जम्मू कश्मीर में VDG : सीमा पर सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी आम जनता की नहीं, सेना और पुलिस की है

जम्मू कश्मीर में VDG

Update: 2022-03-06 14:01 GMT
अजय कुमार।
केन्द्रीय गृह मंत्रालय (Ministry of Home Affairs) ने जम्मू-कश्मीर (Jammu Kashmir) में विलेज डिफेंस ग्रुप्स (VDG) की संशोधित योजना को मंजूरी दे दी है, जिसके तहत पूर्व ग्राम रक्षा समितियों को विलेज डिफेंस ग्रुप्स के रूप में नामित किया जाएगा. इस आदेश से बेहद पिछड़े इलाकों में उन लोगों को 4500 रुपये का मानदेय दिया जाएगा, जो इन विलेज डिफेंस ग्रुप्स का नेतृत्व करेंगे. वहीं, इन ग्रुप्स के स्वयंसेवी सदस्यों (Voluntary members) को उनकी भागीदारी के लिए 4000 रुपये प्रति माह मानदेय दिया जाएगा. कानून व्यवस्था में मदद के लिए नागरिकों का इस्तेमाल भारत में नया नहीं है. एक मैजिस्ट्रेट अपनी जरूरत के मुताबिक पुलिस अधिनियम, 1861 के तहत विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को नियुक्ति कर सकता है. यह नियुक्ति सामान्य भर्ती से कहीं ज्यादा होती है, क्योंकि अगर कोई व्यक्ति अनुरोध का जवाब देने में असफल रहता है तो उसे अधिनियम के तहत दंडित किया जा सकता है. हालांकि, जम्मू-कश्मीर जैसे युद्ध क्षेत्र में उनकी तैनाती विशेष रूप से मानवाधिकार से जुड़े सवाल खड़े करती है.
विलेज डिफेंस गार्ड्स स्थानीय पुलिस के नेतृत्व में काम करेंगे
सशस्त्र बलों की तीन व्यापक श्रेणियां नियमित सैन्य बल, अर्द्धसैनिक बल और पुलिस बल हैं, जिनका इस्तेमाल युद्ध क्षेत्र में किया जा सकता है. विलेज डिफेंस गार्ड्स स्थानीय पुलिस के नेतृत्व में काम करेंगे. ऐसे में वे तीसरी श्रेणी के हिस्सा होंगे. हालांकि, यह सच है कि युद्ध क्षेत्र में तीन श्रेणियां अक्सर एक-दूसरे के साथ बेहतर समन्वय के साथ काम करती हैं. दरअसल, ये श्रेणियां इन संगठनों को नियंत्रित करने वाले मूल नियमों के माध्यम से अनुशासित होते हैं. जिसके तहत पहले प्रवेश के वक्त खास योग्यताओं की जरूरत होती है. फिर अनुशासनात्मक तरीके से उन्हें प्रशिक्षित किया जाता है. इसी तरह उनके संचालन के भी कई दायरे होते हैं. उदाहरण के लिए, यदि सेना का कोई अधिकारी बिना किसी कारण के एक निर्दोष नागरिक को गोली मारता है तो उसने भारतीय दंड संहिता के अलावा आर्मी एक्ट के तहत भी एक अपराध किया है. इस तरह के मामले में अधिकारी कोर्ट मार्शल हो सकता है. इसी तरह के अनुशासन समान रूप से अर्धसैनिक और पुलिस के लिए भी बनाए गए हैं.
जब इन स्वयंसेवी जिम्मेदारियों में सामान्य नागरिकों की नियुक्ति की जाती है तो इनकी भूमिका सिविल सर्विस के कार्यों में योगदान तक ही सीमित होती है, वे उनकी जगह नहीं लेते. इस ऐसे समझा जा सकता है कि जैसे कहीं बांध टूटने के बाद आपदा राहत टीम अपनी मदद के लिए स्थानीय वॉलंटियर्स को राहत कार्य में शामिल करते हैं. इस तरह से असैनिक कार्यों में आम जनता की मदद ली जाती है. हालांकि, अगर आपदा राहत टीम खुद एक स्थानीय स्वयंसेवक समूह हो तो यह सिविल शक्ति की हार मानी जाएगी.
