कहां से आई वह दौलत जिसने तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान जीतने की कुंजी थमा दी?

एक रिपोर्ट का कहना है कि तालिबान की कमाई का सबसे बड़ा ज़रिया ड्रग्स यानी नशे का व्यापार था

Update: 2021-08-23 13:50 GMT

विष्णु शंकर।

हम में से बहुतों के ज़हन में ये ख़याल कई बार आया होगा कि 20 साल तक सत्ता से बाहर रहने के बावजूद तालिबान की अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा करने तैयारी इतनी मुकम्मल कैसे रही. पैसे कहां से आये, गोला, बारूद, गन्स, और बाक़ी सैनिक साज़ोसामान तालिबान ने कहां से जुगाड़ा ! यू एन की एजेंसी UNODC – United Nations Office on Drugs and Crime – की एक रिपोर्ट का कहना है कि तालिबान की कमाई का सबसे बड़ा ज़रिया ड्रग्स यानी नशे का व्यापार था.

अफ़ीम की खेती और उससे हेरोइन बनाने की लैब्स बड़े लम्बे समय तक तालिबान को बहुत बड़ा मुनाफ़ा देती रहीं. इसमें आगे चल कर मेथाफेन्टामाईन नाम का एक और नशा भी जुड़ गया. मेथाफेन्टामाइन बहुत तेज़ी से असर करने वाला केमिकल पदार्थ है जो आदमी के नर्वस सिस्टम पर फ़ौरन असर करता है. यह सफ़ेद रंग का होता है और इसमें किसी तरह की गंध नहीं होती है. यह टेस्ट में कड़वा होता है, और पानी या किसी भी तरह की शराब में तुरत घुल जाता है. खबरदार रहें इसकी लत बड़ी जल्दी लगती है.
मेथाफेन्टामाईन की स्मगलिंग से तालिबान का मुनाफा और भी बढ़ गया क्योंकि इसको बनाने की लागत और तैयार करने वाली लैब्स पर कम खर्च होता था और इसकी मांग बहुत ज़्यादा थी. कुछ साल ऐसे भी बीते जिनमें अंतरराष्ट्रीय मुहिम के चलते अफ़ीम की खेती और हेरोइन और मेथाफेन्टामाइन की प्रोडक्शन में कमी की वजह से तालेबान का मुनाफा कुछ घटा, फिर भी, यू एन की रिपोर्ट के हिसाब से फराह और नीमरोज़ सूबों में 60 फ़ीसद मेथाफेन्टामाइन बनाने वाली लैब्स की मिल्कियत तालिबान के हाथों में थी.
5 सालों में कई सौ प्रतिशत बढ़ी स्मगलिंग
इन नशों की मांग का आलम ये था कि 2014 में UNODC की रिपोर्ट के अनुसार स्मगलिंग की जाने वाली 9 किलोग्राम मेथाफेन्टामाइन पकड़ी गयी थी. 2019 में ज़ब्त की गयी मेथाफेन्टामाइन का वज़न 650 किलोग्राम हो गया. आप खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं कि नशे का जो माल बॉर्डर अधिकारियों की नज़र से बच कर निकल गया होगा, वो कितना होगा.
हेरोइन की स्मगलिंग का सबसे बड़ा सेंटर नंगरहार
हेरोइन की स्मगलिंग का सबसे बड़ा सेंटर अफ़ग़ानिस्तान के पूर्वी सूबे नंगरहार में था. ध्यान देने वाली बात ये है कि नंगरहार की पूर्वी सीमा पाकिस्तान से लगती है. तालेबान न सिर्फ अफीम की खेती करते थे और हेरोइन और मेथाफेन्टामाइन की लैब्स चलाते थे, बल्कि इनकी स्मगलिंग करने वालों से टैक्स भी वसूलते थे. यानी आम के आम, गुठलियों के दाम.
हर ज़िले की सीमा पर स्मगलर, ज़िले के तालेबान कमांडर को, नशे की हर खेप के लिए 200 पाकिस्तानी रुपये या उसके बराबर अफ़ग़ानी टैक्स में देता था. तालिबान कमांडर बाक़ायदा इसकी रसीद स्मगलर को देता था ताकी प्रूफ रहे कि पिछले बॉर्डर पर टैक्स भरा जा चुका है. ये सिलसिला हर बॉर्डर पर दोहराया जाता था. ज़ाहिर है, तालिबान कमांडर भी इस इंतज़ाम से बहुत खुश थे, उन्हें मोटी रक़म जो मिलती थी.
नशे के इंटरनैशनल कारोबार में अफ़ग़ानिस्तान का हिस्सा 84 फ़ीसद है
