उपचुनावों में तृणमूल की जीत

प. बंगाल विधानसभा के तीन उपचुनावों में जिस प्रकार ममता दी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी की जीत हुई है उससे साबित होता है कि इस राज्य में ममता दी का मुकाबला करने की कूव्वत किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल में नहीं है।

Update: 2021-10-04 03:40 GMT

प. बंगाल विधानसभा के तीन उपचुनावों में जिस प्रकार ममता दी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी की जीत हुई है उससे साबित होता है कि इस राज्य में ममता दी का मुकाबला करने की कूव्वत किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल में नहीं है। ये उपचुनाव इस वजह से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में थे क्योंकि कोलकाता इलाके की भावनीपुर सीट से स्वयं ममता दी चुनाव लड़ रही थीं। उन्होंने यहां पर भाजपा की प्रत्याशी को लगभग 59 हजार मतों से पराजित किया है। इसके अलावा समसेरगंज व जंगीपुर सीटों पर भी तृणमूल के प्रत्याशियों ने जिस प्रकार धमाकेदार जीत दर्ज की है। वह बताती हैं कि राज्य में कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व दीदी की पार्टी में समा चुका है। जंगीपुर से तो तृणमूल के प्रत्याशी जाकिर हुसैन को 70 प्रतिशत से अधिक मत मिले जबकि दूसरी ओर समसेरगंज से इसके प्रत्याशी ने 52 प्रतिशत से अधिक मत पाये। जंगीपुर तो कांग्रेस पार्टी का गढ़ माना जाता था परन्तु यहां से कांग्रेस ने अपना कोई प्रत्याशी उतारा तक नहीं। यहां दूसरे स्थान पर भाजपा का प्रत्याशी रहा। जबकि समसेरगंज में कांग्रेस का प्रत्याशी दूसरे नम्बर पर रहा। उपचुनावों में जीत से ममता दी की ऱाष्ट्रीय छवि में निखार आना बहुत स्वाभाविक राजनैतिक प्रक्रिया है परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ममता दी की लोकप्रियता देश के अन्य उत्तरी या दक्षिणी राज्यों में भी बढे़गी। ममता दी के लिए भवानीपुर चुनाव जीतना उन्हें अपने पद पर बने रहने के लिए बहुत जरूरी था क्योंकि मार्च महीने में राज्य में हुए चुनावों के दौरान वह नन्दीग्राम विधानसभा सीट से अपने ही एक कनिष्ठ सहयोगी सुभेन्दु अधिकारी से बहुत कम मतों के अंतर से चुनाव हार गई थीं। इस चुनाव परिणाम को ममता दी ने न्यायालय में चुनौती दी हुई है परन्तु सत्ता की बागडोर संभाले रखने के लिए उन्हें उप चुनाव लड़ना बहुत जरूरी था जिसकी वजह से उन्होेंने भावनीपुर से जीते हुए अपनी पार्टी के प्रत्याशी से इस्तीफा दिलाया जिससे यहां छह माह की अवधि के भीतर चुनाव हो सकें। संविधान के अनुसार कोई भी व्यक्ति चुने हुए सदन का सदस्य न होते हुए भी मुख्यमन्त्री बन सकता है मगर छह माह के भीतर उसे इसका सदस्य बनना होता है। ममता दी जब नन्दीग्राम से चुनाव हारी तब भी वह मुख्यमन्त्री थीं परन्तु मार्च में हुए चुनावों में उनकी पार्टी ने धमाल मचाते हुए शानदार सफलता प्राप्त की। 