टीवी चैनलों द्वारा टीआरपी के लालच में मीडिया ट्रायल की प्रवृत्ति घटने के बजाय बढ़ती जा रही है
पिछले दिनों मुंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। पिछले दिनों मुंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक वर्ग से नाराजगी व्यक्त करते हुए पूछा कि जब आप ही जांचकर्ता, अभियोजक और जज बन जाएंगे तो अदालतों की क्या जरूरत है? दरअसल न्यायालय एक जनहित मामले की सुनवाई कर रहा था, जिसमें सुशांत सिंह प्रकरण से जुड़े विषयों पर मीडिया ट्रायल रोकने की मांग की गई है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर से जब अभिव्यक्ति की आजादी का हवाला देते हुए यह कहा गया कि इससे इस प्रकरण की गुत्थी सुलझने में मदद मिली है तो अदालत ने कानून पढ़ने की सलाह देते हुए उसके मुताबिक आचरण करने की नसीहत दी। सुशांत-रिया प्रकरण और अब टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट से जुड़े विवाद ने अदालत को सख्त टिप्पणी करने को मजबूर किया। इसकी शुरुआत तो आपराधिक घटनाओं की तथ्यात्मक रिपोर्टिंग से हुई थी, लेकिन टीआरपी के लालच ने इसे सनसनीखेज रिर्पोंिटग में तब्दील कर दिया है। हालात ऐसे हैं कि एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में कोई भी हथकंडा अपनाने से गुरेज नहीं किया जा रहा है। टीवी चैनलों की वजह से लोग अदालत के निर्णय से पहले ही समाज की निगाहों में अपराधी बना दिए जा रहे हैं। यह अन्याय की पराकाष्ठा है। यह सब कुछ शुद्ध रूप से व्यापार बढ़ाने के लिए किया जा रहा है, किंतु इसका दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इसके लिए अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ ली जा रही है।
मीडिया ट्रायल न्यायालय की अवमानना की परिधि में आता है
मीडिया ट्रायल न्यायालय की अवमानना की परिधि में आता है। इसके माध्यम से किसी के पक्ष में या उसके खिलाफ एक माहौल तैयार होता है, जो अदालत के कामकाज में हस्तक्षेप है। यह 1971 के न्यायालय की अवमानना कानून की धारा 2(सी) के खंड तीन के अंतर्गत दंडनीय अपराध हैर्, ंकतु इस पर कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है। वास्तव में स्वतंत्र न्याय प्रशासन उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि स्वतंत्र प्रेस। दोनों ही समाज के लिए जरूरी हैं, परंतु मीडिया को न्यायिक व्यवस्था में दखलंदाजी की अनुमति नहीं दी जा सकती। हर अभियुक्त का यह अधिकार है कि उसके मुकदमे का स्वतंत्र और निष्पक्ष विचारण हो। अभियुक्त का यह भी अधिकार है कि जब तक उसके मुकदमे का निर्णय नहीं आ जाए, तब तक जनता और अदालत के मन में उसके प्रति पूर्वाग्रह पैदा न किया जाए, लेकिन मीडिया ट्रायल के कारण इसका ठीक उलटा हो रहा है।
मीडिया ट्रायल न्यायिक प्रक्रिया में दखलंदाजी
ब्रिटेन में 1981 में शेरिंग केमिकल्स बनाम फॉकमैन के मुकदमे में मीडिया ट्रायल और अभिव्यक्ति की आजादी के अंतरसंबंधों को स्पष्ट किया गया था। लॉर्ड डेनिंग ने कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी स्वतंत्रता की आधारशिला है, किंतु इसे लेकर यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि उसे किसी की प्रतिष्ठा को नष्ट करने, भरोसा तोड़ने या न्याय की धारा को दूषित करने की भी आजादी मिली हुई है। मीडिया ट्रायल पर लगाम लगाने के लिए आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। तब न्यायालय ने कहा था कि जब भी किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का मुकदमा शुरू होता है तो मीडिया के कुछ लोगों की दखलंदाजी काफी हद तक बढ़ जाती है। इससे अदालतों तथा अभियोजकों के ऊपर गहरा असर पड़ता है। उनकी वस्तुनिष्ठता को गहरी चोट पहुंचती है। इस पर तुरंत अंकुश लगाने की जरूरत है। इसी तरह की चिंता सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में एमपी लोहिया बनाम पश्चिम बंगाल नामक मुकदमे में भी व्यक्त की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे न्यायिक प्रक्रिया में दखलंदाजी मानते हुए संबंधित लोगों को कड़ी फटकार लगाई थी और आगाह किया था।
टीवी चैनलों द्वारा टीआरपी के लालच में मीडिया ट्रायल की प्रवृत्ति घटने के बजाय बढ़ती जा रही
अदालत की ऐसी अनगिनत फटकारों के बावजूद टीवी चैनलों द्वारा टीआरपी के लालच में मीडिया ट्रायल की प्रवृत्ति घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, ब्रिटेन तथा कनाडा जैसे दूसरे लोकतांत्रिक देशों में मीडिया ट्रायल जैसी परिस्थितियों के नियमन के लिए कानून हैं, पर अभी हमें इसमें सफलता नही मिली है। अपने यहां 1994 से 2006 तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नियमन के लिए कानून बनाने के कम से कम सात प्रयास किए गए थे। 2006 के विधेयक में न केवल मीडिया ट्रायल और अदालती अवमानना को रोकने, अपितु राष्ट्र की एकता, अखंडता, सुरक्षा, कानून व्यवस्था तथा अपराध को उकसाने वाले प्रसारणों के नियमन की भी व्यवस्था हुई थीर्, ंकतु उसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले के रूप में निरूपित करके ऐसा परिवेश तैयार किया गया कि सरकार ने अपने पैर पीछे खींच लिए। तर्क दिया गया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को किसी बाहरी नियमन की जरूरत नहीं है। वह आत्म नियमन करने में सक्षम है और उस पर भरोसा किया जाना चाहिए।
टीआरपी के लोभ में मीडिया ट्रायल पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनना चाहिए
पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रमों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट में पुन: एक जनहित याचिका दायर की गई है। इसमें अदालत से मांग की गई है कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के नियमन के लिए एक संस्था गठित करने के लिए वह केंद्र सरकार को दिशा-निर्देश जारी करे। इसके विरोध में एक बार फिर आत्म नियमन का तर्क दिया जा रहा है। आत्म नियमन के अधिकार का आग्रह लोकशाही के आधारभूत सिद्धांतों के विरुद्ध है। आत्म नियमन की मांग का तात्पर्य स्वच्छंदता की मांग करने के बराबर होता है। लोकतंत्र किसी को इतना अधिकार संपन्न बनने की अनुमति नहीं देता कि वह उसका दुरुपयोग कर सके। लोकशाही नियंत्रण और सामंजस्य के सिद्धांत पर चलती है, इसलिए राष्ट्रपति, न्यायाधीश को भी संविधान और नियमों के दायरे में रखने की व्यवस्था की गई है। संविधान विरुद्ध कार्य करने पर उनके खिलाफ भी कार्रवाई की जा सकती है। अनियंत्रित अधिकार संपन्नता निरंकुश होने की पृष्ठभूमि तैयार करती है। समाज तथा स्वयं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की साख के लिए यह जरूरी है कि एक कानून लाया जाए, जिससे टीआरपी के लोभ में मीडिया ट्रायल जैसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगे।