यह खबर चिंताजनक है कि पिछले छह महीने से चल रहे किसान आंदोलन में अब 26 मई को राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम भी शामिल हो गया है। इसके लिए आसपास के राज्यों से बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की ओर कूच करने को तैयार हैं। देश में कोरोना संक्रमण की भयावह दूसरी लहर कुछ हल्की भले पड़ी हो, पर अभी थमी नहीं है। ऐसे में, यह अंदेशा होना स्वाभाविक है कि ऐसे विरोध प्रदर्शनों से फिर संक्रमण की रफ्तार बढ़ सकती है। यह देखा गया है कि किसान आंदोलन में कोविड से संबंधित सावधानियों के पालन में लापरवाही बरती जाती है, बल्कि ऐसे माहौल में सावधानी रखना लगभग नामुमकिन ही है। रैली, मेले, धरने-प्रदर्शन वगैरह में न तो सामाजिक दूरी का ख्याल रखना संभव होता है, न ही यह सुनिश्चित करना कि सभी लोग मास्क पहनें। यह बात निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती कि इस आंदोलन की वजह से कोविड का कितना फैलाव हुआ, लेकिन ऐसे असुरक्षित माहौल से संक्रमण फैलना स्वाभाविक ही है। इसलिए बेहतर होगा कि सभी संबंधित पक्ष समझदारी दिखाएं।
किसान अपने आंदोलन के छह महीने पूरे होने के मौके पर यह विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। यह उनके लिए माकूल मौका इसलिए भी है कि रबी की फसल कट चुकी है और खरीफ की फसल की बुवाई में अभी वक्त है। फिर भी, कोरोना संकट के मद्देनजर संयम का परिचय देते हुए वे अपने विरोध प्रदर्शन को कुछ वक्त के लिए टाल दें, तो इससे आंदोलन को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा, और उनके प्रति समाज में सम्मान ही बढ़ेगा। देश के सभी प्रमुख विरोधी दलों ने किसानों के इस प्रदर्शन का समर्थन किया है और सरकार से यह आग्रह किया है कि वह जिद छोड़कर किसानों से बातचीत के लिए आगे आए। किसानों और सरकार के बीच बातचीत जनवरी में खत्म हो गई थी, जब आगे समझौते के आसार नहीं बचे थे। सरकार ने प्रस्ताव दिया था कि वह तीनों विवादित कृषि कानूनों को अगले अठारह महीने तक स्थगित कर देगी, पर किसान इनको खत्म करने, एमएसपी को कानूनन अधिकार बनाने व स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को पूरी तरह लागू करने पर अडे़ हुए हैं। जो भी स्थिति हो, समस्या का हल बातचीत से ही निकलेगा, और लोकतंत्र में आदर्श हल वही होता है, जिसमें किसी एक की जीत और दूसरे की हार नहीं होती। यह सरकार को भी समझना चाहिए कि अब तक जो बातचीत हुई है, उसमें लचीलेपन और एक-दूसरे को समझने की भावना की कमी थी और लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को नागरिकों के सामने बड़प्पन और उदारता दिखानी होती है। अगर किसान इस हद तक लड़ने पर आमादा हैं, तो इसलिए कि वे इसे जीवन-मरण का सवाल मानते हैं, सिर्फ सरकारी नीतियों में बदलाव या आर्थिक सुधार का नहीं। जब देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति कमजोर हो और किसानों या आम लोगों की आय नहीं बढ़ रही हो, तब वे हर ऐसे कदम को शक की नजर से देखते हैं। आर्थिक सुधारों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उन्हें किस वक्त पर और किस तरह से लागू किया जाता है, और इन सुधारों में सबसे बड़ी समस्या यही रही है। लेकिन अब भी बातचीत और सौहार्द से रास्ता निकल सकता है, और कोरोना के फैलाव के गैर-जरूरी अंदेशे को भी रोका जा सकता है।