क्या जोड़ना चाहते हैं राहुल, बिना किसी लक्ष्य के कहां पहुंचेगी उनकी 'भारत जोड़ो यात्रा'?
सोर्स- Jagran
डा. एके वर्मा : कांग्रेस नेता राहुल गांधी इन दिनों 'भारत जोड़ो यात्रा' पर हैं। कन्याकुमारी से कश्मीर तक चलने वाली यह यात्रा 150 दिनों तक चलेगी। इस दौरान उसका काफिला 12 राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों की 3,500 किमी यात्रा करेगा। पदयात्राओं से देश को जानने का अवसर मिलता है। ऐसे में यह राहुल के लिए बढ़िया मौका है कि वह भारत को लेकर अपनी समझ और बढ़ाएं। इस बीच एक बड़ा सवाल यही है कि राहुल जैसे नेता को इस समय ऐसी यात्रा की क्या जरूरत पड़ गई? क्या देश में कहीं कोई अलगाववादी आंदोलन चल रहा है? या जनता के बड़े-वर्ग में रोष पनप रहा है, जो जेपी की 'संपूर्ण क्रांति' जैसा हो? या कहीं सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं, जिनके विरुद्ध मुहिम छेड़नी है? आखिर क्या है इस यात्रा का असली उद्देश्य?
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के अनुसार यात्रा का उद्देश्य 'सामाजिक-सौहार्द की स्थापना, संवैधानिक मूल्यों की पुनर्स्थापना और करोड़ों भारतीयों की समस्याओं का समाधान करना है।' गौर से देखें तो मोदी सरकार इन सभी पहलुओं पर काम कर रही है, मगर लगता है कि कांग्रेस को यह दिख नहीं रहा। वह तो सरकार और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अंधविरोध में लगी है। नि:संदेह कांग्रेस को सरकारी नीतियों के विरोध का पूरा अधिकार है, पर उसे यह अपेक्षा तो नहीं करनी चाहिए कि सरकार कांग्रेसी एजेंडे पर चले। आखिर वामपंथी प्रभाव वाली कांग्रेस सरकारों और दक्षिणपंथी भाजपा सरकार के एजेंडे और कार्यसंस्कृति में फर्क तो होगा ही। कांग्रेस ने भाजपा पर हमेशा असहिष्णु होने का आरोप लगाया है, लेकिन क्या उसे भी सरकार के प्रति सहिष्णुता नहीं दिखानी चाहिए?
राहुल ने भारत जोड़ो यात्रा ऐसे समय शुरू की है जब उनमें स्वयं कांग्रेस को नेतृत्व प्रदान करने के आत्मविश्वास का अभाव है। वह कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे चुके हैं और यह स्पष्ट है कि इस समय अध्यक्ष बनने भी नहीं जा रहे। फिलहाल कांग्रेस लुंजपुंज है। उसकी सत्ता मात्र दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही बची है। वह लोकसभा में विपक्ष की मान्यता हासिल करने लायक नहीं रही। पार्टी की नैया डूब रही है। पुराने और कर्मठ नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद, गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल पार्टी से किनारा कर गए हैं। तमाम असंतुष्ट हैं।
ये वे नेता हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन कांग्रेस को समर्पित कर दिया। स्पष्ट है कि अंदरखाने जरूर कुछ गड़बड़ है, जो इन नेताओं को स्वीकार्य नहीं। कांग्रेस लगातार हार का सामना कर अपनी जमीन और जनाधार खोती जा रही है। इसके बावजूद विचारधारा, संगठन और नेतृत्व के मुद्दों पर पार्टी के भीतर या बाहर कोई गंभीर चिंतन या मंथन नहीं हो रहा। इसी से दुखी होकर कांग्रेस के बड़े नेता पार्टी छोड़ते जा रहे हैं। जब पूर्णतः समर्पित कांग्रेसी ही राहुल से नहीं जुड़ पाए, तो जनता उनसे कैसे जुड़े? क्या राहुल ने भाजपा और मोदी से बेहतर कोई बेहतर विकल्प जनता के समक्ष रखा? इसके विपरीत उन्होंने अपनी छवि एक अगंभीर नेता की बना ली है। तब यह सवाल अनुचित नहीं कि क्या देश टूट रहा है या कांग्रेस? कांग्रेस को अपने कुनबे को जोड़े रखने की जरूरत महसूस क्यों नहीं हुई?
