उत्तराखंड : जनमानस में बसे हैं पहाड़ के चंद्रसिंह गढ़वाली

कोटद्वार पहुंचकर वीर चंद्रसिंह गढ़वाली, बैरिस्टर मुकुंदी लाल और शहीद चंद्रशेखर आजाद के साथी भवानी सिंह के चित्र एक साथ आंखों में तैरने लगते हैं

Update: 2022-01-07 04:46 GMT
कोटद्वार पहुंचकर वीर चंद्रसिंह गढ़वाली, बैरिस्टर मुकुंदी लाल और शहीद चंद्रशेखर आजाद के साथी भवानी सिंह के चित्र एक साथ आंखों में तैरने लगते हैं। भवानी भाई के गांव नाथोपुर जाने का रास्ता दुगड्डा होते हुए है, जहां दिल्ली के 'गाडोदिया ऐक्शन' के बाद आजाद अपने कुछ सहयोगी क्रांतिकारियों के साथ कई दिन आकर रुके थे। कोटद्वार में झंडा चौक के निकट पेशावर कांड (1930) के क्रांतिकारी चंद्रसिंह गढ़वाली की प्रतिमा है। पतलून, कमीज, आंखों पर मोटा चश्मा और सिर पर हैट, जो आजीवन उनकी पहचान बना रहा।
पहाड़ियों की तरह बोलने का उनका लहजा हमें बहुत बांधता था, खासकर उनकी बेलाग बातें और जीने का फकीराना ढंग। वर्ष 1972 में वह एक बार 'शहीद मेला' का उद्घाटन करने हमारे शहर शाहजहांपुर आए, तब की कई तस्वीरें हमारे जेहन में अभी जिंदा हैं। उन दिनों हम सोचते कि अपनी जवानी में वह कैसे रहे होंगे, जब पेशावर की पल्टन में रहते हुए उन्होंने देश की आजादी के निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने से इनकार करने की बड़ी सजा पाई। वह उस दौर की सबसे बड़ी अहिंसक लड़ाई थी।
वह गढ़वाल के दूधातोली में सैणसेरा, पट्टी चैथान के रहने वाले थे। वहां पढ़ाई-लिखाई का कोई अर्थ नहीं था। चंद्रसिंह को भी स्कूल नहीं भेजा गया, पर वह अपनी कोशिशों से थोड़ा पढ़ना-लिखना सीख गए। घर की कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते वह भागकर फौज में भर्ती हो गए। 'गांधी टोपी' और आर्य समाज उनकी जिंदगी के हिस्सेदार हो चुके थे। क्रांतिकारियों का संग्राम उन्हें आकर्षित ही नहीं, उद्वेलित भी कर रहा था। पेशावर का उस दिन का सवेरा इतिहास-निर्माण की बाट जोह रहा था।
खान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में खुदाई खिदमतगार तैयार हो रहे थे। 23 अप्रैल, 1930 को हड़ताल हो गई थी। कांग्रेस का जुलूस निकल रहा था, जिसकी तरफ सिपाहियों की बंदूकें थीं। रिकेट ने हुक्म दिया, 'गढ़वाली, थ्री राउंड फायर।' लेकिन हवलदार चंद्रसिंह चीखकर बोले, 'गढ़वालियो, गोली मत चलाना।' चंद्रसिंह के फैसले ने इतिहास को सुर्खरू कर दिया। अब वह 'हीरो' बन चुके थे-देशभक्त विद्रोही और गढ़वाली टुकड़ी के महानायक। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमे में उनके वकील बने मुकुंदीलाल।
