विजय दर्डा का ब्लॉग: खौफनाक सड़क पर सांसें अटक गई थीं
एक तरफ नीचे गहरी खाई! ऐसी खाई कि यदि आपका वाहन जरा सा फिसल जाए तो जिंदगी महफूज रहने की कोई उम्मीद न रहे
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
एक तरफ नीचे गहरी खाई! ऐसी खाई कि यदि आपका वाहन जरा सा फिसल जाए तो जिंदगी महफूज रहने की कोई उम्मीद न रहे. दूसरी तरफ ऊंचे खड़े पहाड़ जिनसे पत्थरों के लुढ़कने का खतरा हर पल बना रहता है. पता नहीं कौन सा पत्थर काल बन जाए! पता नहीं कब पहाड़ का कोई टुकड़ा खिसक कर नीचे आ गिरे और रास्ता जाम हो जाए!...और गड्ढों से भरी सड़क की चौड़ाई भी 15 फुट से ज्यादा नहीं है. खासकर जोजिला पास से सोनमर्ग तक का करीब 27 किलोमीटर का सफर बेहद खौफनाक था. साथ में मेरे अनुज राजेंद्र भी थे. हम हर पल भगवान का नाम ले रहे थे.
एनएच-1 नाम की इस डरावनी सड़क की यात्रा भी महज एक संयोग था. महाबोधि अंतरराष्ट्रीय ध्यान केंद्र की ओर से दिया जाने वाला अत्यंत प्रतिष्ठित महाकरुणा पुरस्कार ग्रहण करने मैं लेह गया. वहां से हेलिकॉप्टर से हमें द्रास पहुंचना था, जहां सैनिकों के लिए लोकमत समूह और जनसहयोग से निर्मित गर्म घरों का हमें लोकार्पण करना था. खबर लगी कि द्रास में मौसम बेहद खराब है, हेलिकॉप्टर लैंड नहीं हो सकता. सड़क से
द्रास तक की 280 किलोमीटर की दूरी तय करने में हमें 8 घंटे लग गए.
जम्मू-कश्मीर के कारगिल जिले में स्थित द्रास दुनिया का ऐसा दूसरा सबसे ठंडा इलाका है जहां लोग रहते हैं. रूस का ओमियाकॉन पहले नंबर पर है. द्रास का तापमान सर्दियों में औसतन -22 डिग्री तक तो लुढ़क ही जाता है. पिछले साल यहां का तापमान -27.2 तक नीचे गिर गया था. वैसे 9 जनवरी 1995 का रिकॉर्ड सबसे खौफनाक है जब तापमान -60 डिग्री जा पहुंचा था. 1999 में कारगिल की जंग भी शून्य से -10 डिग्री सेल्सियस तापमान में लड़ी गई थी.
द्रास पहुंचने से पहले ही 1999 के कारगिल जंग की यादें मेरे जेहन को कुरेदने लगी थीं. ताशी नांग्याल का नाम मुझे याद आ रहा था जो अपने गुम हुए याक को तलाशने के लिए एक ऊंचे पहाड़ पर चढ़ा और उसे कुछ हलचल नजर आई. वो 13 मई 1999 का दिन था. उसने फौज को सूचना दी.
हालात समझने में भारत को देर लगी कि पाकिस्तानी फौज गुपचुप तरीके से चोटियों पर आ चुकी है. वो ऊंचाई पर थे और हमारी फौज उनके निशाने पर थी. लेकिन हालात समझने के बाद भारतीय फौज ने जिस पराक्रम का इजहार किया वो बेमिसाल है. कारगिल की जंग में करीब ढाई लाख बम, गोले और रॉकेट दागे गए. पाकिस्तानी फौज भाग खड़ी हुई.
26 जुलाई यानी कारगिल विजय दिवस के दिन मैं और राजेंद्र द्रास स्थित कारगिल वार मेमोरियल में खड़े थे. मेरे संपादकीय सहयोगी सुरेश भुसारी और चीफ फोटोग्राफर राजेश टिकले भी साथ थे. मेरे सामने 559 शहीदों के नामों की पट्टिकाएं थीं. शहीदों की याद में मेरी आंखें नम हो गईं. दिल भर आया. उन शहीदों के प्रति कृतज्ञता के लिए मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं हैं. हाथ स्वत: जुड़ कर प्रणाम की मुद्रा में पहुंच गए. अपने इन्हीं फौजी भाइयों की बदौलत हम सुख चैन की नींद सोते हैं. इन्हीं की बदौलत हमारा देश सुरक्षित है. तिरंगे का मान इन्हीं से है.
मैंने पास खड़े सैन्य अधिकारियों लेफ्टिनेंट जनरल अनिंद्य सेनगुप्ता, मेजर जनरल नागेंद्र सिंह, ब्रिगेडियर यूएस आनंद और ब्रिगेडियर बीएस मुलतानी के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रकट कर दी कि ये वार मेमोरियल द्रास में ही क्यों बना?
