यूपी विधानसभा चुनाव 2022 : असदुद्दीन ओवैसी को क्यों याद आए डॉ. जलील फरीदी?
यूपी विधानसभा चुनाव 2022
यूसुफ़ अंसारी।
यूपी विधानसभा चुनाव में पूरे दमख़म से ताल ठोक रहे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी को अचानक डॉ. अब्दुल जलील फ़रीदी की याद आ गए. डॉ. फऱीदी ने 1960 के दशक में हिंदू-मुस्लिम समुदाय के सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित तबक़ों को एक साथ मिलकर अपने राजनीति हितों की लड़ाई लड़ने के लिए एक मंच पर लाने की पहल की थी. 14 दिसंबर की रात को ओवैसी ने अचानक डॉ. फरीदी के जन्मदिन के मौक़े पर ट्वीटर पर याद किया. वो इसी दिन 1913 में लखनऊ के एक सम्मानित परिवार में पैदा हुए थे.
असदुद्दीन ओवैसी ने अपने ट्वीटर हैंडल पर लिखा, 'डॉ अब्दुल जलील फ़रीदी को याद करते हुए. भारतीय मुस्लिम राजनीति के इतिहास में एक विशाल और मुस्लिम मजलिस (1968) के संस्थापक. अल्लाह मुसलमानों के लिए एक स्वतंत्र राजनीतिक आवाज़ उठाने के लिए उनके जीवन भर के संघर्ष को मज़बूत करें और जन्नत में बाबा फ़रीदी को ऊंचा स्थान प्रदान करें.' यह पहला मौक़ा है जब ओवैसी ने डॉ. फ़रीदी को याद करके उनकी राजनीतिक विचारधारा से अपने जुड़ाव का प्रदर्शन किया है. लेकिन क्या ओवैसी वाक़ई डॉ. जलील फऱीदी के नक़्शे क़दम चल रहे हैं या सिर्फ़ उनके नाम के सहारे मुसलमानों के वोट हासिल करना चाहते हैं. ग़ौरतलब है कि ओवैसी यूपी में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके हैं. वो मुसलमानों को मुस्लिम उपमुख्यमंत्री पद दिलाने का ख़्वाब दिखा रहे हैं.
क्या डॉ. फऱीदी के अनुयायी हैं ओवैसी?
क्या असदुद्दीन ओवैसी डॉ. फ़रीदी के अनुयायी हैं? यह एक बड़ा सवाल है. इसका जवाब ढूंढने के लिए डॉ. जलील फ़रीदी के जीवन संघर्ष को समझना होगा. इसके साथ ही उनके मिशन और ओवैसी की राजनीति का तुलनात्मक अध्ययन भी करना होगा. यहां यह भी याद रखना होगा कि डॉ. फऱीदी की राजनीतिक विचारधारा समाजिक पिछड़ेपन पर आधारित थी जबकि ओवैसी धार्मिक आधार पर मुसलमानों को एकजुट करने की राजनीति कर रहे हैं. डॉ. फ़रीदी राजनीति में धर्म के इस्तेमाल के सख़्त खिलाफ़ थे. जबकि ओवैसी देश भऱ में घूम-घूम कर धर्म के आधार पर मुसलमानों के राजनीतिक रूप से एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं. ज़ाहिर है कि ओवैसी की राजनीति डॉ. फऱीदी की राजनीतिक अवधारणा के ख़िलाफ़ है. ऐसे में ओवैसी को डॉ. फ़रीदी का अनुयायी नहीं माना जा सकता.
कौन थे डॉ. जलील फ़रीदी
डॉ. अब्दुल जलील फ़रीदी लखनऊ के एक सफल चिकित्सक थे. उन्होंने आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े तबक़ों को सशक्त बनाने के लिए राजनीति में क़दम रखा.1951 के पहले आम चुनावों से लेकर वो 1960 के दशक में समाजवाद के अपने ब्रांड से मोहभंग होने तक प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के साथ रहे. वो विधान परिषद में पार्टी के नेता भी बने. डॉ. फ़रीदी ने आरोप लगाया कि समाजवादी दलों ने विपक्ष में बैठकर ही मुसलमानों और अन्य हाशिए के समुदायों के लिए आवाज़ उठाई, लेकिन सत्ता हासिल करने के बाद वे इन समुदायों के उत्थान के अपने ही मिशन को भूल गए.
उस दौर में उत्तर भारत में कांग्रेस, समाजवादी और कम्युनिस्ट थे. इनके अलावा कुछ मुस्लिम राजनेता एक दीर्घकालिक सामाजिक रचनात्मक योजना सामने लाने के बजाय सांप्रदायिक भावनाओं को बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे.
क्या था डॉ. फ़रीदी का राजनीतिक मिशन
डॉ. फरीदी ने मुस्लिम समाज के भीतर जाति की समस्या को उठाया. वो हिंदू और मुस्लिम समाज के पिछड़े तबक़े को एक साथ लेकर एक नई राजनीतिक शक्ति बनाना चाहते थे. समाज के वंचित तबक़े को सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के लिए उन्होंने ही पहली बार हिंदू और मुस्लिम समाज की दलित और पिछड़ी जातियों के गठजोड़ का फार्मूला दिया. 1968 में डॉ.फरीदी ने मुस्लिम मजलिस पार्टी बनाई. उसी साल उन्होंने लखनऊ में एक सम्मेलन किया. इसमें पेरियार सहित देश के कई जाने-माने दलित नेताओं ने हिस्सा लिया था. मुस्लिम मजलिस के साथ उन्होंने इस विचार को आगे बढ़ाया कि मुसलमानों को अपेन हित साधने के लिए पार्टी की ज़रूरत नहीं है. फ़रीदी ने सबसे पहले इस विचार को सामने रखा कि भारत में 85 प्रतिशत पिछड़ों और दलितों पर 15 प्रतिशत सवर्ण राज करते हैं.
