उदय प्रकाश ।
चिंता करो मूर्धन्य 'ष' की
किसी तरह बचा सको तो बचा लो 'ङ'
देखो, कौन चुराकर लिए चला जा रहा है खड़ी पाई
और नागरी के सारे अंक
जाने कहां चला गया ऋषियों का 'ऋ'
अपनी यह कविता मुझे याद आ रही है। वाकई यह बचा लेने का समय है। जो भी अच्छा है, उसे संजो लेना है। अभी दो दिन पहले अब्दुलरज्जाक गुरनाह का साक्षात्कार देख रहा था। तंजानिया के इस उपन्यासकार को कुछ ही दिनों पहले साहित्य का नोबेल देने की घोषणा हुई है। उन्होंने जीवन भर ऐसे लोगों पर काम किया है, जो अपनी जमीन से जुदा हो गए हैं, प्रवासी हैं, किसी और देश से आए हैं। ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार होता है, उसे गुरनाह लिखते रहते हैं। लोग जिन्हें दूसरा समझते हैं, दूसरी नस्ल, जाति, क्षेत्र, भाषा का समझते हैं, उनके साथ गलत व्यवहार क्यों करते हैं? गुरनाह को दिया गया नोबेल सम्मान कहीं न कहीं यह संदेश है कि ऐसे लोगों के प्रति उदारता बरती जाए।
आपको याद होगा, जब देश में कई जगह विवाद पैदा हुए थे। सहिष्णुता को लेकर विमर्श चल रहा था, तब भी मेरा और अन्य लोगों का कहना था कि लोकतंत्र को बचाना सबसे जरूरी है और लोकतंत्र केवल संविधान को बचाने से नहीं बचेगा। कानून के आधार पर या संविधान के नारे लगाकर लोकतंत्र नहीं बचेगा। लोकतंत्र एक भावना है और वह अन्यों के प्रति उदारता या सहिष्णुता ही नहीं, बंधुत्व और सहकार की भावना भी है। यह अपने संविधान के मूलभूत संदेश समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और भाईचारे की ओर वापसी का समय है। उम्मीद है, नया साल 2022 हमें इन मूलभूत अच्छाइयों के निकट ले जाएगा।
कभी-कभी यह होता है कि जितनी टकराहटें हमें सतह पर दिखाई पड़ती हैं, उससे कहीं अधिक अंतरक्रियाएं होती हैं। जैसे-जैसे लोग एक-दूसरे के खिलाफ बोलने लगते हैं, भीतर से वे एक-दूजे से उतने ही जुड़ते चले जाते हैं। हम बहुत बेचैन न हों, क्योंकि राजनीति कतई परिमापक नहीं है, किसी समाज की बनावट या उसके स्वास्थ्य को जानने का, क्योंकि राजनीति दूसरी चीजों पर केंद्रित रहती है, वह मूलत: सत्ता केंद्रित रहती है। गुरनाह ने भी यही कहा है कि 'पावर ट्रिक्स' अलग होती है और सामाजिक जरूरत बिल्कुल दूसरी होती है। तो यह जो एक-दूसरे के खिलाफ बोलते दिखाई देते हैं, नेता या अन्य लोग, ये सब एक राजनीतिक स्वांग है। इससे हम कतई प्रभावित न हों। आज के रंगमंच पर बहुत कुछ डरावना और क्रूर चल रहा है, लेकिन उसके भीतर भी बहुत कुछ अच्छा है, जो बचा हुआ है और हमें उसे बचाना है।
हर रोज बहुत सी खबरें आती हैं, ज्यादातर खबरें डराने वाली होती हैं, कभी ओमीक्रोन की आती हैं, तो कभी भ्रष्टाचार या काले धन की आती हैं, लेकिन ऐसी खबरें अभी गायब हैं, जो हमें बहुत प्रेरणा देती हैं। शायद गायब इसलिए हैं, क्योंकि उनकी जरूरत अब वैसी नहीं रही। तो यह भी कहा जाता है कि सब कुछ विज्ञापन है। आप किसी व्यक्ति से मिलते हैं और मिलते ही वह अगर किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता के रूप में मिलता है या कोई विज्ञापन करते मिलता है, तो कोशिश करें कि उसके भीतर के मनुष्य को खोजें और उसके साथ जुड़ें। यह हम सबके लिए इसलिए भी जरूरी है कि कहीं न कहीं अमानवीयकरण की प्रक्रिया चल रही है। सोचना चाहिए, उसके समांतर हम क्या कर सकते हैं? कहीं हम खुद भी अपनी मानवीयता तो नहीं खो रहे हैं? क्या हम खुद भी किसी ब्रांड या राजनीतिक दल के विज्ञापनकर्ता बन गए हैं? सबसे जरूरी है, हम मनुष्य बनें।
