रार है, तकरार है , यह मजबूरी का 'प्यार' है

झारखंड में कांग्रेस जाग रही है? कांग्रेस ने बन्ना गुप्ता के उस बयान को गंभीरता से लिया है

Update: 2022-03-07 14:19 GMT
DR. Santosh Manav
झारखंड में कांग्रेस जाग रही है? कांग्रेस ने बन्ना गुप्ता के उस बयान को गंभीरता से लिया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि मुख्यमंत्री ही चाहते हैं कि झारखंड में कांग्रेस समाप्त हो जाए और कांग्रेस के वोटर जेएमएम में शिफ्ट हो जाएं? नए प्रभारी के आने से कांग्रेस की जड़ता टूट रही है? या कांग्रेस-जेएमएम में युद्ध का आगाज हो गया है? ये कुछ सवाल हैं, जो दुमका में कांग्रेस के आयोजन – संवाद को लेकर पूछे जाने चाहिए या कहिए कि पूछे जा रहे हैं.
यह सम्मेलन कुछ कहता है: सम्मेलन-संवाद राजनीतिक प्रक्रिया में सामान्य बात है. सभी राजनीतिक दल समय-समय पर यह सब करते हैं. लेकिन, कांग्रेस के दुमका संवाद के मायने हैं. दुमका मुख्यमंत्री और उनके पिता का चुनाव क्षेत्र रहा है. अभी उनके अनुज बसंत सोरेन वहां से विधायक हैं. इसलिए गठबंधन सरकार में होने के बावजूद मुख्यमंत्री के 'घर' में सम्मेलन करना व उसमें प्रदेश के तमाम वरिष्ठ नेताओं के साथ प्रदेश प्रभारी का शामिल होना कुछ कहता है. क्या कहता है?
हम भी जिगर रखते हैं : कहता है कि यह कार्यकर्ताओं को सक्रिय रखना या कहें कि पार्टी का प्रचार-प्रसार भर नहीं है. यह सीएम को संदेश है कि हम भी जिगर रखते हैं. हम भी राजनीति का चाल-चलन समझते हैं. हम समझ रहे हैं कि बन्ना ने जो कहा, वह बेमतलब नहीं है. आप हमारा बेड़ागर्क करना चाहेंगे, तो हम भी जवाब देंगे. और जवाब देने की कोशिश है- कांग्रेस का दुमका संवाद. पहले प्रदेश भर के नेताओं का गिरिडीह के मधुबन में जुटान. फिर प्रमंडलीय सम्मेलन, दुमका में हुआ, अब जमशेदपुर, हजारीबाग, डाल्टेनगंज, रांची की तैयारी है.
बोल-वचन से समझिए : कांग्रेस की तैयारी इसके नेताओं के बोल-वचन से समझिए. मधुबन में प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे ने कहा था कि झामुमो से फिर गठबंधन हो सकता है पर यह किसी लाचारी में नहीं होगा और दुमका में उन्होंने दो टूक कहा-गठबंधन तोड़ना ही एक मार्ग नहीं, लेकिन जिस दिन अपने आप में ऐसा महसूस होगा कि हम स्वतंत्र रूप से झारखंड में कांग्रेस की विचारधारा के साथ जनता का विश्वास हासिल कर सकते हैं, तो उस दिन कोई रोक भी नहीं पाएगा. यानी यह मजबूरी का गठबंधन है. अलग होने में नुकसान है. इसलिए अपनी ताकत बढाओ. लोगों को जोड़ो. कार्यक्रम लेकर जनता के बीच जाओ. इसलिए जो अति उत्साही थे, वे नरम होंगे. जेएमएम से कांग्रेस की तीखी- मीठी तकरार जारी रहेगी. शह-मात चलता रहेगा. पर न गठबंधन टूटना है और न सरकार डगमगाएगी.
एक-दूसरे की मजबूरी : झारखंड बने 22 साल हो गए. कांग्रेस सत्ता तो दूर, सत्ता के करीब भी नहीं आ पाई. और निकट भविष्य में कोई उम्मीद भी नहीं. यही हाल झामुमो का है. झारखंड में खुद के बूते उनकी ताकत 15-17 सीटों की है. खुद के दम पर उनका बेहतरीन प्रदर्शन 19 रहा है. आज तीस सीटें जेएमएम के पास है, तो उसमें कांग्रेस से गठबंधन का योगदान है. यही हाल कांग्रेस का भी है, खुद के बूते लड़ते तो 8-10 पर सिमटते. आज 81 में से 16 सीटों पर उनके विधायक हैं. मतलब समझिए, दोनों एक-दूसरे की मजबूरी हैं.
यह बेचैनी टिकती क्यों नहीं : जेएमएम ने जिस तरह खुद को गढ़ा है, वैसे में खुद के दम पर उसका सत्ता में आना असंभव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है. कह सकते हैं कि चमत्कार की तरह. शिबू सोरेन की एक लाइन थी. हेमंत में वह बात नहीं है. वह यदा-कदा लाइन तोड़ते या कहें कि उनमें खुद के दम पर सत्ता पाने की बेचैनी दिखती है पर यह बेचैनी देर तक नहीं रह पाती. ऐसे भी कह सकते हैं कि कुछ-कुछ झारखंड की भौगोलिक और सामाजिक तानाबाना का असर है, जो हेमंत सोरेन की बेचैनी को बने नहीं रहने देती और हेमंत सोरेन जैसे प्रोग्रेसिव राजनीतिक मियां-महतो-मांझी की लाइन पर आ जाते हैं.
