हिंदुओं की इन हत्याओं के बीच ही कश्मीरी अभिनेत्री अमरीन भट्ट की भी हत्या हुई। कई कश्मीरी युवा यह कहकर उनकी हत्या को सही बताते देखे गए कि वह हिजाब नहीं पहनती थीं और अभिनय इस्लामी मान्यताओं के विरुद्ध है। यह सब बताता है कि कश्मीर के मुस्लिम समाज का जिहादीकरण जारी है। गैर-मुस्लिमों को काफिर, मुशरिक बताकर और आधुनिक जीवनशैली के हिसाब से जिंदगी जी रहे मुसलमानों को मुनाफिक करार देकर मौत के घाट उतारा जा रहा है। कश्मीर अभी भी जिहादी पैदा करने वाली फैक्ट्री बना हुआ है। इसी कारण 'आपरेशन आलआउट' के बावजूद निर्दोष लोगों की हत्याओं का दौर जारी है। इस आपरेशन के तहत बड़ी संख्या में विदेशी और स्थानीय आतंकियों सफाया किया गया है।
घाटी का हालिया घटनाक्रम बताता है कि आतंकी जब जिसे चाहें, निशाना बनाने की स्थिति में हैं। जिस गति से सुरक्षा बल आतंकियों को मार रहे हैं, उसी गति से कश्मीर के कट्टरपंथी नए आतंकियों को जन्म दे रहे हैं। जब पड़ोसी और सहकर्मियों पर ही आतंकियों के लिए मुखबिरी करने का शक हो तो कश्मीरी पंडित या अन्य अल्पसंख्यक कश्मीर के मुस्लिम समाज के बीच घुलमिल कर कैसे रह सकते हैं? जब तक कश्मीरी समाज को कट्टरपंथियों के चंगुल से नहीं निकाला जाता और जनसंख्या का संतुलन नहीं बनाया जाता, तब तक हालात सुधरने की संभावना नहीं दिखती। यह ध्यान रहे कि जब भी कश्मीरी हिंदुओं के लिए अलग बस्तियों-कालोनियों की बात हुई तो यासीन मलिक से लेकर महबूबा मुफ्ती और फारूक अब्दुल्ला तक ने विरोध करते हुए इस पर जोर दिया कि पलायन कर गए लोग वापस हम सबके बीच ही आकर रहें। जब ऐसा ही किया गया और कुछ कश्मीरी ङ्क्षहदुओं को नौकरियां देकर घाटी भेजा गया तो उनकी हत्याएं की जाने लगीं। इसे देखते हुए कश्मीरी अल्पसंख्यकों के लिए कश्मीर में नई कालोनियां-नगर बसाए जाएं, जहां स्कूल, अस्पताल और बैंक जैसी सभी सुविधाएं हों। ऐसे स्थानों की अपनी एक स्थानीय अर्थव्यवस्था हो जो शोध संस्थान, आइटी हब, जैविक खेती आदि पर आधारित हो।
सुरक्षा की दृष्टि से इन बस्तियों को छावनी क्षेत्रों के चारों ओर स्थापित किया जाए-ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेजों ने कभी रानीखेत और लैंसडाउन में अपने छावनी क्षेत्रों वाले हिल स्टेशनों को विकसित किया था। यह भी ध्यान रखें कि दुनिया भर में सदियों से भटक रहे यहूदियों ने इजरायल वापस जाकर वहां अपने शहर बसाए और अंतत: एक राष्ट्र की स्थापना की। इजरायल तो तमाम सब्सिडी देकर यहूदी बस्तियों को फलस्तीनी इलाकों में भी बसा रहा है। इजरायली सेना इन बस्तियों को चारों ओर से सुरक्षा मुहैया कराती है। आखिर यह काम हम अपनी ही जमीन यानी कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यकों के लिए क्यों नहीं कर सकते? क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि म्यांमार से घुसपैठ करके भारत आए रोहिंग्या तो जम्मू-कश्मीर में अवैध रूप से बस गए हैं, लेकिन कश्मीरी हिंदू अपने पुरखों की जमीन पर नहीं रह पा रहे? यहूदी बसावट के शुरुआती दिनों में यहूदियों पर ऐसे ही आतंकी हमले होते थे, जैसे आज कश्मीर में हिंदुओं पर हो रहे हैं। इजरायल के प्रधानमंत्री रहे एरियल शेरोन ने एक साक्षात्कार में बताया था कि किस तरह उनके पिता हमेशा पिस्तौल लेकर चलते थे और मां तकिये के नीचे पिस्तौल रखकर सोती थीं। कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यकों को इसी प्रकार आत्मरक्षा के लिए शस्त्र लाइसेंस और प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है।
भारत का संविधान सबको जीने का मूल अधिकार देता है, पर कश्मीरी हिंदू इस अधिकार से वंचित हैं। यह आवश्यक है कि भारतीय राज्य कश्मीरी हिंदुओं के जीने के संवैधानिक अधिकार की रक्षा के लिए कोई भी कठोर कदम उठाने से न हिचके। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो हम किस तरह एक संवैधानिक लोकतंत्र कहलाने के अधिकारी रह जाएंगे? इसके साथ ही कश्मीर के मुस्लिम समाज को कट्टरपंथियों के चंगुल से निकालने के लिए मस्जिदों-मदरसों की भूमिका पर भी गौर करना होगा। इसके बिना कोई भी सैन्य या राजनीतिक हल स्थायी नहीं होगा। आतंकी हवा में नहीं बनते। जन्नत और हूरों की चाह में इस जिंदगी से ज्यादा मौत के बाद की जिंदगी को अधिक महत्व देना और उसके लिए लोगों की जान लेना तथा अपनी जान देना कथित मजहबी उपदेशक ही सिखाते हैं। 9/11 के बाद तमाम पश्चिमी देशों में मस्जिदों की निगरानी बढ़ाई गई। अमेरिका ने तो इस्लाम के नाम पर युवाओं को भड़काने वाले मौलाना अनवर अल अवलाकी को यमन में एक ड्रोन हमले में मार गिराया था।
पंजाब में आतंकवाद के दौर के बाद धार्मिक संस्था (दुरुपयोग निवारण) अधिनियम, 1988 अस्तित्व में आया था, जिसके तहत किसी भी धार्मिक संस्था के दुरुपयोग की स्थिति में वहां के प्रबंधकों को कारावास हो सकता है। अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद इस कानून को कश्मीर में सख्ती से लागू किया जाना चाहिए, क्योंकि वहां कई मुल्ला-मौलवी भड़काऊ भाषण देते रहते हैं। अगर सरकारें तमाम हिंदू मंदिरों का प्रबंधन अपने हाथ में ले सकती हैं तो फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती बने मजहबी स्थलों के साथ ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता?