UP Assembly Elections: उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले नाराज ब्राह्मण मतदाताओं को साधने में कितनी कामयाब होगी बीजेपी?
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नजदीक आते-आते अब सत्ताधारी बीजेपी को प्रदेश में अपने सबसे मजबूत वोटबैंक
सुमित दुबे.
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) के नजदीक आते-आते अब सत्ताधारी बीजेपी (BJP) को प्रदेश में अपने सबसे मजबूत वोटबैंक यानि ब्राह्मणों के दरकने का डर सताने लगा है. शनिवार की राजधानी दिल्ली में केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान (Dharmendra Pradhan) ने सूबे में पार्टी के बड़े ब्राह्मण नेताओं की एक मीटिंग ली और रविवार को पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ मुलाकात कर एक चार सदस्यीय कमेटी बना दी गई जो प्रदेश के ब्राह्मण समाज के साथ एक आउटरीच कार्यक्रम चलाएगी. हालांकि इस कमेटी के सदस्य और पूर्व केंद्रीय मंत्री शिव प्रताप शुक्ला का कहना है कि यूपी के ब्राह्मण पार्टी से नाराज नहीं है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि पार्टी को अब अहसास हो चला है अगर वक्त रहते कदम नहीं उठाए गए तो योगी सरकार के प्रति ब्राह्मणों की नाराजगी चुनावी नतीजे बिगाड़ सकती है.
अब सवाल उठता है कि आखिर पिछले पांच सालों ऐसा क्या हो गया जिसके चलते प्रदेश में बीजेपी को उसकी सबसे बड़ी ताकत के ही सबसे बड़ी कमजोरी बनने का भय सताने लगा है. और क्या इस सूबे में ब्राह्मण वाकई इतने ताकतवर है कि वे चुनावी नतीजे को बदलने का माद्दा रखते हों. दरअसल बीजेपी को पूरी ताकत से वोट देकर प्रदेश की सत्ता में लाने वाले ब्राह्मण इस सरकार में खुद को हाशिये पर महसूस कर रहे हैं. यह आरोप लगातार लगते रहे हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ब्राह्मणों की उपेक्षा करते रहे हैं. हालांकि योगी सरकार में कई बड़े प्रशासनिक अधिकारी ब्राह्मण ही रहे हैं और कैबिनेट में भी इस वर्ग को ठीक ठाक प्रतिनिधित्व मिला है लेकिन बावजूद इसके जमीनी स्तर बीजेपी ब्राह्मणों को एक सकारात्मक संदेश देने में नाकाम रही है. वहीं ब्राह्मणों की इस नाराजगी को भांप कर बीएसपी और समाजवादी पार्टी के साथ साथ कांग्रेस भी उन्हें अपने पाले में खींचने के दांव लगातार चल रही है.
कितने ताकतवर हैं यूपी के ब्राह्मण
यूं तो देश में 1931 के बाद को जाति जनगणना नहीं हुई है लेकिन ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि प्रदेश में अगर भूमिहारों को भी मिला दिया जाए तो उनकी जनसंख्या 11-12 फीसदी तक है. लेकिन यह माना जाता है यूपी के ब्राह्मण अपनी संख्या से भी अधिक वोटों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. प्रदेश में मुस्लिम और जाटवों के बाद यह सबसे बड़ी संख्या है. और यही वह गणित था जो आजादी के कई सालों बाद तक यूपी में कांग्रेस को सत्ता में बनाए रखता था. राज्य में कांग्रेस की सरकारों के मुखिया अक्सर ब्राह्मण ही हुआ करते थे. प्रदेश के पहले सीएम पंडित गोविंद वल्लभ पंत के अलावा कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्रा और एनडी तिवारी जैसे कई दिग्गज नेता राज्य के मुख्यमंत्री बने. 1990 के दशक की शुरुआत में प्रदेश की राजनीति ने करवट बदली और मंडल आयोग की हवा चल गई जिसने पिछड़ी जातियों को एक कर दिया. कांग्रेस लगातार कमजोर होती चली गई. कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी ने दलित वोटों में अपना आधार बना लिया और मुस्लिम समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. लिहाजा ब्राह्मणों ने भी मंडल की टक्कर में सामने आई कमंडल की राजनीति की ओर रुख कर लिया और बीजेपी के साथ हो गए. 1990 के दशक में बीजेपी को चार बार मुख्यमंत्री बनाने का मौका मिला लेकिन दो बार पिछड़े वर्ग से आने वाले कल्याण सिंह एक बार वैश्य वर्ग के रामप्रकाश गुप्त और एक बार राजपूत नेता राजनाथ सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया.