नशे के इंटरनैशनल कारोबार में अफ़ग़ानिस्तान का हिस्सा 84 फ़ीसद है और यह बरास्ता पड़ोसी देशों, मसलन पाकिस्तान यूरोप, पश्चिमी एशिया, अफ्रीका, कैनेडा और ऑस्ट्रेलिया तक फैला है.
यू एन सिक्योरिटी काउन्सिल ने मई 2020 में एक रिपोर्ट में कहा कि हर साल तालेबान की कमाई डेढ़ अरब डॉलर मतलब आज के भाव पर 11 हज़ार करोड़ भारतीय रुपए से ज़्यादा रही. रिपोर्ट में कहा गया कि तालिबान ने अपनी कमाई बड़ी समझबूझ के साथ ख़र्च की और उसे कभी भी पैसे की किल्लत नहीं रही.
गैरकानूनी माइनिंग भी है बड़ा जरिया
नशे के कारोबार के साथ साथ तालिबान ग़ैरकानूनी माइनिंग और एक्सपोर्ट के काम से भी बहुत सारा पैसा कमाते थे. और जानते हैं, इस पूरे कारोबार को चलाने की ज़िम्मेदारी किसकी थी? नाम है मुल्ला मोहम्मद याक़ूब, जो तालिबान फाउंडर मुल्ला उमर का बेटा है. यहां बताते चलें कि मुल्ला याक़ूब आने वाली तालिबान सरकार में बड़ी ज़िम्मेदारी निभाएंगे ऐसा माना जाता है.
हथियारों का बड़ा जखीरा है तालिबान के पास
ये तो बात हुई पैसों की. लेकिन ऐसा नहीं है कि तालिबान को कभी भी हथियारों और सैनिक साज़ोसामान की कमी भी महसूस हुई हो. सब जानते हैं कि पाकिस्तान तो हक़्क़ानी नेटवर्क की मार्फ़त दुनिया भर में तालिबान का सबसे बड़ा हामी रहा ही है, कई अमेरिकी राजनीतिज्ञों ने तो पाकिस्तान पर यह आरोप भी लगाया है कि जो पैसा उसे हिंसा फैलाने वाले ग्रुप्स पर अंकुश लगाने के लिए दिया जाता था, वह तालिबान तक पहुंच रहा था. और भी देश हैं जिन्होंने पैसे और हथियारों से तालिबान की मदद की. इनमें खाड़ी के कई अरब देश है और और ईरान शामिल हैं. माना जाता है कि ईरान तालिबान को हथियारों से मदद इसलिए कर रहा था क्योंकि वह दुनिया के इस इलाके में अमेरिका का प्रभाव कम करना चाहता था. साथ ही ईरान ये चाहता रहा है कि तालेबान ISIS खोरासन को अफ़ग़ानिस्तान में न पनपने दे. ईरान को ये उम्मीद भी रही है कि अब जो सरकार अफ़ग़ानिस्तान में बनेगी उस पर उसका भी कुछ कंट्रोल रहेगा.
आरोप तो रूस पर भी लगता है कि उसने भी पिछले कुछ साल में सैनिक साज़ोसामान से तालिबान की मदद की है लेकिन इसका कोई सुबूत नहीं मिला है. अब बात कर लेते हैं जुलाई में शुरू हुई तालिबान की सैनिक मुहिम की, जिसने सिर्फ़ छह हफ्तों में उसे पूरे मुल्क का कब्ज़ा दे दिया. एक के बाद एक सूबों में तैनात अफ़ग़ानिस्तान की सेना तिनकों की तरह बिखर गयी और बिना भारी हिंसा और खूनखराबे के तालिबान मुल्क पर काबिज़ हो गए.
अमेरिका के Special Inspector General for Afghanistan Reconstruction – SIGAR – की रिपोर्ट कहती है कि अब तालेबान के पास 2 जंगी जहाज़, 24 हेलीकाप्टर और Boeing कम्पनी के 7 रिमोट कंट्रोल्ड हवाई जहाज़ मौजूद हैं.जून और अगस्त के बीच तालेबान ने 12 टैंक, 51 बख्तरबंद गाड़ियां, 61 तोपें और मोर्टार, 8 एंटी एयरक्राफ्ट गन्स, 1,980 ट्रक, जीप और अन्य गाड़ियां हैं जिनमें 700 तो मशहूर मिलिट्री SUV हमवी ही हैं.
उम्मीद है आप अब तक समझ गए होंगे कि किस तरह अपनी कारस्तानियों और दोस्तों की मदद से तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की बाज़ी जीते. भविष्य में क्या होगा अभी कहना मुश्किल है लेकिन फिलहाल मुल्क पर तालिबान पूरी तरह हावी हैं.
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