो यहां तक चेतावनी दी है कि अगर तालिबान काबुल की सत्ता पर काबिज हो गया, तो भारत को दो मोर्चों पर नहीं, बल्कि तीन मोर्चों पर युद्ध के लिए तैयार रहना होगा। ये भी गौरतलब है कि तालिबान के पाकिस्तान से गहरे रिश्ते हैं, जबकि पाकिस्तान हर व्यावहारिक रूप में चीन के खेमे में शामिल है। हकीकत यह है कि अफगानिस्तान की भावी व्यवस्था के लिए बैठक चाहे दोहा में हो, मास्को में या तेहरान में- वहां भारत की कोई प्रभावी उपस्थिति नहीं होती। जबकि एक समय था, जब दुनिया इस बात को स्वीकार करती थी कि अफगानिस्तान से भारत के वैध हित जुड़े हैं। लेकिन आज विदेश मंत्री एस जयशंकर अफगानिस्तान में उभर रही स्थिति पर चिंता जताने के अलावा कुछ और नहीं कर पा रहे हैँ। तो भारत के लिए यह गहरे आत्म-परीक्षण का वक्त है। आखिर क्यों रूस भी भारत को इन प्रयासों में कोई सक्रिय भूमिका देने के लिए आगे क्यों नहीं आया है? कुछ रक्षा विशेषज्ञों ने इस हाल के लिए वर्तमान सरकार की 'लाल आंख दिखाने' की कूटनीति को जिम्मेदार ठहराया है। कहा गया है कि बालाकोट हमले और पांच अगस्त 2019 को कश्मीर के बारे में एकतरफा ढंग से लिए गए फैसलों ने भारत विरोधी ताकतों को एकजुट करने के लिए प्रेरित किया। उन कदमों से उन ताकतों को ये संदेश गया कि भारत यथास्थिति और मान्य अंतरारष्ट्रीय व्यवहार का पालन नहीं कर रहा है। अब ताकतें ही अफगान मामले में सबसे अहम रोल निभा रही हैं। तो लाल आंख की नीति से देश के अंदर चाहे जो सियासी फायदे हुए हों, क्या यह नहीं लगता कि अंतरराष्ट्रीय रूप से वो नीति बहुत भारी पड़ रही है?