कोरोना से उबरती अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए सरकार ने बजट में खर्च बढ़ाने का सही कदम उठाया है
कोरोना से उबरती अर्थव्यवस्था को सहारा
धर्मकीर्ति जोशी। बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की राजकोषीय रणनीति से स्पष्ट है कि पिछले बजट की तुलना में इस बार आर्थिक परिदृश्य काफी कुछ बदला हुआ है। यह बजट एक प्रकार से आर्थिक मोर्चे पर हो रहे सुधार को रफ्तार देने वाला है। इसे बनाने से पूर्व सबसे बड़ी चुनौती यही संतुलन साधने की थी कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि संबंधी संभावनाओं को भुनाने में सरकारी खर्च बढ़ाने और कोविड महामारी से उपजी आकस्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए क्या उपाय किए जाएं। ऐसे में बजट के समग्र राजकोषीय रुझान एवं उसके व्यय की दिशा के निहितार्थों को समझना होगा। जीडीपी के 6.9 प्रतिशत के बराबर रहा राजकोषीय घाटा जरूर अनुमान से अधिक है। यह 17.6 प्रतिशत की अनुमानित (नामिनल) जीडीपी वृद्धि में कर संग्र्रह में अप्रत्याशित तेजी एवं जीएसटी प्रक्रिया के और सुसंगत होने के बावजूद हुआ है। यदि विनिवेश में शिथिलता न आई होती तो घाटे को लेकर तीर सटीक निशाने पर ही लगा होता।
वृद्धि को सहारा देने वाली राजकोषीय नीति
जहां तक राजकोषीय नीति की बात है तो हाल-फिलहाल से लेकर आगामी वित्त वर्ष के लिए वह व्यापक रूप से वृद्धि को समर्थन देने वाली दिख रही है। आगामी वित्त वर्ष के लिए सरकार ने बेहद संकुचित भाव से अनुमानित जीडीपी की 11.1 प्रतिशत वृद्धि दर के आधार पर राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 6.4 प्रतिशत रखा है। विगत दो वर्षों का अनुभव यही दर्शाता है कि कोविड की अनुवर्ती लहर आर्थिक रूप से कम घातक सिद्ध हुई हैं। व्यापक टीकाकरण और वायरस के साथ जीने की सहज वृत्ति विकसित होने को इसका श्रेय जाता है। इससे वृद्धि को भी व्यापक स्वरूप लेने में सहायता मिलेगी।
इस राह में कुछ चुनौतियां भी हैं। जैसे कच्चे तेल की कीमतों का रुख, सुस्त वैश्विक अर्थव्यवस्था, भू-राजनीतिक गतिविधियां एवं टकराव। मौजूदा पड़ाव पर ये वृद्धि के लिए जोखिम उत्पन्न कर रहे हैं। फिर भी यही उम्मीद है कि अगले वित्त वर्ष में अनुमानित जीडीपी वृद्धि दर जहां 12 से 13 प्रतिशत के दायरे में रहेगी वहीं वास्तविक वृद्धि 7.8 प्रतिशत रह सकती है। कर संग्रह लक्ष्य में भी तेजी के आसार हैं। वित्त मंत्री ने कहा है कि वर्ष 2025-26 में राजकोषीय घाटा घटकर जीडीपी के 4.5 प्रतिशत तक आ सकता है। यह फिर भी महामारी पूर्व 3.3 प्रतिशत के आंकड़े से ऊंचा होगा। ऐसे में ध्यान रखना होगा कि अधिक खर्च की तात्कालिक आवश्यकता एवं चरणबद्ध तरीके से ऋण और घाटे को घटाने पर कोई लापरवाही न की जाए। आखिर अपने समकक्ष देशों में भारत का जीडीपी के अनुपात में ऋण का स्तर सबसे ऊंचा है।
कोरोना के जख्मों पर मरहम लगाने की पहल
सरकार ने खर्च बढ़ाकर महामारी से प्रभावित तबके को राहत प्रदान करने का प्रयास किया है। इससे मांग भी स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी। इस लिहाज से यह कदम सकारात्मक ही कहा जाएगा। वर्ष 2021-22 में भारतीय घरेलू उपभोग तीन प्रतिशत रहा, जो 2019-20 से कम था। उपभोग में कमी का मौजूद चक्र वास्तव में आय असमानता का एक परिणाम है, जिसे महामारी ने और बढ़ाने का काम किया, जहां अमीर और अमीर, जबकि गरीब और गरीब होते दिखे। महामारी की एक के बाद एक लहर को काबू करने के लिए लगे प्रतिबंध, शारीरिक दूरी और पनपे खौफ के कारण निम्न आय वर्ग विशेषकर छोटे उद्यमों, असंगठित क्षेत्र और कांटेक्ट आधारित सेवाओं में सक्रिय लोग बुरी तरह प्रभावित हुए और उनकी क्रय शक्ति घटती गई।
