आसमान बुझता ही नहीं, और दरिया रौशन रहता था; आखिर क्यों देवभूमि विचलित हो उठी है, क्यों बादल फटने लगे?
आखिर क्यों देवभूमि विचलित हो उठी है, क्यों बादल फटने लगे
नवनीत गुर्जर समतल पर पैदा होने वाले, पठारों में रहने वाले लोगों का पहाड़ों ने हमेशा स्वागत किया है। वर्षों से स्वागत करते रहे हैं। ये पहाड़ हमारे लिए धुली बर्फ के नम्दे डालकर आसन बिछाते हैं। ढलानों पर बहुत से जंगलों के खेमेे खींचते हैं। तनाबें बांध रखते हैं देवदार के मजबूत पेड़ों से। अपने हाथों से काढ़े हुए, पलाश और गुलमोहर के तकिए लगाते हैं। हमारे रास्ते में छांव छिड़कते हैं।
बादल धुन्ते रहते हैं, फिर भी वादियां खाली नहीं होतीं। इतनी उदारता, इतना स्वागत, इतना नेह अब कहां चला गया? क्यों वे देवदार के पत्ते तलवार बन गए? क्यों वह नरम बर्फ नुकीली हो गई? आखिर क्यों देवभूमि विचलित हो उठी है? क्यों बादल फटने लगे? क्यों मनुष्य मरने लगे? क्यों?
वैसे कोहरे में लिपटी, सिमटी हुई इन वादियों को पूरे बरस नज़ला रहता है। बर्फ पड़े तो नाक जम जाती है। धूप पड़े तो फिर बहने लगती है। पतझड़ में भी छींकों की झड़ी सी लगी रहती है। छींटे उड़ते रहते हैं। बरस भर सुडक-सुडक करती रहती हैं। लेकिन इस तरह का भयानक दौर कम ही देखा है। मनुष्यों को चपेट में लेकर बहा ले जाना, मार देना, पता तक नहीं लगने देना, पहाड़ों की ऐसी फ़ितरत कभी नहीं रही। पहाड़ ऐसे कभी नहीं थे!
दरअसल, हम मनुष्यों ने, ख़ासकर समतल, पठारों वालों ने अपने लालच के कारण पहाड़ों को गुस्सा दिलाया है। …और दिन-ब-दिन उनके गुस्से को बढ़ाया भी है। कभी उनके सिर पर कुल्हाड़े चलाए। लगातार चलाते जा रहे। कभी उनकी छाती में खंजर घोंपे, लगातार घोंपे जा रहे हैं। उनके पैर जिन्हें धो-धोकर पीना था, पीते रहना था, हम काट- काटकर खा गए। बेच भी डाले! गलियों, पगडंडियों में उन्होंने जो छांव छिड़क रखी थी, हम पूरी की पूरी घोलकर पी गए।
गुस्सा तो आएगा! मनुष्यों का गुस्सा जब महाभारत जैसे युद्ध करवा देता है तो वे तो पहाड़ हैं। उनका धैर्य जितना बड़ा और विशाल होता है, गुस्सा भी उतना ही भयंकर और विकराल होना लाज़िमी है। आखिर, लगभग आधी सदी से भी ज्यादा समय से हम यही सब तो कर रहे हैं। कभी विकास के नाम पर, कभी लालच के वशीभूत होकर, पेड़ों को काट रहे हैं। पहाड़ों को छील रहे हैं।
उन्हें समतल बनाने से भी नहीं चूक रहे हैं। पहाड़ों का अस्तित्व मिटाने जाएंगे तो क्या-क्या भुगतना पड़ सकता है, इसका एहसास तो होना ही चाहिए! अफसोस इस बात का है कि हमें यह सब करते हुए एहसास तक नहीं होता कि यह ठीक है या नहीं? इसके परिणाम भयंकर होंगे या प्रलयकारी? जिस दिन समतल वालों को पहाड़ों, नदियों के दर्द का एहसास हो जाएगा, सबकुछ ठीक हो जाएगा। वरना न नदियां रहेंगी, न पहाड़ बचेंगे। आने वाली पीढ़ियां फिर किताबों और उनमें वर्णित कहानियों में ही पढ़ेंगी- कि रात पहाड़ों पर कुछ और ही होती थी…। आसमान बुझता ही नहीं और दरिया रौशन रहता था…!
लगभग आधी सदी से भी ज्यादा समय से हम कभी विकास के नाम पर, कभी लालच के वशीभूत होकर, पेड़ों को काट रहे हैं। पहाड़ों को छील रहे हैं। उन्हें समतल बनाने से भी नहीं चूक रहे हैं।