आभासी विकार और मैं सवार
जबसे बीवी-बच्चे मुझसे और मैं उनकी ओर से आभासी लोक की ओर कूच कर विरक्त हुआ हूं
जबसे बीवी-बच्चे मुझसे और मैं उनकी ओर से आभासी लोक की ओर कूच कर विरक्त हुआ हूं, हमारा सबका आपस में संपर्क लगभग टूट सा गया है, रिश्तेदारों से तो नाता बहुत पहले ही टूट चुका था। और तो और, अब तो अपने तक से नाता टूट गया है। अब हम कभी कभार जब बहुत ही जरूरी लगे मुंह लटकाए व्हाट्सैप, इंस्टाग्राम, ट्विटर, फेसबुक के थ्रू एक दूसरे से मिल लेते हैं एक दूसरे को पहचानने की बहुत कोशिश करते हुए। तब लगता है जैसे बहुत पहले हमने एक दूसरे को शायद कहीं देखा जरूर है। पर पता नहीं, कहां देखा होगा? ऐसे में दिमाग पर एक दूसरे को पहचानने के लिए हद से आगे का जोर डालना पड़ता है। तब एक दूसरे को पहचानते हुए दिमाग की नसें फटने तक जा पहुंचती हैं। वैसे अब मेरी तरह वे सब भी तो अपनी अपनी आभासी दुनिया में अति प्रसन्न हैं। इसलिए मैं भी उनकी हंसती मुस्कुराती आभासी दुनिया में कतई बाधा नहीं बनना चाहता। वे जैसे भी रहें, जिस भी दुनिया में रहें, बस, खुश रहें। मेरी बस! भगवान से यही कामना! अब तो मैं भी अपनी आभासी दुनिया में इतना रम गया हूं कि प्यास लगने के बाद भी घंटों टेबल पर पानी का गिलास पड़ा रहता है।
प्यास से गला सूखा जा रहा होता है। पर फोन पर से टिकीं नजरें होती हैं कि पानी के गिलास को देखती भी नहीं। तौबा ! तौबा! अब कोई चाह कर भी न बचाए मुझे फेसबुक, व्हाट्सैप, ट्विटर, इंस्टाग्राम की इस खतरनाक सवारी से। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन पांच विकारों को त्यागना पहले ही दिक्कत दे रहा था, पर अब इनमें पांच विकार और जुड़ गए हैं- फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, यूट्यूब और व्हाट्सैप। इनसे तो किसी भी जीव का बचना बहुत कठिन है। चाहे कोई कितना ही त्यागी क्यों न हो, चाहे कोई कितना ही वैरागी क्यों न हो। सच कहूं तो अब मैं पंच विकारों की आभासी दुनिया में आठ पहर चौबीसों घंटे इतना व्यस्त मस्त रहता हूं कि अपने पराए, सुख दु:ख, ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर सब मेरे लिए गौण हो गए हैं। मैं इन सबसे ऊपर ही नहीं, बहुत ऊपर उठ गया हूं। इतना ऊपर कि अब मेरा नीचे आना कठिन है। मेरे लिए अब ऑफिस के काम गौण हो गए हैं। फाइल सारा दिन मेरे ऑफिस की टेबल पर पड़ी रहती है और मैं आभासी दुनिया के किसी न किसी विकार का शिकार करता खुद ही उसका शिकार हुआ रहता हूं। इन विकारों के वशीभूत चलते चलते कभी कभी मुझे पता ही नहीं चलता कि कब मैं कहां जा पहुंचा! जाना होता है बाजार तो जा पहुंचता हूं थियेटर।
लाना होता है आटा तो ले आता हूं डाटा। आना होता है अपने घर तो जा पहुंचता हूं किसी और के घर। अब तो मेरी दशा ये है कि अपनी आभासी दुनिया की न टाली जाने वाली व्यस्तताओं के चलते ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर को भी बड़ी मुश्किल से वक्त निकाल पाता हूं। काश! पेट के लिए लंच, ब्रेकफास्ट, डिनर जरूरी न होते तो आभासी दुनिया में जीना कुछ और आसान हो जाता। अच्छा ही हुआ जो मुझे बहुत पहले शूगर हो गई। इसलिए अब चाय से निवृत्त हूं। चलो, अब इस बचे समय में भी मजे से बिन किसी तनाव के आभासी दुनिया में थोड़ा और सैरसपाटा कर लेता हूं। अगर जो चाय पीने की लत बची होती तो आभासी दुनिया में विचरण करते एक यह भी तनाव रहता कि यार! अभी यू ट्यूब पर घूमने के बाद चाय भी तो बनानी पीनी है। तब आभासी दुनिया में घूमने का सारा मजा किरकिरा हो जाया करता। हे मेडिकल साइंस वालो! आपने बंदों को मारने के लिए ये बना डाला, वो बना डाला। अब मेरी आपसे एक गुजारिश है कि प्लीज! अब जरा सच्ची को जनहित में ऐसा कुछ खोज निकालो कि मात्र पानी का एक छींटा लिया और सालों घूमते रहे अपनी अपनी आभासी दुनिया में बिना ब्रेक, ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर किए बेधडक़! बेखौफ!
अशोक गौतम
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By: divyahimachal