द कश्मीर फाइल्स: घाटी की सुंदरता से लड़ता सच और समय

सिनेमाई दृष्टिकोण के साथ ऐसी टिप्पणियां करने वाले रॉजर ईबर्ट कोई अकेले समीक्षक नहीं हैं

Update: 2022-03-21 09:05 GMT
साल 2012 में आई कश्मीरी फिल्म 'वैली ऑफ सेंट्स' का रिव्यू लिखते समय विश्व प्रसिद्ध अमेरिकी फिल्म क्रिटिक, पत्रकार, लेखक और इतिहासकार रॉजर ईबर्ट लिखते हैं- 'धरती पर अगर कोई जगह स्वर्ग होने का दावा करती है, तो वह कश्मीर है. और अगर कोई जगह है जो मानवता के सभी स्याह परिणामों का प्रतीक है, तो वह भी कश्मीर ही है.'
एक प्रेम त्रिकोण और दोस्ती के कुछ दुर्लभ पलों के चित्रण को सामने लाती इस फिल्म की समीक्षा के बीच-बीच में रॉजर, कश्मीर की आंतरिक परिस्थितियों, राजनीतिक जटिलताओं और आतंकवाद के प्रभावों आदि पर भी बात करते हैं.
सिनेमाई दृष्टिकोण के साथ ऐसी टिप्पणियां करने वाले रॉजर ईबर्ट कोई अकेले समीक्षक नहीं हैं. ऐसा कह सकते हैं कि बीते तीन दशकों में कश्मीर की पृष्ठभूमि को लेकर बनी ज्यादातर फिल्मों की थीम ही कुछ ऐसी रही है कि समीक्षा में ऐसी बातों का जिक्र आना लाजिमी है. वे फिल्में देश की हों या बाहर की, किसी न किसी रूप में कम या ज्यादा, वहां के हालातों के चित्रण से नजरें चुराए बगैर कुछ कहना बेमानी सा ही लगता रहा है. विशेषकर अस्सी के दशक के मध्य के बाद से जब वहां के हालात तेजी से तनावपूर्ण हुए, तो उसकी छाप आने वाले वर्षों की फिल्मों में भी साफतौर से दिखाई देने लगी थी.
सन 1992 में मणि रत्नम की 'रोजा' से लेकर साल 2000 में आयी विदु विनोद चोपड़ा की 'मिशन कश्मीर' सहित तमाम फिल्मों के केन्द्र में उग्रवाद, सीमा पार आतंकवाद, राजनीतिक उथल-पुथल, स्थानीय लोगों पर अत्याचार इत्यादि नजर आते हैं. बाद के एक दशक से लेकर फिलवक्त तक ऐसी ढेरों फिल्में बन गई हैं, जिनमें कश्मीर की समस्या-समस्याओं को अलग-अलग ढंग से दिखाया गया है.
बावजूद इसके उसी दौर में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार और पलायन को केन्द्र में रखकर कभी कोई फिल्म नहीं बनी. क्या यह एक वाकई ऐसा विषय था, जिस पर कभी किसी का ध्यान ही नहीं गया. कहीं यही कारण तो नहीं कि विवेक अग्निहोत्री निर्देशित 'द कश्मीर फाइल्स' इन दिनों इतनी ज्यादा चर्चा में है?
जैसी कि चर्चा है कि मात्र 15 से 20 करोड़ रु. की लागत से बनी यह फिल्म केवल सात दिनों में घरेलू बॉक्स ऑफिस से 100 करोड़ रुपये से अधिक बटोर चुकी है. फिल्म को लेकर पहले ही दिन से देखने और 'दिखाने' की एक प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी थी, जो रोजाना के हिसाब से बढ़ रही है.
