Written by जनसत्ता; दुनिया के तमाम देशों की नजर भारत पर लगी रही कि उसका क्या रुख रहता है। भारत चूंकि हमेशा से युद्ध के खिलाफ रहा है, रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर भी उसने स्पष्ट राय दे दी थी कि जितनी जल्दी हो सके, बातचीत के जरिए समाधान निकालना और युद्ध समाप्त कर देना चाहिए। मगर दोनों देशों के रवैये की वजह से यह युद्ध लंबा खिंचता गया।
इसका असर भी अब दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं पर साफ नजर आने लगा है। ऊर्जा और खाद्य आपूर्ति शृंखला बुरी तरह प्रभावित हुई है। ऐसे में भारत ने एक बार फिर इस युद्ध को रोकने की बात की है। प्रधानमंत्री ने यूक्रेन के राष्ट्रपति बोलोदिमीर जेलेंस्की से फोन पर बात कर कहा कि यूक्रेन संकट का समाधान सैन्य बल से नहीं निकल सकता। उन्होंने चिंता जताई कि इस युद्ध में परमाणु ठिकानों पर हमले से दुनिया के सामने बड़ा संकट पैदा हो सकता है। अभी कुछ दिनों पहले एक हमले में जापोरिज्जिया परमाणु ऊर्जा संयंत्र क्षतिग्रस्त हो गया। गनीमत है, कोई बड़ा संकट नहीं पैदा हुआ। इसकी जिम्मेदारी दोनों देश एक-दूसरे पर डालते रहे।
रूस-यूक्रेन युद्ध में सबसे अधिक चिंता परमाणु संयंत्रों पर हमले और परमाणु हथियारों के इस्तेमाल को लेकर जताई जाती रही है। कुछ दिनों पहले रूस ने धमकी भी दी कि यूक्रेन को परमाणु हथियारों के हमले के लिए तैयार रहना चाहिए। युद्ध में अक्सर विवेक से काम नहीं लिया जाता। उसमें केवल किसी भी तरह अपनी जीत सुनिश्चित करने की सनक सवार रहती है। इसलिए यह आशंका निराधार नहीं है। यों भी रूस का रवैया ज्यादा अड़ियल नजर आता रहा है और उसने यूक्रेन पर हमले कर उसका काफी नुकसान पहुंचाया है।
पिछले महीने समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन मिले, तब भी हमारे प्रधानमंत्री ने उन्हें सलाह दी थी कि वे युद्ध का रास्ता छोड़ कर बातचीत के जरिए समाधान निकालने का प्रयास करें। तब पुतिन ने उनसे सहमति जताई थी। उस वक्त पूरी दुनिया में उम्मीद जगी थी कि रूस अब युद्ध का रास्ता छोड़ कर बातचीत की पहल करेगा। मगर हुआ इसके उलट। रूस ने फिर से युद्ध तेज कर दिया। इससे फिर यही साबित हुआ कि रूस किसी की सलाह पर अमल करने को तैयार नहीं।
अब भारत ने यूक्रेन से भी युद्ध का रास्ता छोड़ने की अपील की है। सवाल है कि क्या भारत की इस अपील पर गौर किया जाएगा। यूक्रेन के युद्ध का रास्ता छोड़ने का अर्थ है कि रूस की सारी शर्तें मान लेना, जिसके लिए वह तैयार नहीं है। जिन देशों से उसे इस युद्ध में सहयोग की उम्मीद थी, वे भी शुरू से किनारा किए बैठे हैं। हालांकि कुछ देशों ने उसे आश्वासन देने में कोई कमी नहीं की।
मगर सच यह है कि अब भी यूक्रेन अपने दम पर लड़ रहा है। यह यूक्रेनी नागरिकों के लिए सामरिक गर्व का विषय हो सकता है, पर इस युद्ध के चलते वहां के लोगों के जीवन पर बुरा असर पड़ रहा है। उसकी सारी अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है और यह अनिश्चित है कि अब कितने साल लगेंगे उसे बेहतर स्थिति में लौटने के लिए। युद्ध जीत लेना ही बड़ी बात नहीं होती, राष्ट्र की खुशहाली कैसे सुनिश्चित हो, यह ज्यादा महत्त्व की बात होती है। इसलिए प्रधानमंत्री ने जो सुझाव दिए हैं, उन पर यूक्रेन से गंभीरतापूर्वक विचार की अपेक्षा की जाती है।