ऐसे में क्या भारत जोड़ो यात्रा से पहले राहुल को 'कांग्रेस-जोड़ो' यात्रा नहीं करनी चाहिए थी? आखिर राहुल किसको जोड़ने निकले हैं और किससे? क्या उनकी वैचारिक समझ में कुछ खोट है? क्या वह भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई आदि विविधताओं को समाज की टूटन समझने की भूल तो नहीं कर रहे और क्या 'नेहरू-गांधी परिवार' से जनता को जोड़ना ही राहुल का 'आइडिया आफ इंडिया' तो नहीं? भारत जोड़ो या कांग्रेस जोड़ो के क्रम में राहुल को मोदी और भाजपा के विरुद्ध संगठित होने वाले 'महागठबंधन' के घटक दलों को भी जोड़ने की जरूरत थी।
राहुल का लक्ष्य भले ही भाजपा और मोदी से स्पर्धा हो, लेकिन उनकी असल चुनौती ममता, नीतीश, केसीआर, मायावती, केजरीवाल और अखिलेश आदि हैं। आगामी लोकसभा चुनावों में मोदी के विरुद्ध प्रमुख प्रतिस्पर्धी बनने के लिए इन नेताओं में संघर्ष तय दिखता है। राहुल की यात्रा अगले वर्ष जनवरी में संपन्न होगी और तब तक आगामी आम चुनावों की सुगबुगाहट होने लगेगी। ऐसे में इस यात्रा का एक मकसद राहुल का कद बढ़ाना भी लगता है, ताकि वह विपक्षी गोलबंदी के केंद्र में आ सकें।
इसमें कोई संदेह नहीं कि महत्वाकांक्षी नेताओं को यात्राएं करनी चाहिए, लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि उसका मूल-उद्देश्य है क्या? 1930 में महात्मा गांधी ने 'दांडी-मार्च' किया, जिसमें 'नमक-कानून' तोड़ने का लक्ष्य था। विनोबा भावे की पिछली सदी के छठे दशक में सर्वोदय यात्रा का उद्देश्य भूमिहीनों को भूमि दिलाना था। वास्तव में पद-यात्राएं व्यक्ति को महान नहीं बनातीं, उन यात्राओं के लक्ष्य उसे महान बनाते हैं? राहुल ने तो बताया ही नहीं कि किस लक्ष्य को लेकर वे पद-यात्रा कर रहे हैं?
आज की कांग्रेस न तो 1947 वाली कांग्रेस है और न आज वह महात्मा गांधी। गांधी जी तो देश को 'कांग्रेस-मुक्त' करना चाहते थे। वह स्वयं कांग्रेस के विघटन की घोषणा करने वाले थे। लोग अनावश्यक ही प्रधानमंत्री मोदी को कांग्रेस मुक्त भारत की परिकल्पना का श्रेय देते है। यह तो राष्ट्रपिता गांधी का संकल्प है, जिसे मोदी पूरा कर रहे हैं। जो लोग वैचारिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं, वे न केवल मोदी सरकार की तमाम उपलब्धियों की अनदेखी करते हैं, वरन इसे भी अनदेखा करते हैं कि अपने लंबे शासनकाल में कांग्रेस ने देश को किस रसातल में पहुंचा दिया था। आज यदि जनता का मन कांग्रेस से उखड़ गया है तो इसका यह मतलब नहीं कि कांग्रेस को जनता कभी कोई अवसर देगी ही नहीं, लेकिन जनता को बेसब्री से उस दिन का इंतजार है, जब कांग्रेस अपने पुराने स्वर्णिम दिनों की राह पर अपना कायाकल्प करेगी। राहुल की इस यात्रा से ऐसा होना संभव नहीं लगता।