298 सदस्यीय विधानसभा में 213 सीटें जीतीं। उनकी यह जीत पिछले 2016 के चुनावों से भी अधिक प्रभावी थी। इस जीत से उन्होंने भाजपा के इस दावे को नकार दिया कि प. बंगाल में यह पार्टी अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों की तरह अपना झंडा फहरा सकती है। मगर ममता दी को अपनी हार का गम भीतर से कचोट रहा था क्योंकि उनकी फौज तो चुनावों में जीत गई थी मगर जनरल की टोपी उतर गई थी। इसलिए भवानीपुर से उनकी विजय की गूंज पुरानी हार का बदला लेने के लिए बहुत जरूरी थी और इसे ममता दी ने पूरी शान के साथ लिया। उसके विरुद्ध प्रत्याशी ढूंढने में भाजपा को काफी जद्दोजहद करनी पड़ी और अंत में एक तेज-तर्रार वकील प्रियंका टिब्बरवाल को मैदान में उतारा गया। ममता दी के कद को देखते हुए प्रियंका ने चुनाव बखूबी लड़ा और 24 हजार से कुछ अधिक मत भी प्राप्त किये परन्तु प्रारम्भ से ही यह लड़ाई इकतरफा मानी जा रही थी क्योंकि ममता दी पहले भी दो बार 2011 और 2016 में भावनीपुर से ही चुनाव जीत चुकी थीं। वैसे ममता जब मार्च में चुनाव हारी थीं तो कोई अजूबा नहीं हुआ था क्योंकि उनसे पहले भी 1967 में राज्य के मुख्यमन्त्री के रूप में स्व. पी.सी. सेन आरामबाग विधानसभा सीट से चुनाव हार गये थे और वह भी अपने एक सहायक रहे स्व. अजय मुखर्जी से बहुत कम मतों के अंतर से हारे थे। स्व. सेन को आरामबाग का गांधी कहा जाता था। बाद में वह भी उपचुनाव में विजयी रहे थे परन्तु 1967 में स्व. सेन की पार्टी कांग्रेस भी चुनाव हार गई थी। मगर ममता दी की बात पूरी तरह अलग है। उन्होंने अपने राज्य में जो राजनीतिक विमर्श खड़ा किया है उसके समक्ष पूर्व सत्ताधारी वामपंथी पार्टियां और वर्तमान में चुनौती देने वाली भाजपा दोनों ही कोई सशक्त व लोकप्रिय वैकल्पिक विमर्श खड़ा नहीं कर सकी। यदि जमीनी हकीकत को देखा जाये तो वामपंथी विकल्प मृतप्राय हो चुका है जबकि भाजपा का विकल्प मुकाबला करता लगता है जिसकी वजह से मार्च में हुए चुनावों में इस पार्टी को 77 सीटें मिलीं। मगर ये सीटें कांग्रेस व वामपंथियों का वोट बैंक आंशिक रूप से हथियाते हुई मिलीं परन्तु यह वैचारिक स्तर पर गोलबन्दी नहीं है बल्कि चुनावी स्तर पर राजनीतिक कशमकश है क्योंकि बंगाल की संस्कृति अन्ततः वैचारिक आधार पर ही राजनीति को संचालित करती है। यदि यह कहा जाये कि बंगाल राजनीतिक विचारधाराओं का महासागर है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि यह देश को आजादी दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी का उद्गम स्थल भी है और कम्युनिस्ट विचारधारा को सामाजिक- आर्थिक संपादकीय :समुद्र में रेव पार्टीपूरे देश का 'रामबाण' है हैल्थ आईडीचन्नी की चुनौतियां और पंजाबकट ऑफ लिस्ट की हदगांधी की विरासत और हमममता का भवानीपुरपरिवर्तन का जरिया बनाने वाले स्व. एम.एन. राय की कार्यस्थली भी है तथा राष्ट्रवादी विचारों को स्वतन्त्र भारत में व्यापक बनाने वाले डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जन्म स्थली भी है परन्तु एक बात तय है कि 'बंग राष्ट्रवाद' का सम्बन्ध अपनी 'देसज' संस्कृति को केन्द्र बना कर ही घूमता रहा है जिसका प्रमाण इसके वे तीज-त्यौहार हैं जो पूरी धर्मनिपेक्षता के साथ मनाये जाते हैं।

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