इस बीच कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन बढ़िया रहा, किंतु वह ग्रामीण जीडीपी का महज एक तिहाई हिस्सा भर है। साथ ही अब किसानों की आधी से अधिक आमदनी गैर-कृषि गतिविधियों से आती है। दोपहिया वाहनों की कमजोर मांग के अलावा कृषि एवं गैर-कृषि ग्रामीण मजदूरी में आ रही गिरावट भी कमजोर ग्रामीण मांग को दर्शाती है। सरकार ने इस बजट में मनरेगा के लिए पिछले वर्ष की तुलना में कम राशि आवंटित की है। ऐसे में यदि इस मद में खर्च बढ़ाने की आवश्यकता पड़े तो सरकार को लचीला रुख दिखाना होगा। एमएसएमई के लिए इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम का आवंटन बढ़ाकर सरकार ने ऐसे लचीलेपन के संकेत भी दिए हैं। इससे उपभोग को परोक्ष समर्थन मिलेगा। प्रधानमंत्री आवास योजना और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के लिए बढ़ा आवंटन भी रोजगार सृजन एवं घरेलू उपभोग को बढ़ाने में मददगार होगा। इससे हाशिये पर मौजूद लोगों को बड़े पैमाने पर नौकरियां मिलेंगी, क्योंकि ये दोनों योजनाएं न केवल अधिक श्रम खपत वाली हैं, बल्कि अकुशल कर्मियों के लिए रोजगार का एक प्रमुख माध्यम भी हैं। उपभोग चक्र को निर्णायक गति देने में इन प्रयासों के अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों में भी व्यापक तेजी की आवश्यकता होगी, जिसमें यह देखना होगा कि कोविड महामारी की कोई भावी लहर इस मौजूदा लहर से अधिक गतिरोध न उत्पन्न करे।
सरकारी संसाधनों की सीमा
शहरी गरीबों को भी सहारा दिया जाना आवश्यक है, क्योंकि महामारी ने शहरों में जिन कांटेक्ट आधारित सेवाओं पर आघात किया, उनमें दो-तिहाई ऐसे ही लोग कार्यरत हैं। इसके अलावा गरीब ग्रामीणों की तुलना में उन्हें महंगाई की तपिश भी अधिक झेलनी पड़ती है। ऐसे में उनकी मदद के लिए किसी कारगर उपाय के अभाव में अपनी आमदनी में स्थायी वृद्धि के लिए उन्हें व्यापक आर्थिक वृद्धि की प्रतीक्षा करनी होगी। आमजन को राहत देने के लिए सरकार के पास पेट्रोलियम उत्पादों पर शुल्क कटौती का विकल्प थार्, किंतु तंग राजकोषीय गणित इसकी गुंजाइश नहीं देता। यदि कच्चे तेल के दाम कुछ ज्यादा चढ़ते हैं तो सरकार को जरूर कुछ उपाय करने पड़ सकते हैं।
बुनियादी ढांचा केंद्रित पूंजीगत व्यय में सरकार ने 25 प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी की है। साथ ही निवेश के लिए राज्यों का आवंटन भी बढ़ाया है। चूंकि निजी निवेश अभी तक पटरी पर नहीं लौटा है तो यह कदम महत्वपूर्ण है। निवेश की बेहतर स्थिति में होने के बावजूद निजी क्षेत्र अनिश्चितता या अतीत की तेजी में अतिरेक निवेश के कारण फिलहाल नया दांव लगाने से हिचक रहा है। वित्त मंत्री ने अपने भाषण में यह स्वीकार भी किया। बुनियादी ढांचे में सरकारी निवेश के अर्थव्यवस्था पर गुणात्मक प्रभाव होंगे। इससे आर्थिक वृद्धि को संबल मिलने के साथ ही निजी निवेश को बढ़ाने के सरकारी प्रयासों को अपेक्षित प्रतिक्रिया मिल सकेगी। अब अगली चुनौती निवेश की इन योजनाओं के सुगम क्रियान्वयन की है, क्योंकि पूर्व में हुई हीलाहवाली ने लागत बढ़ाने के साथ ही परियोजनाओं को विलंबित भी किया है।
(लेखक क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)