यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। एक बेचारी औरत खाने में ज्यादा नमक डालने के जुर्म में पति की मार खाते-खाते मर गई। पति को दुख और अफसोस होना तो दूर, पुलिस के सामने भी वह मर चुकी पत्नी को दोषी ठहराने में लगा हुआ था। क्या इसका मतलब यही नहीं है कि जो स्त्री अपने पुरुष के स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रख सकती, उसका मर जाना अच्छा है? समाज में स्त्री की जगह का पता इसी से चलता है कि खाना अच्छा न बनाने जैसे मामूली मुद्दे पर भारतीय उपमहाद्वीप की अनेक स्त्रियां मारी जाती हैं। इस साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश के नोएडा में एक स्त्री सिर्फ इसलिए अपने पति के हाथों मारी गई थी, क्योंकि उसने उसे रात का खाना देने से मना कर दिया था। एक औरत सिर्फ इसलिए मारी गई, क्योंकि उसने पति को भोजन के साथ सलाद नहीं दिया था! बंगलूरू में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को सिर्फ इसलिए मार डाला कि उसने फ्रायड चिकन उतना अच्छा नहीं बनाया था, जितना उसने सोचा था। भोजन परोसने में देरी भी कई बार स्त्रियों की हत्या का कारण बन जाती है।
इन सब घटनाओं के बारे में पढ़ने-सुनने के बाद सबसे पहला सवाल यही पैदा होता है कि क्या हम सचमुच सभ्य दुनिया में रह रहे हैं। औरतों के प्रति आखिर इतनी घृणा क्यों है कि मामूली कारणों से उनकी हत्या कर दी जाए? घर की स्त्रियों के प्रति आम पुरुषों को इतनी घृणा है कि वे सिर्फ उनका मानसिक उत्पीड़न कर ही शांत नहीं होते, बल्कि थप्पड़, लात, घूंसे मारकर, घर से बाहर कर अपना गुस्सा भी निकालते हैं। उनके अवचेतन में यह सोच जड़ जमाए बैठी है कि बतौर पुरुष अपनी स्त्रियों पर गुस्सा निकालने का, जुल्म करने का अधिकार उन्हें है। कई बार इस पर भी हैरानी होती है कि स्त्रियां यह सब कुछ चुपचाप सहन कैसे कर लेती हैं! फिर ख्याल आता है कि भले ही यह 21वीं सदी है, लेकिन इस उपमहाद्वीप की स्त्रियों को अब भी पुरुषवर्चस्ववाद का सामना करना पड़ता है। अगर वे विरोध करती हैं, तो समाज तो दूर, परिवार की दूसरी स्त्रियां ही उनका साथ नहीं देतीं।
प. बंगाल के बहरमपुर में एक युवक ने साथ पढ़ने वाली एक युवती की भरी भीड़ में इसलिए हत्या कर दी कि वह युवती किसी दूसरे युवक से बात करती थी। पुरुष सिर्फ अपनी पत्नियों को ही व्यक्तिगत संपत्ति नहीं समझते, अपने साथ पढ़ने और काम करने वाली लड़कियों को भी अपनी संपत्ति समझने की खुशफहमी पाल लेते हैं। बहरमपुर का वह जुनूनी युवा उस युवती को लगातार चाकू मारकर ही शांत नहीं हुआ, थाने में जाकर पुलिस से उसने बार-बार यही पूछा कि वह लड़की मर तो गई है न। पश्चिम बंगाल के ही हांसखाली में दोस्त के जन्मदिन में गई युवती की बलात्कार के बाद हत्या ऐसी ही एक नृशंस घटना है, जिस पर काफी हंगामा भी हुआ।
स्त्रियों का निरंतर उत्पीड़न करते-करते पुरुष उन्हें ऐसी अवस्था में पहुंचा देते हैं कि कई बार स्त्रियों को मार डालने की भी जरूरत नहीं पड़ती, वे खुद ही अपने आप को खत्म कर डालती हैं। और इस तरह वे पुरुषों का काम आसान कर देती हैं। क्या आपको आई.आई.टी. की पीएच.डी. स्कॉलर 28 साल की मंजुला देव की याद है, जिसने पति के अत्याचार से तंग आकर एक दिन फांसी लगा ली थी? हमेशा हंसने वाली मंजुला को ऐसा भीषण कदम क्यों उठाना पड़ा? क्योंकि उसका पति मायके से 25 लाख का दहेज लाने के लिए उसे तंग करता था। कोई कामकाज न करने वाला मंजुला का पति एक दिन अपना घर छोड़कर उसके फ्लैट में आ धमका था। उसकी जिद थी कि मंजुला मायके से 25 लाख रुपये लाकर उसे दे, जिससे कि वह अपना कोई कारोबार शुरू कर सके। उसे पत्नी की पढ़ाई और करियर की कोई चिंता नहीं थी। पति के अत्याचार से तंग आकर एक दिन मंजुला ने फांसी लगाकर अपनी जिंदगी खत्म कर दी।
मंजुला की आत्महत्या के बाद उसके स्तब्ध कातर पिता ने कहा था, 'बेटी को आई.आई.टी. में भेजकर मैंने बहुत बड़ी गलती की। इसके बजाय वह पैसा अगर मैं उसके दहेज के लिए रखता, तो आज वह जिंदा होती।' जब उनसे पूछा गया कि इतने लालची परिवार में उन्होंने अपनी बेटी की शादी क्यों की, तो उनका कहना था कि 'दोनों की कुंडली मिलती थी।' इस पर कोई विचार नहीं करता कि कुंडली मिलने के बावजूद मंजुला की शादी सुखद नहीं रही। यह कटु सामाजिक सच्चाई है कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त परिवार भी शादी-विवाह के मामले में घनघोर परंपरावादी होते हैं और वे स्त्रियों के अधिकारों की तुलना में कुंडली और दहेज को ज्यादा जरूरी और महत्वपूर्ण मानते हैं। इस उपमहाद्वीप में स्त्रियां अगर सामाजिक रूप से पिछड़ी, शोषित और उपेक्षित हैं, तो उसका एक बड़ा कारण दहेज प्रथा भी है। सजग-शिक्षित परिवार भी बेटियों के लिए दहेज इकट्ठा करना उन्हें शिक्षित करने से ज्यादा जरूरी समझते हैं।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि दहेज देना ससुराल में बहुओं की सुरक्षा की गारंटी है। भरपूर दहेज देने के बाद भी स्त्रियां ससुराल में अपने रंग-रूप और कमतर शिक्षा के लिए अक्सर ताने सुनती हैं। दरअसल समाज में यह सोच सदियों से जड़ जमाए बैठी है कि स्त्रियां पुरुषों की तुलना में हीन होती हैं। इसलिए बात-बेबात उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश होती है। इस 21वीं सदी में शिक्षा से लेकर खेल-कूद तक-जीवन के हर क्षेत्र में स्त्रियां खुद को साबित कर रही हैं। इसके बावजूद स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अत्याचार की कहानियां बताती हैं कि उनके प्रति समाज की सोच बदलना अभी बाकी है।