विलेज डिफेंस गार्ड्स को लेकर चिंता
जम्मू-कश्मीर में इन विलेज डिफेंस गार्ड्स को लेकर चिंता यह है कि वे प्रभावी पर्यवेक्षण और नियंत्रण के अधीन नहीं होंगे. उनके कर्तव्यों के चलते उन्हें हथियार और उपकरण दिए जाएंगे. उनका मुख्य किरदार किसी गांव पर दुश्मन का हमला होने पर सुरक्षा की पहली पंक्ति बनना है. यही बेहद चिंताजनक है. सीमा पर पुलिस और सेना को रक्षा की पहली पंक्ति माना जाता है, लेकिन विलेज डिफेंस ग्रुप्स को पहली पंक्ति होने की इजाजत देकर राज्य ने इन क्षेत्रों में सीमाओं और गांवों की रक्षा करने के अपने मौलिक कर्तव्यों का त्याग दिया गया है.
समस्या यह नहीं है कि विलेज डिफेंस ग्रुप्स का इस्तेमाल खुफिया जानकारी हासिल करने, सेफ्टी ड्रिल करने और पुलिस की मदद करने में होगा. हालांकि, जब इन विलेज डिफेंस गार्ड्स को सामान्य फोर्सेज के पहुंचने तक किला बचाए रखने के लिए मोर्चे पर भेजा जाएगा तो यह संविधान का उल्लंघन हो सकता है.
सलवा जुडूम से समानता
इन बलों और सलवा जुडूम मिलिशिया के बीच समानता बताना मुश्किल नहीं है, जिसे छत्तीसगढ़ में तैयार किया गया था, ताकि उस क्षेत्र में नक्सलियों से लड़ने में मदद मिल सके. सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि सलवा जुडूम की नियुक्ति असंवैधानिक थी, क्योंकि उनकी भर्ती के लिए योग्यता का कोई मानक नहीं था. और इसके अलावा, उन्हें संविधान और भारतीय कानून के तहत राज्यों को प्रदान की गई शक्तियों के दायरे में पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं किया गया था. इससे उनके इस्तेमाल से विशेष रूप से समस्या होने लगी, क्योंकि ऐसी अनियंत्रित सेनाएं संबंधित क्षेत्र में मानवाधिकार का उल्लंघन कर सकती हैं.
युद्ध क्षेत्र किसी भी सरकार के लिए मुश्किल होते हैं. खासकर तब, जब दुश्मन से असंयमित युद्ध का सामना करना पड़ता है. विलेज डिफेंस गार्ड्स को नियुक्त करने की जगह सरकार को विलेज डिफेंस ग्रुप प्रोग्राम पर पुनर्विचार करने और नियमित पुलिस फोर्स की ज्यादा भर्ती और पुलिस सहायकों को तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. इससे ज्यादा मदद मिल सकती है. यानी, इस तरह के मामले में जनशक्ति का इस्तेमाल जरूरत के हिसाब से किया जा सकेगा. इन अधिकारियों को पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. दरअसल, जिन लोगों को एजुकेशनल ट्रेनिंग मिली है, उन्हें कानूनी दायित्वों को समझने में आसानी होगी, जिससे राज्य सही दिशा में काम कर सकेंगे.
ऐसा नहीं है कि यह बिना मिसाल के हो सकता है. क्षेत्रीय सेना जरूरत के हिसाब से नियमित सेना की ताकत बढ़ाने के लिए मौजूद होती है. यहां सिविल डिफेंस की जरूरत है. सवाल यह है: क्या सरकार एक संरचित समाधान निकाल सकती है, जो संविधान के तहत अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें. या वह ऐसे समाधानों पर भरोसा करेगी, जिससे न सिर्फ उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के मानवाधिकारों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा, बल्कि खुद विलेज डिफेंस गार्ड्स भी इसमें शामिल होंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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