खाली पद
हर राजनीतिक दल सत्ता में आने से पहले रोजगार के नए अवसर सृजित करने के बढ़-चढ़ कर दावे करता है, मगर हकीकत में वह अपने वादे को पूरा नहीं कर पाता। इसी का नतीजा है
सरकारी महकमों में खाली पड़े पदों पर समय से भर्तियां न हो पाने के कारण उनके कामकाज पर पड़ने वाले असर को लेकर अक्सर शिकायतें की जाती हैं। मगर सरकारें पैसे की कमी का हवाला देते हुए उन्हें भरने में असमर्थता जाहिर करती रहती हैं। कहां तो बढ़ती आबादी और सरकारी महकमों पर काम के बोझ के अनुपात में नई भर्तियों की गुंजाइश बननी चाहिए, पर जो पहले से स्वीकृत पद हैं, उन पर भी सेवानिवृत्त हुए लोगों की जगह भर्तियां नहीं की जातीं। इससे देश में बेरोजगारी से पार पाने की योजनाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है।
हर राजनीतिक दल सत्ता में आने से पहले रोजगार के नए अवसर सृजित करने के बढ़-चढ़ कर दावे करता है, मगर हकीकत में वह अपने वादे को पूरा नहीं कर पाता। इसी का नतीजा है कि हर सरकारी विभाग में बड़ी संख्या में पद खाली हैं। अकेले केंद्रीय विश्वविद्यालयों का ताजा अंकड़ा बताता है कि उनमें करीब चालीस फीसद पद खाली हैं। दो विश्वविद्यालयों में तो सत्तर फीसद पद खाली हैं। यह आंकड़ा खुद केंद्र सरकार ने उपलब्ध कराया है। राज्य सरकारों द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, पर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि उनकी स्थिति भी केंद्रीय विश्वविद्यालयों से बेहतर नहीं होगी।
शिक्षण संस्थानों में शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक पदों पर भर्ती न हो पाने का अर्थ है विद्यार्थियों के लिए हर स्तर पर परेशानियां खड़ी होना। ऐसे में न तो ठीक से पाठ्यक्रम पूरा हो पाता है और न परीक्षाएं समय पर हो पाती हैं। एक अध्यापक को तय संख्या से कई गुना अधिक विद्यार्थियों को पढ़ाना पड़ता है। सबसे अधिक मुश्किल आती है शोध और अनुसंधान में। नियमानुसार एक अध्यापक तय संख्या से अधिक विद्यार्थियों को अपने साथ शोध नहीं करा सकता।
इसलिए कि शोध और अनुसंधानों में अध्यापकों को काफी अध्ययन करना और विद्यार्थियों को सूक्ष्म से सूक्ष्म बिंदुओं पर मार्गदर्शन करना, उनके शोधों को बारीकी से जांचना और सुझाव देना पड़ता है। विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की कमी का अर्थ है, शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में अपेक्षित नतीजे न मिल पाना। हैरानी की बात नहीं कि शोध और अनुसंधान के मामले में हमारे देश के विश्वविद्यालय दूसरे देशों के विश्वविद्यालयों के सामने अक्सर फिसड्डी साबित होते हैं। शैक्षणिक संस्थानों में खाली पदों पर भर्ती को लेकर गंभीरता न दिखाने से यही संकेत जाता है कि सरकार उच्च शिक्षा, शोध और अनुसंधान आदि को लेकर संजीदा नहीं है।
इधर काफी समय से खाली पदों को भरने के बजाय विश्वविद्यालयों में बड़े पैमाने पर तदर्थ, संविदा और अतिथि अध्यापकों के सहयोग से शैक्षणिक कार्य पूरा कराने का प्रयास किया जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय राजधानी में है, उसकी स्थिति तो सरकार से छिपी नहीं है, इसका अध्यापक संघ लगातार खाली पदों को भरने की मांग करता रहा है। मगर स्थिति यह है कि इसमें सर्वाधिक पद खाली हैं।
करीब सत्रह सौ स्वीकृत पदों में से करीब साढ़े आठ सौ। इसी तरह दूसरे विश्वविद्यालयों में बरसों से पद खाली पड़े हैं, पर सरकार उन्हें भरने की इजाजत नहीं देती। हर साल विश्वविद्यालयों पर दाखिले की संख्या बढ़ाने का दबाव बना रहता है। उसके अनुसार विश्वविद्यालयों को कुछ नए पाठ्यक्रम शुरू करने और दाखिले की सीटें भी बढ़ानी पड़ती हैं। मगर उस अनुपात में अध्यापकों की भर्ती नहीं होती। इस तरह उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने और युवाओं को कौशल अर्जित कर अर्थव्यवस्था में योगदान देने लायक बनाने के दावे भला कैसे पूरे हो सकते हैं।