वल्लभ भाई पटेल जयंती विशेष: मजबूत इरादों वाला सरदार, जो बेहद असरदार था

रेडक्लिफ ने किसी कपड़े की तरह हिंदुस्तान को चीर दिया

Update: 2021-10-31 17:18 GMT

राजेश बादल रेडक्लिफ ने किसी कपड़े की तरह हिंदुस्तान को चीर दिया। दुखी सरदार पटेल ने इस विभाजन के बाद अपने को भारत के लिए नए सपने के साथ समर्पित कर दिया। वे पाकिस्तान में हिंदुओं, सिखों और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे जुल्मों से गुस्से में थे। उन्होंने वहां की लियाकत अली खान सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाई थी। वे एक साथ अनेक मोर्चों पर अकेले योद्धा की तरह लड़ रहे थे।

एक तरफ पाकिस्तान से आने वालों का बंदोबस्त, दूसरी तरफ दंगों पर नियंत्रण पाना और तीसरा सबसे बड़ा काम बंटवारे के बाद शेष भारत को एक सूत्र में बांधना था। तीनों ही मोर्चों पर उन्होंने प्रभावशाली काम किया। स्वयं प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी यह देखकर दंग थे।
भारत की आजादी के आंदोलन में 1942 का साल सबसे महत्वपूर्ण है। दरअसल इसी आंदोलन ने सुनिश्चित कर दिया था कि हिंदुस्तान अब गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की स्थिति में आ गया है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आह्वान पर छेड़े गए 'अंग्रजों! भारत छोड़ो आंदोलन' में अनेक राष्ट्रभक्तों ने अपने अपने ढंग से इस पवित्र यज्ञ में अपनी आहुति दी थी। इनमें सरदार वल्लभ भाई पटेल ऐसा नाम है, जिसने गोरी हुकूमत को अपने तेवरों से संकट में डाल रखा था। उनके मजबूत इरादों से बरतानवी सत्ता के आला अफसर घबराते थे।
इस कारण महात्मा गांधी को तो दो साल में ही जेल से छोड़ दिया गया था, मगर सरदार पटेल को उनके लगभग एक बरस बाद जून 1945 में रिहा किया गया था। उनके कारागार प्रवास के दरम्यान एक अंग्रेज न्यायाधीश विकेन्डेन ने सरदार पटेल के बारे में लिखा था- बेहद खतरनाक, एंटी फासिस्ट और ब्रिटिश शासन का घोर विरोधी व्यक्ति। जब सरदार पटेल जेल से छूटे तो और सक्रिय हो गए। वे दोगुने उत्साह से आजादी के लिए जुट गए।
एक सभा में उन्होंने एलान किया, 'मैं आजादी चाहता हूं और मैं जानता हूं कि मैं इसे प्राप्त करने जा रहा हूं। ऐसे दस इंग्लैंड भारत को आजादी पाने से रोक नहीं सकते। किसी भी देश को हमेशा के लिए गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता'।
जाहिर है सत्तर साल का यह बूढ़ा शेर गोरी सरकार के लिए महात्मा गांधी से कम खतरनाक नहीं था। उसके सीधे सपाट तर्कों से गोरे घबराने लगे थे। उन्नीस सौ छियालीस का साल आते आते बरतानवी सरकार के पांव उखड़ने लगे थे और हिंदुस्तान में आजादी की खुशबू आने लगी थी। लेकिन जाते जाते अंग्रेज चालबाजी से बाज नहीं आ रहे थे। मजहब के आधार पर मुल्क को बांटने की साजिश पर वे अमल कर रहे थे। वे भारतीय उपमहाद्वीप को एक स्थायी सिरदर्द देकर जाना चाहते थे।
महात्मा गांधी और उनके अनुयाई इस साजिश को भांप चुके थे, इसलिए उनकी कोशिश थी कि किसी तरह पहले गोरे इस राष्ट्र से दफा हो जाएं। फिर हिंदुस्तान के लोग आपस में बैठ कर अपने झगड़े सुलझा लेंगे। लेकिन मुस्लिम लीग इसके लिए तैयार नहीं थी। उसे आजादी से पहले अपना अलग मुल्क चाहिए था। उसके मुखिया मोहम्मद अली जिन्ना को मनाने का बहुत प्रयास किया गया। मगर सारे प्रयास नाकाम रहे।
एक अवसर पर तो सरदार पटेल ने जिन्ना से साफ-साफ कहा-
'इस रास्ते को छोड़िए। प्रेम से बहुत कुछ किया जा सकता है, किंतु अपने हाथों में पिस्टल थामकर कुछ नहीं हो सकता। आप अपना उद्देश्य धमकाकर नहीं प्राप्त कर सकते। यदि आप अब भी स्वतंत्रता के इच्छुक हैं तो आइए। दो भाइयों की तरह साथ बैठिए तथा समझौते पर पहुंचिए अथवा हम अपने मतभेदों को मध्यस्थ निर्णय के लिए प्रस्तुत करें और पंच फैसले को स्वीकार करें। हमारे साथ बैठिए और मिलकर आजादी लीजिए'।
इसी तरह एक अन्य अवसर पर उन्होंने मुस्लिम लीग के नेतृत्व से फिर कहा, 'सांप्रदायिक समस्या का समाधान भारत में और भारतीयों के द्वारा ही होगा। इस क्षेत्र में अंग्रजों का कोई स्थान नहीं है। जितनी जल्दी वे देश छोड़ दें, उतना सभी के लिए अच्छा होगा। हम लोग स्वतंत्रता के बेहद करीब हैं। अब यह हम पर है कि इसे ग्रहण करें या फेंक दें'।
लेकिन मुस्लिम लीग ने सरदार पटेल की अपील पर ध्यान नहीं दिया। ब्रिटिश सरकार परदे के पीछे से मोहम्मद अली जिन्ना को मदद कर रही थी। वह उन्हें पाकिस्तान देने का वादा कर चुकी थी, लेकिन दिखाने के लिए वे मुस्लिम लीग को मनाने का प्रयास करते रहे। सरदार पटेल इससे आहत थे। उन्होंने 15 दिसंबर, 1946 को स्टेफोर्ड क्रिप्स को तीखा खत लिखा। इसमें उन्होंने गोरी हुकूमत की ईमानदारी पर अनेक सवाल उठाए थे।
आखिरकार 20 फरवरी 1947 को इंग्लैंड के प्रधानमंत्री एटली ने इस मुल्क को बांटने का एलान कर दिया। गांधी जी और मौलाना आजाद आखिरी पल तक विरोध करते रहे, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। सरदार पटेल हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक बनकर उभरे।
इससे पहले 15 जनवरी 1947 को वे अपने भाषण में कह चुके थे, 'यदि हम वास्तविक स्वराज चाहते हैं तो हिंदुओं और मुसलमानों को एक होना पड़ेगा। इसमें संदेह नहीं कि अंग्रेज जा रहे हैं। लेकिन चर्चिल जैसे लोग अभी भी भारत पर राज करने का सपना देख रहे हैं। वे सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को नहीं छोड़ना चाहते। इसलिए मुसलमानों और दलितों को उकसा रहे हैं। परंतु यह खेल ज्यादा दिन नहीं चलेगा। वे चाहें या न चाहें, उन्हें जाना ही है'।
इसके बाद देश के कलेजे पर बंटवारे की छुरी चल गई। रेडक्लिफ ने किसी कपड़े की तरह हिंदुस्तान को चीर दिया।
