लखीमपुर में उड़ी हिंसा की धूल पूरी तरह जमीन पर आई भी नहीं है कि सिंघु बॉर्डर पर किसानों के प्रदर्शन स्थल के निकट एक युवक की निर्मम हत्या ने झकझोर कर रख दिया है। यह हत्या ऐसी है, जिससे संयुक्त किसान मोर्चा ने भी पल्ला झाड़ लिया है और इसे एक बड़ी साजिश करार दिया है। हत्यारों ने जिस तरह से शव को अपमानित किया है, उसे हल्के से नहीं लिया जा सकता। यह घटना ऐसी नहीं है, जिससे संयुक्त किसान मोर्चा आसानी से दामन छुड़ा ले। कोई भी आंदोलन जिम्मेदारी भरा काम है, इस जिम्मेदारी को उठाने वालों के लिए यह जरूरी है कि वे संविधान और मानवीयता के तहत अपना नैतिक बल बनाए रखें। इस हत्या से आंदोलन पर भले कोई सीधा असर न पडे़, लेकिन एक दुखद अध्याय तो उसके साथ जुड़ ही गया है। किसान मोर्चा पूरा जोर लगा देगा कि वह मरने वालों के साथ-साथ मारने वालों से भी दूरी बना ले, लेकिन क्या वह हाथ झाड़कर खड़ा हो सकता है?
यह बहुत दुख की बात है कि इस आंदोलन के साथ एक संप्रदाय विशेष का धार्मिक जुड़ाव किसी से छिपा नहीं है। इस धार्मिक संप्रदाय के झंडावाहकों के दामन पर इस निर्मम हत्या के दाग लगे हैं। यह संजीदगी के साथ विचार करने का समय है। मारने वालों को सोचना चाहिए कि इस हत्या से किसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई है? क्या इस हत्या से आंदोलन को मजबूती मिली है? कायदे से आंदोलन में तो उन्हीं लोगों को होना चाहिए, जिनका आचरण संविधान की रोशनी में जिम्मेदारी भरा हो। किसान आंदोलन के नाम पर एक तांडव देश ने 26 जनवरी को दिल्ली की सीमा से लाल किले तक देखा था, लेकिन तब भी देश ने हुड़दंग करने वालों को माफ कर दिया था। आज उस बवाल की कोई चर्चा नहीं करता। किस तरह से तलवारबाजी हुई थी, किस तरह से लोगों को आतंकित किया गया था, लोग भूले नहीं हैं। इसके बावजूद किसान आंदोलन चल रहा है और ऐसा लगता है कि अराजक तत्वों की संख्या आंदोलन में फिर बढ़ रही है।
अब किसान आंदोलन के कर्ताधर्ताओं को सचेत हो जाना चाहिए। लखीमपुर में किसानों के साथ सहानुभूति के बावजूद एक दुखद तथ्य यह भी है कि वहां हिंसा को हिंसा से जवाब दिया गया। किसान आंदोलन के नेताओं को एक बार गिरेबान में झांकना चाहिए। क्या ऐसी हिंसा के कारण उनके प्रति सहानुभूति में कमी नहीं आ रही है? ऐसी हिंसा से क्या समाज में हमेशा के लिए एक ऐसा वर्ग नहीं खड़ा हो रहा है, जिसकी यादों में किसान आंदोलन एक दु:स्वप्न होगा? क्या किसानों की कोई जवाबदेही नहीं है? किसी भी आंदोलन को अंदर से साफ करना और रखना आंदोलनकारियों का स्वयं का काम है। अगर आंदोलन में हिंसक या साजिश करने वाले शामिल होने लगे हैं, तो यह किसान नेताओं की सबसे बड़ी जवाबदेही है। जो नकली किसान समर्थक आंदोलन में घुस आए हैं, उन्हें पहचानकर निकाल बाहर करना भी आंदोलनकारी किसानों का ही कर्तव्य है। हजारों किसान दिल्ली सीमा पर डटे हैं, लेकिन क्या किसी में हिम्मत नहीं थी कि ऐसी निर्मम हत्या को रोकता? मृतक पंजाब का एक मजदूर बताया जा रहा है, उसे न्याय मिलना चाहिए। ध्यान रहे, इस देश में सजा देने का अधिकार केवल अदालत को है और किसी को नहीं।