किसी फिल्म के लिए क्या यह असामान्य घटना है? शायद ऐसा ही है, क्योंकि देशभर के तमाम मीडिया से लेकर गली-चौराहों तक इस फिल्म की ही चर्चा हो रही है. जिन्होंने कई दशकों से सिनेमाहाल पर कोई पिक्चर नहीं देखी है, वे भी अपने आस-पास इस फिल्म के बारे में इतना सुन चुके हैं कि अब मन बना चुके हैं कि फिल्म देखेंगे. फिल्म की कलेक्शन के आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि इसे लेकर हवा यूं ही गर्म नहीं हैं.
बेशक, फिल्म में जो दिखाया गया है या जो नहीं दिखाया गया उसे लेकर बहुत से लोग अलग-अलग खेमों में बंटे से दिखाई दे रहे हों. विषय-वस्तु और तथ्यों को लेकर एकतरफा होने सहित कई तरह की बातें भी सामने आ रही हों. सच यह भी है कि ऐसे तमाम मुद्दों पर लोग चर्चा भी कर रहे हैं और अपने-अपने पक्ष भी रख रहे हैं. लेकिन क्या केवल चर्चाओं और बहसों से बस इस फिल्म को असामान्य मान लिया जाए?
दूसरी तरफ देखें तो रोजाना के हिसाब से दर्शकों की भीड़ सिनेमाघरों तक खिंचती आ रही है. फिल्म के प्रतिदिन कलेक्शन हम बाद में जान लेंगे, लेकिन जो रुझान आ रहे हैं उसके आगे अक्षय कुमार जैसे स्टार तक की फिल्म के हाथ-पांव फूले से दिख रहे हैं. क्या किसी ने सप्ताहभर पहले भी सोचा था कि एक नॉन स्टारर फिल्म ऐसा करिश्मा दिखा पाएगी.
कयास है कि फिल्म 150-200 करोड़ तक भी बटोर सकती है. फिल्म को मिल रही प्रसिद्धि और प्राप्त कलेक्शन को ही केन्द्र में रखकर देखें तो क्या ये दो कारण काफी हैं इस फिल्म को असामान्य या असाधारण करार देने के लिए? बेशक, यह दो कारण महत्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन प्रमुख नहीं. एक फिल्म, जिसमें मनोरंजन की जगह रक्त के धब्बे, त्रासदी और मायूसी का चित्रण है, उसकी अत्प्रत्याशित सफलता के पीछे कुछ और कारण भी हैं.
हालांकि यह पहली घटना नहीं है कि कोई कम बजट की फिल्म कलेक्शन के रिकार्ड तोड़ रही है, लेकिन यह भी संभवतः पहली बार ही देखने में आ रहा है कि लोग दूसरों के लिए टिकट बुक कराकर उनसे देखने की गुजारिश कर रहे हैं. कई कंपनियों ने अपने कर्मचारियों के लिए सिनेमा टिकटें स्पॉन्सर की हैं. कार्य दिवस के दिन लोगों को आधे या पूरे दिन की छुट्टी मुहैया कराई जा रही है, ताकि वह फिल्म देखने जा सकें. और भी बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग फिल्म देख सकें और यह सब एक ऐसी फिल्म के लिए हो रहा है, जिसमें फटाफट सफलता की गारंटी माने जाने वाले न तो लोक लुभावने कलाकार हैं और न ही सीटीमार संगीत.
इसके बजाए पहले सीन से लेकर क्लाईमैक्स तक डर, आतंक, तनाव, दुख-दर्द, मायूसी, गुस्सा ही पसरा दिखाई देगा. बानगी देखिए कि फिल्म का प्रसिद्ध मंचों पर प्रोमोशन भी न के बराबर किया गया और शहरभर में इसके पोस्टर भी मुश्किल से दिखाई देंगे. फिर भी रिलीज के तुरंत बाद इसकी स्क्रीन्स संख्या 600 से 2000 तक बढ़ा दी गई. एक मल्टीप्लेक्स चेन ने देशभर के अपने सिनेमाघरों में इस फिल्म के 11 से 14 मार्च के बीच 3.5 लाख टिकट बेचे, जबकि 16 मार्च तक 10 लाख टिकट बेच डाले.
