अच्छा क्या और बुरा क्या
एक सज्जन ने बेहद फिक्र के साथ सोशल मीडिया में लिखा कि बेकारी ने युवाओं को कैसे-कैसे काम करने पर मजबूर कर दिया है, जहां न उनकी योग्यता की परख है और न जीने लायक पैसा।
मनोज कुमार; एक सज्जन ने बेहद फिक्र के साथ सोशल मीडिया में लिखा कि बेकारी ने युवाओं को कैसे-कैसे काम करने पर मजबूर कर दिया है, जहां न उनकी योग्यता की परख है और न जीने लायक पैसा। काम के घंटे भी तय नहीं। यह टिप्पणी फिक्र तो पैदा करती है, लेकिन समस्या गिना कर बात समाप्त कर दी जाए तो बात समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि इसे औपचारिक होना कहते हैं। समस्या है तो समाधान भी तलाशिए और कोई विकल्प बताइए।
ऐसा सवाल जब किया गया, तो टिप्पणी करने वाले सज्जन कुतर्क पर उतर आए। वे शायद थोड़े अर्सा पहले की उस घटना को भूल गए, जब इन्हीं लड़कों पर लांछन लगाया गया था कि वे रास्ते में ग्राहकों का खाना खा लेते हैं। यहां तक कि जूठा खाना ग्राहकों को पहुंचाते हैं। तब उन लड़कों की खूब कुटाई-पिटाई हुई थी और संभव है कि उनमें से कुछ को अपनी जलालत भरी छोटी नौकरी से हाथ भी धोना पड़ा होगा। आज उन्हीं को लेकर यह चिंता कई सवाल खड़े करती है।
हमारे समाज का यह दोहरा चरित्र बताता है कि कल तक जिन्हें हम गरिया रहे थे, आज उन्हीं पर हमारा प्यार उमड़-घुमड़ पड़ रहा है। यह सवाल केवल थोड़े विमर्श के बाद खत्म हो जाने वाला नहीं है, बल्कि सतत विमर्श की मांग करता है। उन सज्जन की फिक्र वाजिब है, मगर कल जो हुआ था, वह करने वाले हम में से ही कुछ लोग थे। तब क्यों इतनी चिंता नहीं हुई। आज जिस अनुपात में महंगाई और बेरोजगारी सुरसा के मुंह की तरह फैल रही है, तब काम की तलाश में जो मिल जाए, वह करना मजबूरी हो जाती है।
यहां तो इन नौजवानों की तारीफ करनी चाहिए कि वे बेरोजगारी से भाग कर गलत रास्ते पर नहीं जा रहे हैं। हताशा और निराशा में गोते लगा कर जान नहीं दे रहे हैं, बल्कि अपनी मेहनत से वे जो कुछ पा रहे हैं, वह तारीफ के काबिल है। हजारों की संख्या में उच्च शिक्षित नौजवान चपरासी की नौकरी के लिए लाइन लगाए खड़े थे, ऐसी खबरें हमें शर्मसार नहीं करतीं और न ही चौंकाती हैं। पीएचडी डिग्रीधारी भी इसी जमात में खड़े हैं, तब यह सवाल उठाया जाना चाहिए।
मगर हम खामोश खड़े रहते हैं, क्योंकि हमारे पास समस्या है, समाधान नहीं। हम अपने आप को दिलासा देते हैं। जरूरी है कि समस्या पर चर्चा हो, उसका समाधान भी तलाश करें। एक सज्जन से चर्चा हो रही थी लगभग इसी विषय पर। उनका ज्ञान सुन कर मन भर गया। उनका कहना था कि आपको पता नहीं होगा कि चपरासी या चतुर्थ श्रेणी वर्ग में कम शिक्षित या अशिक्षित लोगों को क्यों रखा जाता है? उनका कहना था कि पढ़ा-लिखा नौजवान आपको क्यों पानी पिलाएगा? क्यों आपकी मेज साफ करेगा? ये कम शिक्षित या अशिक्षित बिना सोचे-समझे ये कार्य कर लेते हैं।
उनका डर यह भी था कि जिस तरह शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है, ऊंची शिक्षा वाले भी इस वर्ग में नौकरी करने आएंगे। तब संभव है कि वे हमें पानी न पिलाएं और न ही मेज साफ करें। उनका तर्क सुन कर कलेजा मुंह को आ गया। यह सोच उस समय की है, जब हम आजादी के अमृतकाल में खड़े हैं। ऐसी बातें सुन कर लगता है कि जैसे अंग्रेज तो शरीर से चले गए, लेकिन मन में, मानसिकता में आज भी उनका वजूद कायम है।
ऐसे में बरबस गांधीजी का स्मरण हो आता है। उन्होंने कभी खुद का काम करने में शर्म महसूस नहीं की। पाखाना तक साफ करने में वे गर्व महसूस करते थे। उनका आत्मनिर्भर होना एक भारत का आत्मनिर्भर होना था। हम गांधी की खूब दुहाई देते हैं। गांधी को खूब मानते हैं, लेकिन गांधी का कहा नहीं मानते हैं। वे सबको समान मानते थे और उनका आचरण भी समान था।
हालांकि वाट्सऐप के ज्ञान-वन में उनकी छवि खंडित करने की हर कोशिश हो रही है, लेकिन जो है, सो है। असल सवाल तो यह है कि हम इक्कीसवीं सदी में पानी के गिलास और मेज साफ करने के लिए एक दूसरे व्यक्ति पर निर्भर क्यों हैं? कैसे होंगे हम आत्मनिर्भर? कब हम अंग्रेजी बाबू मानसिकता से उबर सकेंगे। एक व्यक्ति का दुख देख कर दुखी होना मानवीय पक्ष है, लेकिन शोषण की मानसिकता से उबर न पाने को क्या कहेंगे? खाना पहुंचाने की नौकरी करना शर्म की बात नहीं है, क्योंकि जो विकल्प आज मौजूद हैं, उन्हीं में से काम चुनना पड़ेगा, क्योंकि जीने के लिए कुछ तो करना होगा। दर्द महसूस करते हैं तो दवा दीजिए, दर्द को नुमाइश की वस्तु न बनाइए। और कुछ न हो सके तो किसी को छेड़िए मत। विचित्र है कि हम समाज में एकरूपता चाहते हैं, एकता नहीं। हम चाहते हैं कि वह नौजवान भी हमारी तरह दिखे, लेकिन कैसे, यह सवाल खामोश है।