दुखी सरदार पटेल ने इस विभाजन के बाद अपने को भारत के लिए नए सपने के साथ समर्पित कर दिया। वे पाकिस्तान में हिंदुओं, सिखों और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे जुल्मों से गुस्से में थे। उन्होंने वहां की लियाकत अली खान सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाई थी। वे एक साथ अनेक मोर्चों पर अकेले योद्धा की तरह लड़ रहे थे।
एक तरफ पाकिस्तान से आने वालों का बंदोबस्त, दूसरी तरफ दंगों पर नियंत्रण पाना और तीसरा सबसे बड़ा काम बंटवारे के बाद शेष भारत को एक सूत्र में बांधना था। तीनों ही मोर्चों पर उन्होंने प्रभावशाली काम किया। स्वयं प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी यह देखकर दंग थे। सरदार पटेल विभाजन के लिए जिम्मेदारी स्पष्ट तौर पर लेते रहे।
सरदार ने 11 अगस्त 1947 को कहा-
'यह सत्य है कि विभाजन के लिए हमने सहमति दी। हम लोगों ने यह जिम्मेदारी अच्छी तरह सोचने समझने के बाद ली है, न कि किसी भय या दबाव के कारण। मैं भारत के विभाजन का प्रबल विरोधी था, किंतु जब मैं केंद्र सरकार में बैठा तो मैंने देखा कि एक चपरासी से लेकर बड़े अधिकारियों तक सभी सांप्रदायिक घृणा से ग्रस्त हैं। इन स्थितियों में लड़ने और तीसरी पार्टी के हस्तक्षेप को बर्दाश्त करने से बेहतर है कि देश की एकता बनाए रखने के लिए बंटवारा हो ही जाए। देश में शांति रहनी चाहिए। केवल शांति ही हमें बचा सकती है। आज हमारे पास लाहौर और पूर्वी बंगाल के कुछ हिस्सों को छोड़ कर हजार वर्षों के बाद संपूर्ण भारत को संयुक्त करने का सुनहरा अवसर है'।
इसके बाद 16 जनवरी,1948 को बंबई (उन दिनों मुंबई को बंबई कहते थे) में एक समारोह में सरदार पटेल ने इस दोहराया कि वक्त ने हिंदुस्तान को एकता का स्वर्णिम अवसर दिया है। उन्होंने कहा कि भारत पिछली कई शताब्दियों में कभी भी इतना संगठित और ताकतवर नहीं था, जितना आज है।
सरदार पटेल के इस संकल्प के पीछे उनका मजबूत इरादा ही था। वे जानते थे कि उन्हें शेष हिंदुस्तान की एकता के लिए बहुत कड़ा और सख्त रवैया अख्तियार करना पड़ेगा। उनकी इसी खासियत के कारण उन्हें लौह पुरुष कहा जाने लगा था। उन्होंने आजादी के चार दिन पहले ही अपने फौलादी इरादे का संकल्प कर लिया था। उन्होंने एक भाषण में कहा-
'मैं छोटे और बड़े राजाओं से कहता हूं कि जब समय आएगा तो उन्हें 15 तारीख तक भारतीय संघ में शामिल होना होगा। उसके बाद उनके साथ दूसरी तरह से व्यवहार किया जाएगा। जो रियायतें उन्हें आज दी जा रही हैं, उस तिथि के बाद नहीं दी जाएंगी। इसलिए वे यदि शासन करना चाहते हैं तो उन्हें संविलियन पर हस्ताक्षर करना होगा। आज संसार में अकेले रहना मुश्किल है। जब आंधी आती है अकेला पेड़ जमीन पर गिर जाता है, किंतु कतार में खड़े पेड़ बच जाते हैं। वे रामचंद्र और अशोक के वंशज हैं, फिर भी उन्हें आज मामूली से मामूली अंग्रेज नौकर को सलाम करना पड़ता है। वे अभी मानने को तैयार नहीं हैं कि 15 अगस्त को अंग्रेज चले जाएंगे, परंतु जब चले जाएंगे और आप स्वाधीनता की बयार का अनुभव करेंगे, तब आपके दिलों के द्वार खुल जाएंगे।'