यही नहीं रिलीज के साथ ही एक के बाद एक कई राज्यों ने इसे टैक्स-फ्री घोषित कर दिया है, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग फिल्म देखें. एक ट्रेड विश्लेषक ने तो यहां तक लिखा है कि अगर फिल्म इसी रफ्तार से लोगों के दिलों में घर करती रही तो जल्द ही यह भारतीय सिनेमा की सबसे कम समय में ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर फिल्म बनने के साथ-साथ कम लागत में बनी सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाली फिल्म भी बन सकती है.
वास्तविक कारण कितने जरूरी
यह बात हजम करनी मुश्किल है कि इस फिल्म को पैसे बटोरने के लिए बनाया गया होगा. हालांकि हर फिल्मकार यह चाहता है कि उसकी फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल हो, लेकिन 'द कश्मीर फाइल्स' को मिल रही सफलता का अंदाजा इसके मेकर्स को भी नहीं रहा होगा. यूं भी 600 स्क्रीन्स के साथ 100 करोड़ क्लब में एंट्री पाना एक सपना ही हो सकता है.
और वो भी पांच राज्यों के चुनावों के ठीक अगले दिन जब सारा मीडिया हार-जीत के विश्लेषणों में व्यस्त हो. किसके पास समय होगा ऐसे गंभीर फिल्म के लिए. फिर सामने प्रभास जैसे बड़े स्टार की बहुप्रतिक्षित फिल्म राधे श्याम की भी रिलीज उसी दिन होनी थी. दूसरी तरफ आलिया भट्ट की फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी', पहले से ही सिनेमाघरों पर काबिज थी और अच्छी खासी कमाई करते हुए 200 करोड़ के लक्ष्य की तरफ बढ़ रही थी. ये भी पता था कि होली वीकेंड को देखते हुए अक्षय कुमार की मसाला फिल्म 'बच्चन पांडे' (18 मार्च) भी रिलीज होगी, जिसे सबसे ज्यादा स्क्रीन्स देने ही पड़ेंगे, जिसके चलते 600 में से कुछ स्क्रीन्स और कम भी हो सकते थे. यानी 'द कश्मीर फाइल्स' पर हर तरफ से दबाव तय था. लेकिन हुआ इसके बिलकुल उलट.
इतना उलट की खुद ट्रेड के लोग और फिल्म इंडस्ट्री भी हैरान थी कि रिलीज के मात्र 2-3 दिनों के भीतर इस फिल्म की स्क्रीन्स संख्या इतनी ज्यादा क्यों बढ़ानी पड़ रही है. शो हाउसफुल जा रहे थे, जिसके मद्देनजर सुबह 6 बजे से और रात्रि 12 बजे के शो भी रखने पड़े. 'द कश्मीर फाइल्स' एक ऐसी फिल्म साबित हुई, जिसने न केवल मंडे टेस्ट पास किया बल्कि आगामी दिनों में इसके कलेक्शन में बढ़ोत्तरी भी हुई. बता दें कि फिल्म की ओपनिंग 3.55 करोड़ रु. के साथ हुई थी, जो कि इसकी स्क्रीन्स संख्या को देखते हुए एक ठीक-ठाक कलेक्शन था. लेकिन जब दूसरे दिन 8.50 करोड़ का बंपर कलेक्शन हुआ तो सबकी आंखें सी फटने लगीं. स्क्रीन्स संख्या बढ़ी तो तीसरे दिन 15.10 करोड़ रु और चौथे दिन (सोमवार) 15.05 करोड़ रु. और जुटा लिए. चार दिनों में 50 करोड़ की ओर बढ़ती इस फिल्म ने और तीन दिनों में 80 करोड़ के आंकड़े तक पहुंचने के बाद यह साफ संकेत दे दिये कि अब इसे 100 करोड़ तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता.
