जब अस्मिता की राजनीति का मिथक तोड़ भाजपा ने समावेशी राजनीति की ओर कदम बढ़ाया तो उसे जाति-संप्रदाय से ऊपर उठकर 2017 में 41 प्रतिशत से अधिक मत मिले, जो 2007 और 2012 में मिले मतों के मुकाबले लगभग 26 प्रतिशत अधिक थे। यह चमत्कार हुआ कैसे? इसकी शुरुआत 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही हो गई थी। उन्होंने समावेशी राजनीति को वास्तविक स्वरूप देने के लिए जाति-संप्रदाय से ऊपर उठकर विभिन्न वर्गों को अपना लक्ष्य बनाया। शुरू में उन्होंने तीन वर्गों-महिलाओं, किसानों और गरीबों पर ध्यान दिया। यह एक नई राजनीति की शुरुआत थी, जो जाति या संप्रदाय देखे बिना नीतियों का निर्माण कर रही थी। महिलाओं के बीच उज्ज्वला योजना ने जो प्रभाव दिखाया, वह सर्वविदित है। इसी तरह शौचालय योजना ने महिलाओं को उस असुरक्षा और लज्जा से बचाया, जिसकी कभी वे कल्पना भी नहीं कर सकती थीं। महिला-सुरक्षा और महिला-सशक्तीकरण की ऐसी ही अनेक योजनाओं को व्यावहारिक रूप देकर मोदी ने उनका भरोसा जीता। इसके अतिरिक्त मुस्लिम महिलाओं को तीन-तलाक से जो सुरक्षा प्राप्त हुई, उसे तो वे किसी से बता भी नहीं सकतीं।
महिलाओं को आधी आबादी कहकर संबोधित किया जाता है। ऐसा लगता है कि इस चुनाव में आधी आबादी का सुरक्षा के पक्ष में मौन-ध्रुवीकरण हुआ है, जो किसी चुनावी अध्ययन या सर्वे में पकड़ में आने वाला नहीं। किसानों को लेकर भले ही एक तबके में यह विमर्श उभरा हो कि कृषि कानूनों के कारण किसान नाराज हैं, लेकिन छोटे और सीमांत किसानों को किसान सम्मान निधि के तहत दो हजार रु की जो धनराशि वर्ष में तीन बार मिल रही है, उसे वह दिखाई दे रही है। उसमें कोई बिचौलिया भी नहीं है। ऐसी ही अनेक योजनाओं के पैसे सीधे खाते में आते हैं, जिससे गरीब किसानों की आर्थिक सुरक्षा बढ़ी है। पहले इन योजनाओं के लिए लोगों को दफ्तरों के चक्कर भी काटने पड़ते थे और घूस भी देनी पड़ती थी। ऐसा नहीं कि गांव में किसानों की समस्याएं समाप्त हो गई हैं, लेकिन आयुष्मान से स्वास्थ्य सुरक्षा, फसल बीमा से उत्पाद सुरक्षा और खाते में सीधे पैसे आने से वित्तीय सुरक्षा में बढ़ोतरी हुई है, जो कानून-व्यवस्था में सुधार से प्राप्त सामाजिक सुरक्षा के अतिरिक्त है। यही स्थिति समाज के गरीब, दलित, शोषित, वंचित वर्ग की भी है, जिसे उनकी भाषा में मोदी और योगी सरकार 'कुंडी खटकाकरÓ दो वर्षों से राशन दे रही है, जो आज तक किसी सरकार ने नहीं दिया। इस प्रकार उत्तर प्रदेश में महिलाओं, छोटे एवं सीमांत किसानों और गरीबों, इन तीन वर्गों का राजनीतिक समूहों के रूप में अभ्युदय हुआ है, जो प्रदेश की राजनीति को एक नया मोड़ दे सकता है, जिसे अभी कोई स्वीकार करना नहीं चाहता। हम जाति और संप्रदाय से इतने अभिभूत हैं कि इस वर्गीय ध्रुवीकरण की नई प्रवृत्ति को बहुत महत्व नहीं दे पाते, लेकिन परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है। यदि ऐसा नहीं होता तो 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 41 प्रतिशत से अधिक और 2019 के लोकसभा चुनावों में 50 प्रतिशत से अधिक वोट कैसे मिलते? यह दर्शाता है कि समावेशी राजनीति के कारण भाजपा ने अपने परंपरागत जनाधार से आगे जाकर दलितों, पिछड़ों और मुस्लिमों में भी अपने जनाधार का विस्तार किया है। पिछले दो चुनावों में भाजपा को सात से नौ प्रतिशत तक मुस्लिम मत भी मिले थे। लगता नहीं कि इस बार इसमें कोई गिरावट होगी।
आज भाजपा का गठबंधन लगभग वैसा ही है, जैसा 2017 में था, केवल सुभासपा की जगह निषाद पार्टी ने ले ली है। सपा का जनाधार 28-19 प्रतिशत है। 2012 में उसने 29 प्रतिशत पर सरकार बनाई थी। जब 2017 में उसने कांग्रेस से मिलकर 311 सीटों पर चुनाव लड़ा था, तब भी उसे अपनी सीटों पर 28.32 प्रतिशत वोट मिले थे। चूंकि रालोद केवल पश्चिम में चुनाव लड़ी, इसलिए उसका वोट प्रतिशत अधिकतम दो-तीन प्रतिशत ही रहेगा। इस प्रकार सपा को अधिकतम 32-33 प्रतिशत वोट मिल सकते हैं। इस दृष्टि से चुनावों में सपा के पक्ष में जनसमर्थन दिखाई देता है, पर मूल प्रश्न यह है कि क्या भाजपा के 41 प्रतिशत से अधिक वाले जनाधार में कोई कमी आने वाली है और यदि हां, तो कितनी? प्रश्न यह भी है कि कौन सा सामाजिक वर्ग उससे खिसक रहा है? क्या कोई नया सामाजिक वर्ग भाजपा से जुड़ भी रहा है? इन प्रश्नों के उत्तर शीघ्र मिलेंगे, लेकिन इतना तय है कि उत्तर प्रदेश जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से आगे निकल कर वर्ग-राजनीति और वर्ग-केंद्रित ध्रुवीकरण की ओर बढ़ चला है। ऐसा ही अन्य भाजपा शासित राज्यों में देखने को मिले तो हैरानी नहीं।