माकपा की राह पर तृणमूल कांग्रेस: तृणमूल के हाथों प्रताड़ितों को ही दोषी ठहराने में लगे सेक्युलरवाद की कसम खाए अनेक बौद्धिक और पत्रकार

तृणमूल कांग्रेस

Update: 2021-05-15 06:07 GMT

शंकर शरण : बंगाल की घटनाएं बता रही हैं कि तृणमूल कांग्रेस ने अपने को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी माकपा के नक्शे में ढाल लिया है। इस राज्य में माकपा राज जनसमर्थन से अधिक हिंसा और गुंडागर्दी से चला था। स्वयं प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता और वरिठ सांसद भूपेश गुप्त ने कहा था कि शुरू से ही माकपा ने अपराधियों और समाज-विरोधी तत्वों के साथ मिलकर अपना कब्जा बनाया। गुप्त के शब्दों में, 'पश्चिम बंगाल में तब तक सामान्य स्थिति होने की आशा नहीं, जब तक कि मार्क्सवादी अपने बमों को हुगली में फेंक नहीं देते तथा अपनी बंदूकें और छुरे चलाना छोड़ नहीं देते। माकपा का आतंकवाद खत्म हुए बिना बंगाल में सामान्य स्थिति की वापसी असंभव सी है।' आज यही बात तृणमूल कांग्रेस के लिए कही जा सकती है। तृणमूल की भारतीय अखंडता से उदासीनता या घृणा भी कम्युनिस्टों से मिलती-जुलती है। तृणमूल के लोगों द्वारा राज्य से बाहर के नेताओं, सम्मानित व्यक्तियों को भी बाहरी कह कर तिरस्कार करने में वही भाव है। माकपा खुलेआम विदेशी कम्युनिस्ट सत्ताओं, विशेषकर चीनियों से अपनी निकटता और भारत के कांग्रेस नेताओं से अपना दुराव दर्शाती थी। तृणमूल के प्रवक्ताओं ने भी वही रूप दर्शाया है।

हिंदू-द्वेष कम्युनिस्ट की तरह तृणमूल पार्टी में भी झलकता

भारत में कम्युनिस्ट अपने जन्म से ही हिंदू विरोधी प्रवृत्ति से चलते रहे। कहने के लिए वे नास्तिक थे और इसीलिए सभी धर्मों के विरोधी थे, पर उनमें हिंदू-द्वेष केंद्रीय तत्व था। इसके लिए उन्होंने भारत में इस्लाम के वकील की भूमिका अपनी ली। उन्होंने 1947 में देश विभाजन के लिए जमकर प्रचार किया। उसके बाद भी उनकी राजनीति और वैचारिकता में हिंदू-द्वेष स्थाई तत्व बना रहा। वे उन मार्क्सवादियों को भी खरी-खोटी सुनाते थे, जो भारतीयता पर गौरव या हिंदू ज्ञान परंपरा को मूल्यवान समझते थे। राहुल सांकृत्यायन और रामविलास शर्मा जैसे बड़े मार्क्सवादियों को भी इसीलिए गालियां खानी पड़ीं। जब योगाचार्य बाबा रामदेव का उदय हो रहा था, तब माकपा नेताओं ने उन्हेंं गिराने की लगातार कोशिश की। कुछ ऐसा ही हिंदू-द्वेष तृणमूल पार्टी में भी झलकता है।
पश्चिम बंगाल में हिंदुओं का उत्पीड़न

जैसे कम्युनिस्टों ने हिंदू धर्म-समाज के विरुद्ध इस्लामी अलगाववाद और हिंसा को प्रश्रय दिया, वैसे ही, बल्कि उससे भी अधिक वह तृणमूल में लक्षित हो रहा है। कुछ लोग इसे वोट-बैंक की राजनीति कहते हैं, पर यह अधूरी व्याख्या है। मुस्लिम वोटों के लिए तो कांग्रेस, सपा, राजद आदि भी उठापटक करते हैं, किंतु तृणमूल की तरह अपना रंग-ढंग ही इस्लामी नहीं बना लेते। यह केवल सांकेतिक बात नहीं है। बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों से नियमित समाचार आते रहते हैं कि कहीं हिंदुओं को दुर्गा पूजा नहीं मनाने दिया गया और कहीं सरस्वती पूजा से रोक दिया गया। डॉ. रिचर्ड बेंकिन की पुस्तक ए क्वाइट केस ऑफ एथनिक क्लींसिंग: द मर्डर ऑफ बांग्लादेश हिंदूज (अक्षय प्रकाशन) में इसका वर्णन है कि 1977 से ही पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से आने वाले हिंदुओं का उत्पीड़न शुरू हो गया था। कम्युनिस्ट-इस्लामी तत्व मिलकर बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों की किसी पुरानी झुग्गी बस्ती पर कब्जा करने के लिए उन्हेंं वहां से जबरन भगा देते। समय के साथ वही चोट यहां के हिंदुओं पर भी होने लगी। जिन गांवों में हिंदू अल्पसंख्यक थे, वहां से उन्हेंं निरंतर अपमानित, प्रताड़ित करके भागने पर मजबूर किया जाता। इस तरह कोई हिंदू-मुस्लिम मिला-जुला गांव पूरी तरह मुस्लिम गांव या क्षेत्र बन जाता। बंगाल के कम्युनिस्ट सत्ताधारी इसकी अनदेखी करते या कहीं-कहीं उनके कार्यकर्ता उसमें सहयोग करते।
भारत के राजनीतिक दल, मीडिया बंगाल में उत्पीड़न सह रहे हिंदुओं के प्रति उदासीन

माकपा शासन के दौरान डॉ. बेंकिन ने इसका मौके पर जाकर अध्ययन किया था। उनके किसी भी जगह जाने पर माकपा कार्यकर्ता वहां पहुंच जाते और लोगों को धमकाते कि किसी से कुछ न कहें। एक विदेशी अध्ययनकर्ता के रूप में बेंकिन को हैरत हुई कि भारत के प्रभावशाली लोग, राजनीतिक दल, मीडिया आदि बंगाल में उत्पीड़न सह रहे हिंदुओं के प्रति उदासीन हैं।
तृणमूल ने भी मनमानी हिंसा की माकपा की तकनीक अपना ली

माकपा राज के अंतिम दौर में एक कंकाल कांड चर्चित हुआ था। जब पूर्वी और पश्चिमी मिदनापुर जिलों में कई जगह जमीन के नीचे थोक भाव में नरकंकाल मिले थे। दरअसल माकपा द्वारा राजनीतिक विरोधियों की सामूहिक हत्याएं की गई थीं। उसमें माकपा के एक मंत्री और एक सांसद सीधे-सीधे आरोपित हुए। वह मंत्री और अनेक माकपा नेता कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए। तब ममता बनर्जी ने कहा था कि ऐसे असंख्य नरकंकाल और कई जगहों पर दबे पड़े होंगे। क्या आज तृणमूल के कार्यकर्ता मनमानी हिंसा की वही राजनीति नहीं चला रहे हैं? इससे संदेह होता है कि तृणमूल ने भी माकपा की तकनीक अपना ली है।
तृणमूल के आतंक से खुलकर बोलने से बच रहे हैं बंगाल में भाजपा नेता

अभी केंद्र में भाजपा की सत्ता है। फिर भी यदि बंगाल में भाजपा के स्थानीय नेता खुलकर बोलने से बच रहे हैं तो तृणमूल के आतंक का पैमाना समझा जा सकता है। कांग्रेस नेता मानस भूनिया ने गृह मंत्रालय के आंकड़ों से 1997 से 2004 के बीच बंगाल में 20 हजार राजनीतिक हत्याएं होने की बात कही थी। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां तीन दशक का माकपा राज कैसे चला होगा? असंख्य अपराधों का तो रिकॉर्ड भी नहीं, क्योंकि कम्युनिस्ट शासन की जेब में बंद पुलिस प्राय: रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती थी, किंतु राष्ट्रीय मीडिया में भी इस पर कभी कोई आक्रोश अभियान नहीं चला। बड़े-बड़े सेक्युलर-वामपंथी लेखक और प्रोफेसर माकपा की जोर-जबरदस्ती की राजनीति पर मौन रहे। अभी तृणमूल की हिंसा पर भी वही दिख रहा है।
राष्ट्रीय राजनीति में सेक्युलर-वामपंथी दुरभिसंधि

हिंदू-विरोधी सेक्युलरवाद की कसम खाए अनेक बौद्धिक और बड़े पत्रकार उलटे तृणमूल के हाथों प्रताड़ितों को ही दोषी ठहराने में लगे हुए हैं। इस दुखद, किंतु स्थाई परिदृश्य का सबसे बड़ा कारण राष्ट्रीय राजनीति में सेक्युलर-वामपंथी दुरभिसंधि है। इसके प्रति राष्ट्रवादी संघ-परिवार ने भी हल्कापन दिखाया। इसलिए केंद्र में उनकी सत्ता ने भी ऐसी हानिकारक वैचारिकता और शिक्षा को बदलने की कोई पहल नहीं की। भाजपा ने अपने को कांग्रेस के रूप में ढाल कर सेक्युलर-वामपंथी-इस्लामी महानुभावों को ही जीतने की नीति अपनाई है। इसी का फल है कि तमाम हिंदू-विरोधी तत्व जहां-तहां हिंदू समाज को निशाना बनाते रहते हैं। चाहे ऊपर से इसका रूप भाजपा-विरोध क्यों न हो, किंतु असली चोट हिंदू समाज पर रहती है। भाजपा नेतृत्व इस मूल बिंदु को देखने से सदैव गाफिल रहा है। हैरत नहीं कि तृणमूल की हिंसा भी समय के साथ दबा दी जाए।
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