यही नहीं क्या एक सप्ताह पहले किसी ने कल्पना की थी कि अक्की बाबा की 'बच्चन पांडे' को 'द कश्मीर फाइल्स' की वजह से स्क्रीन्स का टोटा हो जाएगा. अक्षय की फिल्म की रिलीज से महज एक दिन पहले ये खबर भी उड़ने लगी कि 'बच्चन पांडे' की रिलीज को करीब 400 से 500 स्क्रीन्स कम दिए जा रहे हैं. स्क्रीन्स के अंतर का असर शनिवार (19 मार्च) को साफ नजर आया जब 'बच्चन पांडे' की ओपनिंग 13.25 करोड़ रु तथा 'द कस्मीर फाइल्स' ने सातवें दिन 19.15 करोड़ रु बटोरे। यह कोई मामूली अंतर नहीं है.
दरअसल, 'द कश्मीर फाइल्स' की सफलता की कहानी बेशक किसी ब्लॉकबस्टर फिल्म की तरह बेहद चकाचौंधभरी लगती तो है. लेकिन क्या यह वास्तविक कारण हो सकते हैं? अगर हां, तो कई जगह सवाल ये भी उठ रहे हैं कि पूर्व में आई इससे बिलकुल मिलती-जुलती पृष्ठभूमि वाली फिल्मों को ऐसी व्यावसायिक सफलता क्यों नहीं मिल पायी? उनमें से से कई फिल्में तो ऐसी थीं, जिन्हें अपनी रचनात्मकता और वास्तविकता के सटीक चित्रण के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले हैं. कई ऐसी भी रही, जिनमें प्रसिद्ध सितारों ने काम किया था और ठीक-ठाक पैमाने पर रिलीज भी किया गया था. कईयों का प्रोमोशन भी जोरदार किया गया था और कुछेक का गीत-संगीत भी शानदार था और पॉपुलर भी हुआ था.
हो सकता है कि त्रासदी जैसे विषय पर बनी किसी फिल्म के कंटेंट को लेकर एक आम दर्शक के लिए ऐसे कारण कुछ खास मायने न रखते हों, कि पूर्व में कोई फिल्म क्यों नहीं चली या सच्चाई दिखाने वाली फिल्में पहले भी तो बन चुकी हैं, वे उन्होंने देखी हैं क्या. किसी फिल्म की सफलता के कारण कुछेक स्तर पर कृत्रिम हो सकते हैं, लेकिन दीवानगी का कोई इलाज नहीं है.
हां, इस पर बहस हो सकती है कि यह दीवानगी पैदा की गई है या स्वाभाविक है, लेकिन इसे झुठलाया नहीं जा सकता. सिनेमा एक ऐसा माध्यम है, जिसे शायद जबरदस्ती देखा या दिखाया नहीं जा सकता. सिनेमा देखना किसी की मजबूरी हो सकती है, लेकिन वहां से किसी भी वक्त उठकर आ सकता है कोई भी. और अगर चित्रण एकतरफा है, आधा-अधूरा है तो इसका मुकाबला भी केवल सटीक प्रस्तुति के साथ ही दिया जा सकता है न कि किसी दलीलों से.
यह सही है कि थोड़ी और कलेक्शन के बाद 'द कश्मीर फाइ्ल्स' का क्रेज धीरे-धीरे खत्म होने लगेगा. फिर देखना होगा कि सच्चाई के दावे के साथ उसके बाद कौन सी फाइल या फाइल्स खुलती है. ये भी देखना होगा कि अगली बार दर्शक कैसे रिएक्ट करेंगे.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है) 
विशाल ठाकुर फिल्म समीक्षक, पत्रकार
दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं. अलग-अलग अखबारों में फिल्म समीक्षक रहने के बाद अब स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं.
Tags:    

Similar News

-->