साल 2004 तक ब्राह्मण बीजेपी के साथ मजबूती से टिके रहे लेकिन 2005 जब मायावती ने ब्राह्मणों को अपनी पार्टी के साथ जोड़ने के लिए अभियान चलाया तो ब्राह्मणों ने भी इसे सकारात्मक तौर पर लिया. दलित- ब्राह्मण गठजोड़ की इस अनूठी सोशल इंजीनियरिंग का नतीजा 2007 के चुनाव में सामने आया जब मायावती की पार्टी ने राज्य विधानसभा में जोरदार जीत हासिल की और पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. ब्राह्मणों का एक बड़ा हिस्सा 2012 के विधानसभा चुनाव में भी मायावती के साथ था लेकिन एंटी इनकंबेंसी के सामने मायावती की सरकार टिक नहीं सकी और समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई.
फिर बीजेपी के हुए ब्राह्मण
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दौरान ब्राह्मण एक बार फिर से बीजेपी के साीथ जुड़े और और यह जुड़ाव 2017 के विधानसभा में भी बरकरार रहा. 2017 में में बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया और दिनेश शर्मा को केशव प्रसाद मौर्य के साथ डिप्टी सीएम बना कर ब्राह्मणों को खुश रखने की कोशिश की. इसके अलावा श्रीकांत शर्मा और बृजेश पाठक जैसे ब्राह्मण नेताओं को योगी केबिनेट में मजबूत मंत्रालय दिए गए लेकिन ब्राह्मणों के मन में मलाल बाकी रहा. यूपी के कई ब्राह्मण नेता निजी बातचीत में इस बात का जिक्र कर ही देते हैं कि बीजेपी ने पांच बार में से एक बार भी यूपी में ब्राह्मण सीएम नहीं बनाया.कानपुर के कुख्यात गैंग्सटर विकास दुबे और उसके तमाम साथियों के पुलिस एनकाउंटर ने ब्राह्मणों के भीतर एक नकारात्मकता भर दी.
कांग्रेस की कोशिश
यूपी में अपने खोए हुए परंपरागत वोट को हासिल करने के लिए कांग्रेस लगातार कोशिश कर रही है. 2012 के विधानसभा चुनाव में भी शीला दीक्षित को कांग्रेस ने इसी उम्मीद के साथ मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया था. हालांकि उस वक्त समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन होने के चलते उनकी दावेदारी वापस ले ली गई. 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त प्रियंका गांधी वाड्रा यूपी की इंचार्ज बनाई गईं और कांग्रेस तब से ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ने की योजना पर काम कर रही है. कांग्रेस ने इसकी जिम्मेदारी जितिन प्रसाद को सौंपी थी जिन्होंने प्रदेश भर में ब्राह्मणों की हत्याओं के मसले पर ऑनलाइन मुहिम भी चलाई लेकिन बाद में वह बीजेपी में शामिल होकर योगी सरकार में मंत्री बन गए. कांग्रेस को उम्मीद है कि प्रियंका को सामने रखकर वह ब्राह्मण वोटबैंक में सेंध लगाने में कामयाब रहेगी.
वहीं दूसरी ओर मायावती ने भी अपने खास सहयोगी सतीश चंद्र मिश्रा को एक बार फिर से ब्राह्मणों अपने पाले में लाने का काम सौंप दिया है. इसके लिए वह प्रदेश में कई जगह प्रबुद्ध सम्मेलन भी कर चुके हैं. अखिलेश यादव भी ब्राह्मणों को रिझाने में पीछे नहीं हैं. अभिषेक मिश्रा की अगुआई समाजवादी पार्टी ने परशुराम ट्रस्ट बनाकर ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ने का अभियान शुरू कर दिया. विपक्षी दलों की इन कोशिशों के मद्देनजर, देर से ही सही लेकिन बीजेपी को भी अहसास हो गया गया उसका यूपी यह सबसे मजबूत किला कहीं ढह ना जाए.