सरदार पटेल के इन बयानों से स्पष्ट है कि वे भारत की एकता के लिए कितने गंभीर थे। राजे-रजवाड़ों से उनका अनुरोध कागजी नहीं था। वे ठोस कार्य योजना के आधार पर आगे बढ़ रहे थे। उस दौर के बिखरे हिंदुस्तान को तिरंगे तले लाना अगर कठिन नहीं था तो कोई बहुत आसान भी नहीं था। भारत की करीब चालीस फीसदी जमीन 56 रियासतों के अधीन थी और उन्हें अंग्रजों से अनेक मामलों में स्वायत्तता और विशेष अधिकार हासिल थे। इसलिए कई बड़ी रियासतें तो भारत और पाकिस्तान से अलग होकर अपनी अलग दुनिया बसाने का खवाब देखने लगी थीं।
कुछ ने तो बाकायदा एलान कर दिया था कि 15 अगस्त के बाद वे न भारत का हिस्सा होंगे और न ही पाकिस्तान का। वे स्वतंत्र संप्रभु अस्तित्व वाले राज्य होंगे। जाहिर है भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े नायकों को यह स्थिति किसी भी सूरत में मंजूर नहीं हो सकती थी। इसके पीछे एक ठोस और सुविचारित लोकतंत्र की अवधारणा थी। गांधी जी समेत उनके सारे अनुयाई मानते थे कि आजाद देश में असल सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए, न कि किसी केंद्रीय निरंकुश शक्ति के पास।
इसी आधार पर पर सरदार पटेल अपने अपने स्वप्न लोक में विचर रहे राजा-महाराजाओं के प्रति बेहद कठोर रवैया अपना रहे थे। उनके रुख को भांपकर अधिकांश रियासतों ने भारत में विलय पर सहमति दे दी। कई रियासतें तटस्थ होकर समय की चाल पर नजर रख रही थीं। लेकिन तीन चार रियासतें ऐसी भी थीं, जो स्वतंत्र अस्तित्व के लिए अड़ी थीं। इनमें त्रावणकोर, हैदराबाद और भोपाल जैसी कुछ रियासतें थीं।
जब सरदार पटेल ने नवगठित रियासत विभाग की जिम्मेदारी संभाली तो उन्होंने विभागीय बैठक में साफ कहा कि इस परिस्थिति में खतरनाक संभावनाएं छिपी हैं। यदि इन पर शीघ्र ही काबू नहीं पाया गया तो बड़ी कठिनाई से मिली आजादी रजवाड़ों के दरवाजे से निकलकर गायब भी हो सकती है। इसके लिए उन्होंने सारे प्रशासनिक, कूटनीतिक और आक्रामक तरीके अपनाने में संकोच नहीं किया। पहले विनम्रता से सरदार पटेल ने विलय का संदेश दिया। उनकी रियासतों के विदेश, रक्षा और संचार जैसे मामले भारत सरकार के नियंत्रण में रखने के लिए तैयार किया।
दूसरी तरफ इन रियासतों में व्यापक जन आंदोलनों के प्रति भी सरदार पटेल ने नरमी दिखाई, जो लंबे समय तक गोरी सत्ता से लड़ने के बाद राजशाही से मुक्ति पाने के लिए आंदोलन पर कर रहे थे। इससे राजाओं को प्रजा के गुस्से का मुकाबला करना असंभव हो गया। उनके हाथ पांव फूल गए।
आजादी के दिन तक भी जूनागढ़, जम्मू-कश्मीर और हैदराबाद रियासतों ने जिद नहीं छोड़ी थी। मगर अगले डेढ़ साल में उन्होंने भी सरदार पटेल का कोप भाजन बनने से समर्पण करना बेहतर समझा।
जूनागढ़ के नवाब ने तो बाकायदा अपनी रियासत के पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। पर जनता भड़क उठी। इसके बाद जनमत संग्रह कराया गया। जाहिर था कि यह भारत के पक्ष में गया। इसके बाद भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गई। नवाब पाकिस्तान भाग गया।
