न्याय व्यवस्था में सुधार की जरूरत: कानून बनाना ही समस्या का समाधान नहीं है, क्रियान्वयन होना भी जरूरी है

देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने पिछले दिनों न्याय व्ययवस्था को जीर्ण-शीर्ण बताते हुए यह भी

Update: 2021-03-11 11:53 GMT

देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने पिछले दिनों न्याय व्ययवस्था को जीर्ण-शीर्ण बताते हुए यह भी कहा था कि जो व्यक्ति न्याय की आस में न्यायालय जाता है, वह अपने निर्णय पर प्राय: पश्चाताप करता है। न्याय व्यवस्था के शीर्ष पर रहे व्यक्ति का यह बयान चिंताजनक है। गोगोई मुख्य न्यायाधीश रहते हुए खुद न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की निर्णायक पहल कर सकते थे, लेकिन इस पहल का इंतजार ही होता रहा। उन्होंने राज्यसभा में अपने मनोनयन को स्वीकार कर न्याय-व्यवस्था की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता को प्रश्नांकित किया। हाल में अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस ने जिन कारणों से भारत की न्यायिक स्वतंत्रता पर सवाल खड़ा किया, उनमें रंजन गोगोई का राज्यसभा सदस्य बनना भी है। हालांकि वह कोई अपवाद नहीं। सेवानिवृत्ति उपरांत न्यायमूर्तियों की इस प्रकार की नियुक्तियां पहले भी होती रही हैं। एमसी छागला, बहरुल इस्लाम, रंगनाथ मिश्र, कोका सुब्बाराव, फातिमा बीवी, रमा जोइस, गोपाल स्वरूप पाठक और सतशिवम जैसे कुछ चुनिंदा उदाहरण हैं।

सेवानिवृत्ति के बाद न्यायमूर्तियों की पुनर्वास की आस न्यायपालिका की आजादी को प्रभावित करती है
सेवानिवृत्ति के बाद न्यायमूर्तियों की पुनर्वास की आस न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करती है। उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति एमसी सीतलवाड की अध्यक्षता वाले पहले विधि आयोग ने 1958 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकार द्वारा प्रदत्त कोई पद स्वीकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे न्यायपालिका की निष्पक्षता प्रभावित होती है। दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि खुद एमसी सीतलवाड ने ही इस नियम को ताक पर रखकर सरकार का कृपापात्र बनना स्वीकार किया। सेवानिवृत्ति के बाद वह राजदूत, उच्चायुक्त और केंद्रीय मंत्री तक बने।
न्यायिक नियुक्तियों में देरी
तबसे लेकर आज तक सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी पद स्वीकारने से पहले न्यायाधीशों के लिए 'कूलिंग ऑफ पीरियड' की अनिवार्यता पर बहस चली आ रही है। न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद विभिन्न आयोगों, अधिकरणों, समितियों आदि में कोई न कोई पद स्वीकार करके न्यायपालिका के सम्मान से समझौता ही करते हैं। एक अन्य समस्या न्यायिक नियुक्तियों में होने वाली देरी है। रिक्तियां होने के बावजूद उच्चतम न्यायालय में सितंबर, 2019 के बाद से कोई नई नियुक्ति नहीं हुई है। विभिन्न उच्च न्यायालयों में 400 से अधिक रिक्तियां हैं, किंतु वहां भी न्यायाधीशों की नियुक्ति की दिशा में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं की गई। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता वाला कोलेजियम उनके अब तक के लगभग 14 माह के कार्यकाल में कोई नियुक्ति नहीं कर सका है।
न्यायिक नियुक्तियों में सरकार और न्यायपालिका का टकराव
यह न्यायिक नियुक्तियों की जटिल एवं अपारदर्शी प्रक्रिया वाली कोलेजियम व्यवस्था का परिणाम है। इसमें सरकार और न्यायपालिका का टकराव भी एक कारण है। यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब निचली अदालतों में करीब 3.8 करोड़ और उच्च न्यायालयों में 57 लाख से अधिक तथा उच्चतम न्यायालय में एक लाख से अधिक मामले लंबित हैं। उच्चतर न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद की शिकायतें भी आम हो गई हैं।
न्यायाधीशों का चयन उच्चतम न्यायालय के तीन वरिष्ठतम जजों का कोलेजियम करता है
न्यायाधीशों का चयन उच्चतम न्यायालय के तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों का कोलेजियम करता है। यह व्यवस्था अत्यंत गोपनीय है। इस पर पारदर्शिता, जवाबदेही के अभाव और पेशेवर योग्यता की उपेक्षा के आरोप गाहे-बगाहे लगते रहते हैं। इसीलिए भारत सरकार ने न्याय-व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित करने की पहल की थी। उच्चतम न्यायालय ने अपनी सुप्रीम शक्ति का प्रयोग करते हुए इस पहल की भ्रूणहत्या कर डाली।
कानून बनाना ही समस्या का समाधान नहीं है, क्रियान्वयन होना भी जरूरी है
कानून बनाना ही समस्या का समाधान नहीं है, कानूनों पर उनकी भावना के अनुरूप समयबद्ध क्रियान्वयन भी जरूरी है। ऐसा न होने से न्याय-व्यवस्था जैसी संस्थाओं के प्रति समाज के विश्वास की नींव हिलने लगती है। भारत में न्याय की प्रतीक्षा कभी न खत्म होने वाली प्रतीक्षा है। अपराधी से ज्यादा मानसिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण उत्पीड़ित का होता है। दीवानी मामलों को तो छोड़ ही दीजिए, अब तो फौजदारी मामलों के निपटारे में भी पीढ़ियां गुजर जाती हैं। समस्या यह है कि बदलाव या सुधार के लिए कहीं कोई आत्ममंथन करता नहीं दिखता।
न्याय व्यवस्था अभी तक औपनिवेशिक शिकंजे में जकड़ी हुई है
हमारी न्याय व्यवस्था अभी तक औपनिवेशिक शिकंजे में जकड़ी हुई है। उच्चतर न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी है तो अधिकांश निचली अदालतों की कार्रवाई और पुलिस विवेचना की भाषा उर्दू है। वह आम आदमी के पल्ले नहीं पड़ती। समय आ गया है कि यह सब आम आदमी की भाषा में हों। वर्षों-वर्ष चलने वाले मुकदमों का खर्च भी बहुत ज्यादा है। इसलिए निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक समस्त न्यायालयों को दो पालियों में चलाने का प्रविधान किया जाना चाहिए। नए न्यायालय भी स्थापित किए जाने चाहिए। सरकारी विद्यालयों में दूसरी पाली में न्यायालय चलाए जाने चाहिए, ताकि न्यूनतम अतिरिक्त खर्च में काम प्रारंभ किया जा सके। न केवल न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरा जाना चाहिए, बल्कि जनसंख्या और लंबित मामलों का संज्ञान लेते हुए न्यायिक र्किमयों की नियुक्ति भी की जानी चाहिए।
न्याय व्यवस्था में सुधार की जरूरत
निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक किसी भी मामले के निपटारे के लिए नियत अवधि और अधिकतम तारीखों की संख्या तय होनी चाहिए। तकनीक का प्रयोग बढ़ाने और पुलिस द्वारा की जाने वाली विवेचना में भी सुधार जरूरी है। एक सक्षम न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन करके इन समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। रंजन गोगोई की ओर से न्यायपालिका पर की गई टिप्पणी को अदालत की अवमानना लायक मानने से भले इन्कार कर दिया गया हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि न्याय व्यवस्था में सुधार की जरूरत नहीं। वास्तव में सुधार की सख्त जरूरत है।


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