अमेरिका में अल गोरे जब राष्ट्रपति का चुनाव हार गए, तब उन्होंने देश के नाम एक संदेश दिया था कि 'अमेरिका की सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या है, परिवारों का टूटना। अगर अमेरिकी परिवार बचा, तो अमेरिका भी एक देश के रूप में बचा रहेगा।' मुझे लगता है, जो विघटन हुआ है, वह सर्वव्यापी है, उसमें सामाजिक विघटन ही नहीं है, वह कई स्तरों पर देशों, राज्यों, संस्कृतियों, समुदायों, नस्लों, जातियों को ही नहीं तोड़ रहा है, बल्कि परिवारों के भीतर भी विभाजन कर रहा है। पहले तो संयुक्त परिवार टूटे और अब छोटे परिवार भी बिखर रहे हैं। तो अगर हम किसी तरह से परिवारों को बचा लें, तो यह बहुत बड़ी बात होगी, वरना हम देख ही रहे हैं बुजुर्गों, बच्चों, बच्चियों का हाल, परस्पर संबंधों का हाल। इनके बीच जो दूरियां बढ़ रही हैं, उन्हें दूर करना होगा, क्योंकि यह किसी कोरोना या ओमीक्रोन से कहीं अधिक खतरनाक है। यह संसार बहुलतावादी है। पृथ्वी पर रहने वाला हर आदमी बहुजातीय, बहुनस्लीय, और बहुभाषी है, इन
आधारों पर कोई भी एकल या इकहरा नहीं है। आज इकहरा होने की कोई कोशिश कामयाब नहीं होने वाली। तय कर लीजिए कि उधर नहीं जाना चाहिए, सबके साथ मिलकर रहना है।
अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा है कि पॉलिटिक्स, इकोनॉमिक्स इत्यादि के पीछे जो 'इक्स' है, वह दरअसल 'एथिक्स'(नैतिकता) का है। और राजनीति में जो नीति आती है, वह नैतिकता से आती है। हम राजनीति को किसी रणनीति या योजना के साथ नहीं, बल्कि नैतिकता के साथ जोड़ें, तब हम पाएंगे कि नया साल हमें कुछ नई उम्मीदें देगा। बेशक, दीये खूब जलाए गए हैं, लेकिन अंधेरा कायम है और खतरे बरकरार। यहां प्रतिरोध भी जरूरी है। प्रतिरोध के बहुत सारे अर्थ हैं। इम्युनिटी भी प्रतिरोध है। हम वैक्सीन लेते हैं कि खुद में रोग प्रतिरोध की क्षमता विकसित कर सकें। प्रतिरोध का मतलब केवल चीखना, चिल्लाना, नारे लगाना, हिंसा करना, क्रांतिकारी होना नहीं है। प्रतिरोध प्रार्थना में भी होता है। गांधी जी से बड़ा प्रतिरोध करने वाला कौन रहा होगा? उन्होंने भी खूब प्रार्थनाएं की हैं, सबको सन्मति दे भगवान।
देखिए, आज लोग बहुत कर्फ्यू, अंकुश, आदेश, निर्देश के बावजूद मास्क नहीं लगा रहे हैं। क्या इस देश में कोई अवज्ञा आंदोलन चल रहा है? क्या लोगों को अपनी मृत्यु की भी परवाह नहीं है? हम ऐसे कैसे हो गए? गहराई से सोचना होगा। आज हम मनुष्यता बचा सके, हवा में ऑक्सीजन बचा सके, नदियों में पानी बचा सके, जीवन के लिए जरूरी चीजें बचा सके, परिवार बचा सके, तभी देश बचा पाएंगे और तभी हम नए साल में उम्मीद के साथ आगे बढ़ सकेंगे।