हिमालयी झीलों से बढ़ता खतरा

बढ़ते तापमान को रोकना आसान नहीं है, बावजूद इसके हम अपने हिमखंडों को टूटने और पिघलने से बचाने के उपाय औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक कर सकते हैं।

Update: 2022-04-29 05:00 GMT

प्रमोद भार्गव: बढ़ते तापमान को रोकना आसान नहीं है, बावजूद इसके हम अपने हिमखंडों को टूटने और पिघलने से बचाने के उपाय औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक कर सकते हैं। पर्यटन के रूप में बढ़ती आवाजाही पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। इसके अलावा हमारी सनातन ज्ञान परंपरा में हिमखंडों की सुरक्षा के उपलब्ध उपायों को भी महत्त्व देना होगा।

हिमालयी क्षेत्र में स्थित सतलुज नदी घाटी में हिमखंडों के पिघलने से ऐसी झीलों की संख्या बढ़ रही है, जो भविष्य में बाढ़ और तबाही का बड़ा खतरा बन सकती हैं। इन बर्फीली वादियों में दो सौ तिहत्तर नई झीलें बनी हैं। मानसरोवर से नाथपा-झाकड़ी तक कुल सोलह सौ बत्तीस झीलें गिनी गई हैं। इनमें से सत्रह झीलें खतरे के निशान तक पहुंच गई हैं, जिनमें से आठ चीन के कब्जे वाले तिब्बत क्षेत्र में हैं।

इनका क्षेत्रफल पांच हेक्टेयर तक है। ये झीलें सतलुज के पानी को बढ़ा कर बड़ा नुकसान पहुंचा सकती हैं। इसलिए ये झीलें हिमाचल समेत अन्य हिमालयी राज्यों के लिए खतरे की घंटी हैं। भूविज्ञानी हिमालयी क्षेत्र की चार घाटियों- चिनाब, ब्यास, रावी और सतलुज में हिमखंड पिघलने से बनी झीलों की निगरानी में लगे हैं। इनके अध्ययन से पता चला है कि सतलुज नदी घाटी में ग्लेशियरों के पिघलने से झीलों में पानी की मात्रा चार से पांच प्रतिशत तक बढ़ गई है। भविष्य में और बढ़ने की आशंका है। बढ़ते तापमान के कारण हिमखंडों के पिघलने और टूटने से झीलों के आकार बड़े हो रहे हैं। इस बदलाव का कारण जलवायु परिवर्तन माना जा रहा है।

2005 में भू-स्खलन से पारछू झील टूट गई थी। नतीजतन, सतलुज का जलस्तर बढ़ा और उसने हिमाचल प्रदेश के किन्नौर और बिलासपुर जिलों में तबाही मचा दी थी। कुछ समय पहले गोमुख के विशाल हिमखंड का एक हिस्सा टूट कर भागीरथी नदी के उद्गम स्थल पर गिरा था। हालांकि इस तरह के जल प्रलय का संकेत चालीस साल पहले 'उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र' (यूसैक) के निदेशक एवं भूविज्ञानी एमपीएस विष्ट और वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान अपने शोध में दे चुके थे।

इस शोध के मुताबिक ऋषि गंगा अधिग्रहण क्षेत्र के आठ से अधिक हिमखंड सामान्य से अधिक रफ्तार से पिघल रहे हैं। जाहिर है, इनसे अधिक जल बहेगा, तो हिमखंडों के टूटने की घटनाएं बढ़ेंगी। यही नहीं, इन हिमखंडों से बहे पानी का दबाव अकेले ऋषि गंगा पर था। यही जल आगे जाकर धौलीगंगा, विष्णु गंगा, अलकनंदा और भागीरथी गंगा में प्रवाहित होता है। ये सब गंगा की सहायक नदियां हैं।

इसीलिए यूनेस्को ने भी इस पूरे क्षेत्र को संरक्षित घोषित किया हुआ है। यहां साढ़े छह हजार मीटर ऊंची हिमालय की चोटियां हैं। इन शिखरों पर जो हिमखंड हजारों साल की प्राकृतिक प्रक्रिया के चलते बनने के बाद टूटते हैं, तो अत्यंत घातक साबित होते हैं। 1970 से लेकर 2021 तक इस क्षेत्र में हुए अध्ययनों से पता चला है कि आठ हिमखंड बीते चालीस सालों में छब्बीस वर्ग किलोमीटर से ज्यादा पिघल चुके हैं। इन हिमखंडों का जो आकार चालीस साल पहले था, उसमें से दस प्रतिशत भाग अब तक पिघल चुका है।

ग्लेशियर वैज्ञानिक इन घटना की पृष्ठभूमि में कम बर्फबारी होने के साथ धरती का बढ़ा तापमान मानते हैं। सतलुज और नंदादेवी हिमखंडों के तेजी से पिघलने के पीछे भौगोलिक परिस्थितियां हैं। यहां का तापमान 0.5 डिग्री बढ़ चुका है और इस क्षेत्र में तीस प्रतिशत बारिश भी कम हो रही है। अगर धरती पर गर्मी इसी तरह बढ़ती रही और ग्लेशियर टूटते रहे तो इनका असर समुद्र का जलस्तर बढ़ने और नदियों के अस्तित्व पर पड़ना तय है। इससे कई लघु-द्वीप और समुद्रतटीय शहर डूबने लगेंगे।