मुस्लिम मजलिस का चुनावी सफ़र
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि डॉ. फऱीदी मुसलमानों के सामाजिक और राजनीतिक हित साधने के लिए अलग पार्टी के हक़ में नहीं थे. उन्होंने मुस्लिम मजलिस मुसलमानों को मज़बूत नेतृत्व देने के लिए बनाई थी. 1969 और 1974 का विधान सभा चुनाव उन्होंने भारतीय क्रांति दल के साथ मिल कर लड़ा था. 1974 में उनके 12 विधायक जीते थे. हालांकि चुनाव आयोग में इसका रिकॉर्ड नहीं मिलता. इसकी वजह ये हैं कि मजलिस के सभी उम्मीदवार भारतीय क्रांति दल के टिकट और चुनावी निशान पर जीते थे. मजलिस कभी एक राजनीतिक पार्टी के रूप में चुनाव आयोग में रजिस्टर्ड नहीं थी. 1974 में अपनी मृत्यु तक डॉ. फ़रीदी अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न दलों के साथ गठबंधनों की कोशिश करते रहे. उनके बाद धीरे-धीरे मुस्लिम मजलिस का पतन हो गया.
यूपी की सियासत पर मजलिस का असर
यहां कोई यह तर्क दे सकता है कि मुस्लिम मजलिस ने कभी न तो अपनी सरकार बनाई और न ही किसी सरकार में बड़ी हिस्सेदारी ही हासिल की. लेकिन यह हक़ीक़त है कि मुस्लिम समाज ख़ासकर पिछड़े मुसलमानों में अपनी पैठ की वजह से मजलिस ने सरकार की नीतियों और विभिन्न राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को प्रभावित करना शुरू कर दिया था. इसका श्रेय डॉ. फ़रीदी की दूरगामी और बहुजन समाज को एक साथ लेकर चलने वाली समावेशी राजनीतिक सोच को जाता है. हालांकि डॉ. फरीदी ने बहुत जल्दी दुनिया छोड़ दी. लेकिन कम समय में ही उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति की दिशा बदलने की प्रभावी कोशिश की. 1947 में पाकिस्तान से ऊंचे ओहदों की पेशकश ठुकराने वाले इस महान नेता ने एक ख़ास तरह की राजनीति के बीज बोए. बाद में इसकी फसल कांशीराम-मायावती की बसपा ने काटी.
कांशीराम मानते थे डॉ. फ़रीदी को गुरु
बसपा के संस्थापक कंशीराम डा. फ़रीदी को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे. कांशीराम की नज़र में संविधान के रचियता डॉ. भीमराव अंबेडकर के दलितों और अन्य वंचितों के सत्ता में वाजिब हिस्सेदारी दिलाने के राजनीतिक मिशन को अमली जामा पहनाने की पहली कोशिश डॉ. फऱीदी ने ही की थी. डॉ. फऱीदी की मृत्यु के लगभग एक दशक बाद जब कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के लिए राजनीतिक लामबंदी शुरू की, तो उन्होंने भीम राव अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले और साहूजी महाराज के साथ डॉ. फ़रीदी को भारत में पिछड़े और उत्पीड़ित वर्गों के लिए मुक्ति की राजनीति के अग्रदूतों में से एक के रूप में श्रेय दिया. कांशीराम डॉ. फरीदी को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे. अपने मिशन के शुरुआती दौर में वो नारा लगवाया करते थे, 'डॉ. फ़रीदी का मिशन अधूरा, कांशीराम करेगा पूरा.'
डॉ. फरीदी के मिशन के उलट है ओवैसी की राजनीति
डॉ. फ़रीदी के राजनीतिक मिशन का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि वो बग़ैर धार्मिक भेदभाव समाज के दबे कुचले तबक़े को राजनीतिक रूप से मज़बूत करके उसे सत्ता मे हिस्सेदारी दिलाना चाहते थे. इसके उलट ओवैसी सिर्फ मुसलमानों को सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने की बात करते हैं. जहां डॉ. फरीदी पिछड़े वर्गों के उत्थान के हक़ में थे वहीं की पार्टी में मुस्लिम समाज के अशराफिया (अगड़े तबक़े) के लोगों का ही वर्चस्व है. वो यूपी के चुनावों में पिछड़े मुसलमानों के हक़ की बत तो कर रहे हैं लेकिन उनकी पार्टी में तमाम ऊंचे ओहदों पर अशराफ़िया तबक़े के लोग ही बैठे हैं. उनकी पार्टी के प्रवक्ताओं की फेहरिस्त में भी सैयद और पठानों की ही भरमार है. पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए उनके पार्टी संगठन में कोई ख़ास जगह नहीं हैं.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)