इसी तरह हैदराबाद का निजाम भी आजाद रियासत के रूप में रहना चाहता था। एक तरफ वह भारत सरकार के साथ संधि वार्ता का नाटक कर रहा था, दूसरी ओर सैनिक क्षमता बढ़ाने की साजिश भी रचता रहा। वह चुपचाप हथियार आयात भी कर रहा था।
निजाम को अपने गोरे-संपर्कों से बड़ी उम्मीद थी। मगर सरदार पटेल ने उसे भी फुस्स कर दिया। सरदार पटेल उसकी किसी चाल में नहीं आए। आखिरकार सितंबर 1948 में भारतीय सेना हैदराबाद में प्रवेश कर गई। तीन दिन तक घेराबंदी और संघर्ष के बाद निजाम ने भी घुटने टेक दिए। सरदार पटेल की यह बड़ी कामयाबी थी। इसके बाद तो चंद छोटी रियासतें ही शेष थीं। सरदार पटेल की भृकुटि तनी और वे भी भारत का अभिन्न हिस्सा बन गई।
जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने भी तय किया था कि उनका राज्य न भारत में शामिल होगा और न पाकिस्तान में। लेकिन इसी बीच 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी सेना ने कबाइली वेश में हमला बोल दिया। अंग्रेजों से प्रशिक्षित सेना के आगे महाराजा के सिपाही टिक न सके और तब 24 अक्टूबर को हरिसिंह ने भारत से मदद मांगी। मगर अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत भारत कश्मीर में अपनी सेना तभी भेज सकता था, जब उसका विलय भारत में हो चुका हो।
सरदार पटेल और प्रधानमंत्री नेहरू जी की जोड़ी ने कड़क रुख अपनाया और 26 अक्टूबर को कश्मीर का भारत में विलय हो गया। अगले ही दिन सौ हवाई जहाजों से भारतीय सेना कश्मीर जा पहुंची। पाकिस्तानी फौज के पांव उखड़ गए। वह भाग खड़ी हुई। लेकिन कुछ इलाके फिर भी उसके कब्जे में रह गए, क्योंकि भारत ने संयुक्त राष्ट्र का सम्मान करते हुए इस मामले को वहां ले जाने का फैसला किया। यह बड़ी भूल थी।
दो महीने संयुक्त राष्ट्र ने एक तरह से पाकिस्तान के पक्ष को माना। इसके बाद 31 दिसंबर 1948 को युद्ध विराम लागू हुआ। तबसे आज तक यह अनसुलझा मुद्दा है। सरदार पटेल अगर कुछ बरस और जीवित रहते, तो संभवतया इसका समाधान भी हो जाता।
सरदार पटेल का एक तरह से काम पूरा हो चुका था। वे काफी हद तक संतुष्ट थे। इसके बाद पॉन्डिचेरी (आजकल पुड्डुचेरी) और गोवा को मुक्त कराना था। पॉन्डिचेरी फ्रांस का उपनिवेश था और गोवा पर पुर्तगाल का अधिकार था। सरदार पटेल के समय में ही इन्हें फ्रांस और पुर्तगाल के कब्जे से मुक्त करने की कार्य-योजना पर काम शुरू हो गया था।
उसपर अमल होता, उससे पहले ही हिंदुस्तान का यह लौह पुरुष दिसंबर 1950 में अपनी अनंत यात्रा पर चला गया। बाद में पॉन्डिचेरी 1954 और गोवा 1961 में भारत का औपचारिक हिस्सा बन पाया। उसकी प्रस्तावना तो सरदार पटेल पहले ही लिख चुके थे। इस मुल्क पर लौहपुरुष का यह ऐसा कर्ज है, जिससे हम कभी उऋण नहीं हो सकते।
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