यदि हम उन्नति के उन कुछ आयामों पर नज़र डालें तो सहज ही मानव की इस विकास यात्रा के उन महान शिल्पियों के अमूल्य योगदान को आंक सकेंगे। पहिए का आविष्कार व ''न्यूटन'' द्वारा ''गुरुत्वाकर्षण नियम'' की खोज मानव की गति को पंख देने वाले थे, जिससे बाद में रथ, मोटर, कार, रेलगाड़ी, हवाई जहाज़ व स्पेस शटल जैसे अंतरिक्ष यान बने। छापेखाने का आविष्कार आज के डिजिटल युग का संदेशवाहक था। कहां तक नाम गिनाएं- फ्लश-टॉयलैट ने खुले में शौच से मुक्ति दी, यांत्रिक तालों से आज हम कम्प्यूटर से खुलने वाले दरवाज़ों पर आ गए हैं। मानव की शल्यक्रिया में अपरिहार्य ''डा. वीलियम मौर्टन'' द्वारा खोजी गई निश्चेतन विधि (एनिसथीसिया) ने क्रांति लाई, वरना पहले असह्य वेदना से गुज़रना पड़ता था। ''एडवर्ड जैनर'' के टीकाकरण ने कई घातक बीमारियों से मानवता को बचाया। बीसवीं सदी में पोलियो ने लाखों बच्चों को स्थायी रूप से अपंग कर उनका सारा जीवन अभिशप्त कर दिया। 1950-60 के दशकों में असरदार टीके विकसित हुए। हमारे जैसे विकासशील देश में इसे एक बड़ी समस्या के रूप में पहचाना गया, तो रोग प्रतिरक्षा कार्यक्रम शुरू किए गए। साल 2012 तक भारत पोलियो ग्रस्त देशों की सूची से बाहर निकल आया था।
छोटी-छोटी चीज़ें हैं, जिनकी ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो, परंतु ग़ौर से देखें तो पाएंगे कि मनुष्य के जीवन को आसान बनाने में इनका कितना योगदान है- जैसे सूई, कैंची, छाता, पेचकस, पुली, ईंट, पनचक्की, हल, विंडमिल, चुंबकीय कम्पांस (जो समुद्री नाविकों व जहाज़ों को दिशा ज्ञान कराती है), गोंद, बटन, सिलाई मशीन, पैन, साबुन, सोल्डरिंग, शीशा, टैलीविजन, पटाखे, चश्मे, घड़ी, गर्भ-निरोधक उपाय, प्रेशर-कुकर, कपड़ा बनाने के लिए हथकरघे में प्रयोग होने वाला ''फ्लाई शटल'', गणना यंत्र (कैलकुलेटर) आदि। जब ''पैडमैन फिल्म'' पर्दे पर आई, तब अधिकतर लोगों को ''सैनिटरी नैपकिन'' न होने से खासकर ग्रामीण इलाकों में औरतों की असह्य वेदना का एहसास हुआ। आई.सी. (इटेंग्रेटिड सर्किट) व ''प्रोसैसर'' विकसित होने से ''कम्प्यूटर क्रांति'' को पंख लगे। सोचिए, अगर आदिमानव ने पत्थर के औज़ार न बनाए होते तो आज अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों का आविष्कार न हो पाता। एक छोटी सी माचिस की तीली पर ''फास्फोरस सैसक्विसल्फाइड'' लगाने से अनियंत्रित अग्नि को मानव ने अपनी मुट्ठी में, अपनी जेब में कर लिया। अचानक फलों व पानी का मिश्रण धूप में रखे-रखे जब फरमैंट हो गया, तब ''वाइन'' की खोज हुई। उस सुरा का आनंद कब से मानव उठा रहा है। ''बैंजामिन फ्रैंकलिन'' द्वारा खोजी व पानी, कोयले, अणु व वायु में निहित विद्युत ऊर्जा से बिजली बनना अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं था। आज सारे संसार की जगमग, टी.वी., फ्रिज, पंखे, कम्प्यूटर, ए.सी., माइक्रोवेव, वाशिंग मशीन, डिश-वाशर, बड़ी-बड़ी औद्योगिक मशीनों, रेलों का परिचालन सब इसी बिजली पर आश्रित है, किसी दिन शट-डाउन के कारण जब घरों में, दफ्तरों में वाणिज्यिक संस्थानों में या कारखानों में बिजली नहीं होती तो जीवन मानों थम सा जाता है। आज जीवन की कल्पना बिजली के बिना नहीं की जा सकती। ''वैश्विक स्थान-निर्धारण प्रणाली'' यानी ''ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम'' (जी.पी.एस.) आज मानव इतिहास की सबसे बड़ी खोजों में गिनी जाती है। आज समस्त परिवहन प्रणाली, एक जगह से किसी अनजान जगह पर पहुंचने के लिए इसका उपयोग करती है। ये ''ओला'' व ''ऊबर'' जैसी सुविधाएं बिना जी.पी.एस. के कभी संभव नहीं हो पाती।
नक्शा बनाने, ज़मीन का सर्वेक्षण करने, वाणिज्यिक कार्य, वैज्ञानिक प्रयोग, सर्विलैंस और ट्रैकिंग करने व जियो कैचिंग बिना जी.पी.एस. के संभव नहीं हो सकती। छोटी-छोटी खोजांे व आविष्कारों ने आज मानव जीवन को और बेहतर बनाने में अमूल्य योगदान दिया है। वैसे देखा जाए तो एक मानव की हस्ती, इस पृथ्वी ग्रह में बहुत छोटी है, और जब हम पृथ्वी, सौर प्रणाली, आकाशगंगा और असंख्य आकाश गंगाओं से मानव के अस्तित्व की तुलना करें तो उसका अस्तित्व लगभग नगण्य हो जाता है, परंतु इसी मानव ने अपनी वैज्ञानिक प्रतिभा और कौशल से आज चांद-तारों की गति को अपने वश में कर लिया है। परंतु देखिए! कितना विरोधाभास है कि अधिकतर प्रशंसा व सम्मान ऐसे क्षेत्रों के व्यक्तियों को दिए जाते हैं, जो अपने व्यवसाय/क्षेत्र में अरबों-खरबों कमाते हैं, सभी उपलब्ध सुविधाओं से राजसी जीवन जीते हैं तथा आम आदमी के सुख-दुख से भी ज्यादा सरोकार नहीं रखते, पर समाज के भाग्य विधाता बन बैठे हैं। परंतु गहराई से यदि चिंतन किया जाए तो वास्तव में मानवता के उत्थान व विकास में इनका योगदान न के बराबर है। आम व्यक्ति फिल्मी हीरो, क्रिकेट खिलाडि़यों आदि को ही अपना असली नायक मानता है, वह अनभिज्ञ है कि जिस आराम की जि़ंदगी वह जी रहा है, उसके पीछे जिन वैज्ञानिकों, खोजकर्ताओं इंजीनियरों, डॉक्टरों, तकनीशियनों व वास्तुकारों का हाथ है, उनके विषय में कितने लोग जानते हैं और कितने इनके योगदान को स्वीकारते हैं। वास्तविक प्रशंसा, शाबाशी, पुरस्कार ऐसे व्यक्तियों के नाम होने चाहिए जो स्वयं कठिनाइयों व गुमनामी में रहते हुए भी मानवता को खुशहाल बनाने के प्रयास करते रहे।
संजय शर्मा
लेखक शिमला से हैं