सामाजिक-सांस्कृतिक तानाबाना : झारखंड का सामाजिक और भौगोलिक तानाबाना समझिए. पांच प्रमंडल और पांचों का सामाजिक-सांस्कृतिक तानाबाना भिन्न है. संथाल परगना के छह जिले-दुमका, गोड्डा, साहेबगंज, पाकुड़, देवघर, जामताड़ा का मिजाज अलग. सामाजिक बनावट झामुमो के अनुकूल. कोलहान के तीन जिले-पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम और सरायकेला-खरसावां . इसमें जमशेदपुर शहर को छोड़ दें, तो पूरा इलाका झामुमो के अनुकूल. बाकी तीन प्रमंंडल जेएमएम के अनुकूल नहीं है. और यह 2019 के चुनाव परिणाम से भी साफ होता है. जेएमएम के तीस में से 21 विधायक कोलहान और संथाल प्रमंडल से . शेष तीन प्रमंंडल से नौ विधायक.
चलेंगे साथ मिलकर : कोलहान और संथाल बीजेपी के प्रतिकूल नहीं है, पर दिक्कतें हजार हैं. पलामू, उत्तरी छोटानागपुर और दक्षिणी छोटानागपुर बीजेपी के अनुकूल है. बीजेपी के 26 में से 22 विधायक इन तीन प्रमंडलों से हैं. दुमका प्रमंंडल में वह 4 सीटें जीती और 14 सीटों वाले कोलहान में शून्य. और विस्तार से समझिए. सात जिलों-चतरा, हजारीबाग, गिरिडीह, कोडरमा, धनबाद, बोकारो, रामगढ़ में बीजेपी की 12 सीटें हैं, तो जेएमएम की चार. गढ़वा, पलामू और लातेहार तीन जिलों वाले पलामू प्रमंडल में बीजेपी की पांच सीटें हैं, तो जेएमएम की दो. दोनों कांग्रेस से गठबंधन के कारण है, नहीं तो शून्य होता. रांची, लोहरदग्गा, गुमला, सिमडेगा और खूंटी यानी पांच जिलों वाले दक्षिणी छोटानागपुर में कांग्रेस-जेएमएम गठबंधन के कारण बीजेपी 5, जेएमएम 4 और कांग्रेस को 5 सीटें मिली. गठबंधन नहीं होता, तो बीजेपी का पलड़ा भारी होता. साफ है कि कांग्रेस और जेएमएम को सत्ता के लिए एक दूसरे का साथ चाहिए. अकेले दम पर लड़े तो विपक्ष में ही बैठना होगा. यह बात दोनों बखूबी समझते हैं. यही कारण है कि तमाम रार-तकरार के बावजूद गठबंधन बना रहेगा.
तीन सामाजिक कोण : झारखंड की राजनीति के तीन सामाजिक कोण हैं-आदिवासी, सदान और पिछले सौ-पचास साल में झारखंड में बसे लोग, जिसे शिबू सोरेन दीकू कहते थे. दीकू मतलब प्रवासी या बाहरी. झारखंड में इनकी आबादी अब चालीस फिसदी के पार है. सवा तीन करोड़ की आबादी में डेढ़ करोड़ से कुछ ही कम. दूसरा आदिवासी और तीसरा सदान यानी गैर आदिवासी पर स्थानीय. 24 फीसद आदिवासी और 35-36 फिसदी सदान. लेकिन, झारखंड में सक्रिय राजनीतिक दलों ने और बंटवारा कर लिया. कैसा है यह बंटवारा ?
बांटों और राज करो : बीजेपी खुले तौर पर कुछ भी कहे, लेकिन वह 14 फीसदी मुसलमानों को माइनस करके चलती है. कांग्रेस सर्वसमावेशी है पर वह नेतृत्व का मौका अधिकतर आदिवासियों को देती है. जेएमएम का आधार आदिवासी हैं पर वहां 19 फिरके हैं. तीन बड़े समूह यानी संथाल, उरांव और मुंडा को एक दूसरे का नेतृत्व नहीं भाता. हेमंत संथाल हैं यही उनकी सबसे बड़ी परेशानी है. राजद बिहार से सटे इलाकों की 7-9 सीटों पर धमक रखती है. लेकिन, तमाम किंतु-परंतु के बावजूद राजद का झारखंड की पार्टी बनना कठिन है. वामपंथी हाशिए पर हैं. गिरिडीह जिले के बगोदर से CPI-ML के विनोद सिंह जरूर जीते हैं, लेकिन यह महेंद्र सिंह की 'पुण्य कमाई' ज्यादा है. आजसू वाले कुछ भी कहें पर सच यही है कि वह महतो वोटर्स की ठेकेदार बनना चाहती है. दो-तीन सीतें जीतना और सत्ता की मलाई खाना. आजसू ने निकट के लोगों से कह दिया है कि अगला चुनाव बीजेपी के साथ ही लड़ेंगे. 2019 वाली गलती नहीं करेंगे. भाषा विवाद खड़ा करना आजसू की उसी रणनीति का हिस्सा है.
बन्ना की बंशी : चाहे अविनाश पांडे बोलें या बन्ना बंशी बजाएं. कांग्रेस-जेएमएम गठबंधन दोनों की मजबूरी है. तमाम रार-तकरार के बावजूद सरकार चलती जाएगी और यह बात हेमंत भी जानते हैं. सो, बन्ना के प्रहार पर वे मुस्कराते हैं. राजनीति के चतुर खिलाड़ी जो ठहरे—-?
{ लेखक दैनिक भास्कर सहित अनेक अखबारों के संपादक रहे हैं. फिलहाल लगातार मीडिया से बतौर स्थानीय संपादक जुड़े हैं }
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