मेजर जनरल नागेंद्र सिंह ने बताया कि ये जो ऊंचे पहाड़ आप देख रहे हैं इन्हीं पर जंग लड़ी गई और यहीं से 559 शहीदों के शव नीचे लाए गए. शहीदों के शव तो उनके घर पहुंचे लेकिन उनके पराक्रम की याद में यहां कारगिल वार मेमोरियल बनाया गया. 70 फीसदी जंग द्रास की चोटियों पर ही लड़ी गई थी. ये तोलोलिंग पहाड़ी है...ये टाइगर हिल है...ये बत्रा पीक है! सर्दियों में चोटियों पर तापमान -60 से भी नीचे चला जाता है. इन्हीं चोटियों पर पाक फौज आ धमकी थी. उनका लक्ष्य था श्रीनगर-लेह मार्ग को बाधित कर देना. इसी रास्ते से छह महीने का रसद और सैन्य साजो-सामान की आपूर्ति होती है. यदि इस पर पाक फौज कब्जा कर लेती तो अनर्थ हो जाता!
ऐसे में कैप्टन विक्रम बत्रा को चोटी क्रमांक 5140 पर कब्जे का टास्क मिला. बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया. वहां से भेजा गया उनका विजय उद्घोष, ये दिल मांगे मोर, पूरी दुनिया में छा गया. इस आक्रमण के लिए उनका कोड नेम था 'शेरशाह'. इसीलिए बत्रा को कारगिल का शेर भी कहा गया. बत्रा को चोटी क्रमांक 4875 के कब्जे की जिम्मेदारी मिली. इस असंभव से टास्क को भी बत्रा ने दिलेरी के साथ पूरा किया लेकिन गंभीर जख्मों के कारण वे वीरगति को प्राप्त हुए. चोटी क्रमांक 4875 को अब बत्रा पीक कहा जाता है.
जंग के हालात की बात तो छोड़ दीजिए, सामान्य दिनों में भी सैनिक यहां किन कठिन हालात में रहते हैं इसका अंदाजा लगाना भी सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं है. सोचकर ही रोमांच पैदा हो जाता है. वे सात परतों में गर्म कपड़े पहनते हैं. दुश्मन से ज्यादा वहां प्रकृति का कठोर रूप उनके लिए चुनौती है. लोकमत फाउंडेशन एवं जनसहयोग से यहां ऐसे विशेष गर्म घर बनाए गए हैं जो शून्य से काफी नीचे के तापमान पर भी सैनिकों के लिए उपयोगी होंगे. मुझे सुकून है कि कारगिल के युद्ध के बाद मानवीय सहयोग में लोकमत समूह जुड़ा रहा है. इस गर्म घर को बनवाने में लेफ्टिनेंट जनरल अनिंद्य सेनगुप्ता के योगदान की मैं कद्र करता हूं.
शहीदों को प्रणाम करते हुए हम श्रीनगर के लिए रवाना हुए. मगर जोजिला पास की करीब 11575 फुट की ऊंचाई से सोनमर्ग तक का करीब 27 किलोमीटर का सफर बड़ा डरावना था जिसकी चर्चा इस कॉलम की शुरुआत करते हुए मैंने की है. ऊंचाई पर आक्सीजन की कमी हो जाती है. मेरे नाक से दो बार खून निकला और मेरे साथियों ने कई बार उल्टी की.
मैं यह सोच रहा था कि सैन्य लिहाज से यह एनएच-1 इतना महत्वपूर्ण है फिर भी इसके हालात ऐसे क्यों हैं? केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी सड़कों का जाल बिछाने में लगे हैं. उन्होंने रोहतांग क्षेत्र में अटल टनल का ज्यादातर काम वक्त से पहले पूरा कर दिया. अरुणाचल में चीन बॉर्डर की ओर जाने वाली सड़क पर भी टनल बन रहे हैं. इसके लिए गडकरी जी को बधाई लेकिन इस एनएच-1 पर भी उन्हें सक्रियता से ध्यान देना चाहिए.
चीन ने लद्दाख इलाके से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक भारत के काफी करीब तक अच्छी सड़कें बना ली हैं. अक्साई चिन में वो नए हाइवे पर काम शुरू कर चुका है. मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे साथ दिक्कत क्या है? अच्छी सड़कें हमारी फौज के लिए उतनी ही जरूरी हैं जितने कि जंग के अत्याधुनिक साजो-सामान!
एक बात का और जिक्र करना चाहूंगा. वहां मुझे मराठा लाइट इंफैंट्री के सैन्य अधिकारी मि. मोखा मिले. मुझे आश्चर्य हो रहा था कि सरदारजी मुझसे धाराप्रवाह मराठी में बात कर रहे थे. मेरे आश्चर्य व्यक्त करने पर उन्होंने कहा कि जिस रेजिमेंट में हूं, उसकी भाषा नहीं बोलूंगा तो समन्वय कैसे होगा. अपने साथियों को समझूंगा कैसे? इसी तरह एक तमिल सैन्य अधिकारी मुझसे धाराप्रवाह हिंदी में बात कर रहे थे! वाकई असली भारत हमारी फौज में बसता है जहां जाति, धर्म और भाषा का कोई भेदभाव नहीं है. जय हिंद!