आर्थिक विषमता की वजह आर्थिक सुधार नहीं, बल्कि कराधान की नीतियां
आर्थिक विषमता की वजह आर्थिक सुधार
शिवकांत शर्मा। भारत इस समय दो विकट समस्याओं से जूझ रहा है-महंगाई और आर्थिक विषमता। महंगाई का मुख्य कारण पेट्रोल-डीजल के दामों में हुई 39.81 प्रतिशत की वृद्धि और खाने-पीने की चीजों का 4.88 प्रतिशत महंगा होना है। विश्व विषमता रिपोर्ट का कहना है कि देश के चोटी के दस प्रतिशत अमीरों की संपत्ति बाकी दुनिया के दस प्रतिशत अमीरों से भी तेज गति से बढ़ी है। जबकि आबादी के लगभग आधे गरीबों की आमदनी बाकी दुनिया के गरीबों की तुलना में और तेजी से गिरी है। आखिर आर्थिक विषमता और महंगाई की दवा क्या है? हमें समस्या की जड़ों तक जाना होगा। विषमता रिपोर्ट के लेखकों का मानना है कि दुनिया में बढ़ती आर्थिक विषमता की जड़ पिछली सदी के नौवें दशक में शुरू हुई थैचर और रेगनवादी उदारीकरण और मुक्त बाजार की नीतियां हैं, लेकिन ध्यान से देखें तो जिन देशों ने आर्थिक सुधार नहीं किए वहां अमीर हों या गरीब, सबकी बदहाली हुई।
वेनेजुएला और उत्तरी कोरिया इसके उदाहरण हैं। इसके विपरीत चीन में आर्थिक सुधार हुए और उनकी बदौलत आर्थिक विषमता के साथ-साथ गरीबी भी तेजी से घटी। वियतनाम में भी यही हुआ। आर्थिक सुधार तो यूरोप और कनाडा में भी हुए, लेकिन वहां भारत, अमेरिका और चीन जितनी आर्थिक विषमता पैदा नहीं हुई।
आर्थिक विषमता की वजह आर्थिक सुधार नहीं, बल्कि कराधान की नीतियां हैं। आर्थिक उदारीकरण से तो नए-नए उद्योग-धंधे शुरू होते हैं। इससे जीडीपी बढ़ती है। लोगों की आमदनी बढ़ती है। करोड़ों लोग टैक्स देने वालों की श्रेणी में आ जाते हैं और सरकारी राजस्व का अनुपात बढ़ता है। बढ़ते राजस्व के प्रयोग से गरीबों का जीवन बेहतर बनाने और आर्थिक विषमता दूर करने में मदद मिलती है। लगभग हर विकसित देश के विकास की यही कहानी है, लेकिन भारत में आर्थिक सुधारों से पहले यानी 1990 में प्रति रुपया जीडीपी पर 16 पैसे राजस्व मिलता था। आज 31 साल बाद भी राजस्व का प्रतिशत लगभग वही है। चीन में आर्थिक उदारीकरण से पहले जीडीपी के हर 100 युआन पर केवल 16 युआन राजस्व मिलता था। आज वह बढ़कर 25 युआन हो चुका है। रूस में जीडीपी के हर 100 रूबल पर 31 रूबल राजस्व लिया जाता है। अमेरिका में राजस्व का प्रतिशत 27 है, ब्रिटेन में 33 और फ्रांस में 46 है। जो देश अपनी जीडीपी पर जितना ज्यादा राजस्व इकट्ठा करता है, वह अपने विकास और सामाजिक कार्यो पर उतना ही अधिक खर्च कर पाता है। इसीलिए जीडीपी और राजस्व के अनुपात को विकास का पैमाना भी माना जाता है।
भारत का जीडीपी-राजस्व अनुपात जस का तस रहने के दो बड़े कारण हैं। पहला यह कि पिछले तीस वर्षों में आयकर जैसे प्रत्यक्ष कर देने वालों की संख्या में बहुत कम वृद्धि हुई है। आर्थिक विकास की बदौलत भारत का मध्यवर्ग तेजी से बढ़ रहा है। 25 करोड़ से अधिक लोग मध्य आयवर्ग में आ चुके हैं। दुनिया भर की कंपनियां इस मध्यवर्ग के लिए कारें, एयर कंडीशनर, फ्रिज आदि बना रही हैं, लेकिन जब प्रत्यक्ष कर देने वालों का आंकड़ा देखते हैं तो यह संख्या न जाने कहां गायब हो जाती है? 138 करोड़ लोगों के देश में प्रत्यक्ष कर देने वालों की संख्या 2.5 करोड़ यानी कुल आबादी के दो प्रतिशत से भी कम है। अमेरिका में लगभग 43 प्रतिशत लोग प्रत्यक्ष कर देते हैं। ब्रिटेन में यह लगभग 56 है, रूस में 33 और ब्राजील में करीब आठ।
सामाजिक सुरक्षा कर लगभग हर विकसित देश में मौजूद है, जिसकी दरें 10-12 प्रतिशत होती हैं। इसी के सहारे शिक्षा, स्वास्थ्य, पेंशन और बेरोजगारी भत्ते जैसी सुविधाएं मिलती हैं, लेकिन भारत में न तो सामाजिक सुरक्षा के लिए कोई कर है और न ही वे सब आयकर दे रहे हैं, जिन्हें देना चाहिए। इसकी एक वजह यह है कि तमाम कारोबार और सेवाएं नकद लेन-देन पर चलती हैं। इसके चलते खर्चो पर टैक्स लगा कर राजस्व उगाहना पड़ता है। ऐसे टैक्स को परोक्ष कर कहते हैं जैसे- जीएसटी और पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले शुल्क। आमदनी पर लगने वाले टैक्स लोगों की हैसियत के आधार पर लगते हैं, जबकि खर्च पर लगने वाले टैक्स सभी पर समान रूप से लगते हैं। इनकी सबसे बुरी मार कमजोर वर्गों पर पड़ती है। इसलिए इन्हें प्रतिगामी कर भी कहते हैं। परोक्ष कर महंगाई भी बढ़ाते हैं।
केंद्र सरकार ने अपने शुल्क में कटौती करके महंगाई से राहत देने की कोशिश जरूर की, लेकिन केंद्र और राज्य पेट्रोल-डीजल के शुल्क और जीएसटी से मिलने वाले राजस्व पर इतना निर्भर हैं कि वे चाह कर भी आर्थिक विषमता से जूझते गरीबों को महंगाई की मार से नहीं बचा सकते। यदि सरकार को प्रत्यक्ष करों से पर्याप्त राजस्व मिलने लगे तो वह तेल के शुल्क और जीएसटी की दरों का प्रयोग महंगाई पर अंकुश लगाने में कर सकती है। इस समय भारत के कुल राजस्व का 25.3 प्रतिशत आयकर से, 24.7 कारपोरेट कर से और शेष आधा जीएसटी, ईंधन शुल्क और दूसरे शुल्कों से मिलता है।
भारत का राष्ट्रीय कर्ज जीडीपी के 74 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। संयत सीमा से अधिक कर्ज लेकर बजट घाटा बढ़ाने से रुपये का अवमूल्यन होने का खतरा है। बजट पर ध्यान दें तो हर रुपये में से 24 पैसे इस कर्ज को चुकाने में जा रहे हैं। रक्षा, कृषि, पेंशन, शिक्षा और स्वास्थ्य पर जितना खर्च होता है, उतना अकेले कर्ज का ब्याज चुकाने पर हो रहा है। इसे कम करने का एक उपाय यह है कि हम सार्वजनिक उपक्रमों को बेच दें और उनसे मिलने वाले धन से जितना संभव हो राष्ट्रीय कर्ज घटा लें। दूसरा उपाय यह है कि बाकी देशों की तरह हम भी खर्च के बजाय आमदनी पर टैक्स देना सीख लें। इसके बिना आर्थिक विषमता और महंगाई दोनों पर काबू कर पाने की और कोई सूरत नहीं दिखती।
भारत में 200 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति वाले लोगों और कंपनियों की संख्या छह हजार है। 2.5 लाख लोग ही ऐसे हैं, जिनकी संपत्ति 7.5 करोड़ रुपये से अधिक है। सरचार्ज को मिला कर इनसे 67 प्रतिशत आयकर लिया जाता है, जो सबसे ऊंची दरों में से एक है। इनकी दरों को और बढ़ाने के उलटे नतीजे होंगे। अर्थतंत्र को समझे बिना उद्यम और कारोबार विरोधी माहौल पैदा करना देश में विकास और निवेश के लिए संकट भी खड़ा कर सकता है।
(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक हैं)