हिमखंडों के टूटने की घटनाओं को वैज्ञानिक फिलहाल साधारण घटना मान कर चल रहे थे। उनका मानना था कि कम बर्फबारी होने और ज्यादा गर्मी पड़ने की वजह से हिमखंडों में दरारें पड़ गई थीं, इनमें बरसाती पानी भर जाने से हिमखंड टूटने लगे। उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग की आंच ने भी हिमखंडों को कमजोर करने का काम किया है। अगर शिलाओं पर कार्बन जमा रहता है तो भविष्य में नई बर्फ जमने की उम्मीद कम हो जाती है।

हिमखंडों का पिघलना नई बात नहीं है। शताब्दियों से प्राकृतिक रूप में हिमखंड पिघल कर नदियों की अविरल जलधारा बनते रहे हैं। मगर भूमंडलीकरण के बाद प्राकृतिक संपदा के दोहन पर आधारित औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता बढ़ा दी है। 1950 के दशक से ही इनका दायरा तीन से चार मीटर प्रति वर्ष घटना शुरू हो गया था। 1990 के बाद यह गति और तेज हो गई। इसके बाद से गंगोत्री के हिमखंड प्रत्येक वर्ष पांच से बीस मीटर की गति से पिघल रहे हैं। हिमखंडों के पिघलने और टूटने का यही सिलसिला बना रहा तो देश के पास ऐसा कोई उपाय नहीं है कि वह नदियों से जीवन-यापन कर रही पचास करोड़ आबादी को रोजगार और आजीविका के वैकल्पिक संसाधन दे सके।

बढ़ते तापमान के चलते अंटार्कटिका के भी हिमखंड टूट रहे हैं। इनके पिघलने और बर्फ के कम होने की खबरें निरंतर आ रही हैं। यूएस नेशनल एंड आइस डाटा सेंटर के उपग्रह के जरिए लिए चित्रों से ज्ञात हुआ है कि 1 जून, 2016 तक यहां 1.11 करोड़ वर्ग किमी क्षेत्र में बर्फ थी, जबकि 2015 में यहां औसतन 1.27 करोड़ वर्ग किमी क्षेत्र में बर्फ थी। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के आसपास के इलाकों को आर्कटिक कहा जाता है।

इस क्षेत्र में आर्कटिक महासागर, कनाडा का कुछ हिस्सा, डेनमार्क का ग्रीनलैंड, रूस का एक हिस्सा, संयुक्त राज्य अमेरिका का अलास्का, आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड शामिल हैं। भारत से यह इलाका 9,863 किमी दूर है। रूस के उत्तरी तट में समुद्री बर्फ लुप्त हो रही है। इस क्षेत्र में समुद्री गर्मी निरंतर बढ़ने से अनुमान लगाया जा रहा है कि कुछ सालों में यह बर्फ भी पूरी तरह खत्म हो जाएगी।

कैंब्रिज विश्वविद्यालय के पोलर ओशन फीजिक्स समूह के मुख्य प्राध्यापक पीटर वैडहैम्स का दावा है कि आर्कटिक क्षेत्र के केंद्रीय भाग और उत्तरी क्षेत्र में बर्फ अगले कुछ सालों में पूरी तरह गायब हो जाएगी। अभी तक आर्कटिक में नौ सौ घन किमी बर्फ पिघल चुकी है। वैज्ञानिक ब्रिटेन और अमेरिका में आ रही बाढ़ों का कारण इसी बर्फ का पिघलना मान रहे हैं। अगर यहां की बर्फ वाकई खत्म हो जाएगी, तो दुनिया भर में तापमान तेजी से बढ़ जाएगा। मौसम में कई तरह के आकस्मिक बदलाव होंगे।

बढ़ते तापमान को रोकना आसान नहीं है, बावजूद इसके हम अपने हिमखंडों को टूटने और पिघलने से बचाने के उपाय औद्योगिक गतिविधियों को विराम देकर एक हद तक कर सकते हैं। पर्यटन के रूप में बढ़ती आवाजाही पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। इसके अलावा हमारी सनातन ज्ञान परंपरा में हिमखंडों की सुरक्षा के उपलब्ध उपायों को भी महत्त्व देना होगा। हिमालय के शिखरों पर रहने वाले लोग आजादी के दो दशक बाद तक बरसात के समय छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर पानी रोकते थे। तापमान शून्य से नीचे जाने पर यह पानी जम कर बर्फ बन जाता था।

इसके बाद इस पानी के ऊपर नमक डाल कर जैविक कचरे से इसे ढक देते थे। इस प्रयोग से लंबे समय तक यह बर्फ जमी रहती थी और गर्मियों में इसी बर्फ से पेयजल की आपूर्ति होती थी। इस तकनीक को हम 'स्नो हार्वेस्टिंग' भी कह सकते हैं। हालांकि पृथ्वी के ध्रुवों में समुद्र के खारे पानी को बर्फ में बदलने की क्षमता प्राकृतिक रूप से होती है। बहरहाल, हिमखंडों के टूटने की घटनाओं को गंभीरता से लेने की जरूरत है। पहाड़ों को चीर कर बांध और सड़कों के चौड़ीकरण की प्रक्रिया को भी रोकना होगा। अन्यथा हिमखंडों और पहाड़ों का सब्र इसी तरह टूटता रहा, तो आपदाओं का सिलसिला बना रहेगा।


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