उन्हें जो सजा मिली, वह थी 1. जिंदगी भर काला पानी, 2. सारी जायदाद जब्त, 3. ओहदेदारी से उतारकर सिपाही दर्जे में रखना और 4. सिपाही से नाम काटकर खारिज कर देना। वह कैदी बनकर जेल की तरफ चल दिए। सलाखों के भीतर वह कट्टर कम्युनिस्ट बने। गांधी-इर्विन समझौते के बाद जेल अधीक्षक ने उन्हें बुलाकर एक प्रार्थनापत्र पर दस्तखत कराना चाहा, जिसमें लिखा था, 'गांधी-इर्विन समझौते से सारे कांग्रेसी कैदी छोड़ दिए गए हैं। मैं आइंदा ऐसा अपराध नहीं करूंगा। मुझे माफ कर दिया जाए।' चंद्रसिंह ने कहा कि मैं माफी मांगकर रिहा नहीं होना चाहता। मैं हथकड़ी-बेड़ी से नहीं डरता। उन्हें बरेली सेंट्रल जेल भेज दिया गया।
चंद्रसिंह ने जेल में बहुत लड़ाई लड़ी। वर्ष 1937 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बनने पर भी वह नहीं छूटे। जवाहर लाल नेहरू जेल में उनसे मिलने आए। वह नैनी और लखनऊ की जेलों में भी रहे। नेहरू समेत सभी उन्हें 'बड़े भाई' कहने लगे थे। 26 सितंबर, 1941 को 11 साल, तीन महीने और 18 दिन बाद जब वह रिहा हुए, तब गढ़वाल में जाने की बंदिश के साथ राजनीतिक व्याख्यान न देने की हिदायत भी थी। ऐसे में वह कहां रहते! नेहरू ने जेल से उन्हें लिखा कि कुछ दिन 'आनंद भवन' में जाकर रहो। पर वहां भी वह ज्यादा टिके नहीं। गांधी ने एक दिन मिलने पर पूछा, 'तुम्हें खर्च-वर्च की जरूरत होगी ?' चंद्रसिंह ने कहा, 'बापू, मेरे हाथों में ताकत है। मैं अब जेल से बाहर हूं, घास काटूंगा, अपना खर्च चला लूंगा।'
आजाद हिंदुस्तान में चंद्रसिंह को अनेक कष्ट उठाने पड़े। वह कोटद्वार के ध्रुवपुर में रहने लगे थे। एक अक्तूबर, 1979 को दिल्ली के एक अस्पताल में निधन के बाद उनकी इच्छानुसार उन्हें 'लाल झंडा' ओढ़ाया गया। उत्तराखंड के दूधातोली में उनकी समाधि है, पर जीवित रहते जिस धरती पर उन्होंने 'भरतनगर' बसाने का सपना देखा, वह पूरा नहीं हुआ। वर्ष 1983 में सरकारी कर्जे की देनदारी के लिए उनकी संपत्ति को नीलामी से बचाने के लिए मुझे अखबारी आंदोलन चलाना पड़ा।
उनके जन्मशती वर्ष पर हमने सरकार से डाक टिकट भी निकलवाया। वर्ष 2012 में बरेली केंद्रीय कारागार में उनके नाम पर द्वार का नामकरण व शिलापट्ट लगवाकर जैसे मैंने अपने इस पुरखे का श्राद्ध कर लिया। उनके साथ जेल में रहे विद्यासागर नौटियाल ने मेरे अनुरोध पर उनका यादनामा दर्ज किया, जो अधूरा रह गया। वर्ष 1992 में गैरसैण में उत्तराखंड की राजधानी बनाने की आधारशिला रखी गई, पर दूधातोली की उनकी समाधि ध्वस्त होने के कगार पर है।
बिजनौर के कौड़िया रेंज में जो जमीन उनके परिवार को 90 साल के पट्टे पर दी गई थी, उसे भी बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने वापस ले लिया। चंद्रसिंह ने गढ़वाल से लोकसभा का चुनाव कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर लड़ा था, पर गढ़वाल की जनता ने उन्हें संसद में नहीं भेजा। सिर पर हैट लगाए पैदल चलते हुए टीन के भोंपू से चुनाव प्रचार करने की उनकी छवि अब किसे याद होगी। पहाड़ी जनमानस में क्रांतिकारी का उनका बाना अभी बरकरार है, पर उनके परिवार को सब भुला चुके हैं।
अमर उजाला 
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