कोविड-19 में टीकों का महत्व एक बार फिर हमारे सामने उभर कर आ रहा है
पिछले एक साल में किसान आंदोलन और कोविड टीकाकरण दो बड़ी खबरें और सफलताएं रही हैं
डॉ चन्द्रकांत लहारिया। पिछले एक साल में किसान आंदोलन और कोविड टीकाकरण दो बड़ी खबरें और सफलताएं रही हैं। आइए बात करते हैं कैसे दुनिया की सबसे पहली वैक्सीन 'चेचक के टीके' की सैद्धांतिक आधारशिला एक किसान के पारखी अवलोकन से रखी गई। अठारहवीं सदी में चेचक, जिसे भारत में शीतला या बड़ी माता भी कहते हैं, एक गंभीर बीमारी थी, जिससे प्रभावित होने वालों में से करीब 30 फीसदी की मृत्यु हो जाती थी।
लोग बीमारी से बचने के लिए नए तरीके इज़ाद करने की कोशिश में रहते थे। बेंजामिन जेस्टी नामक किसान की ब्रिटेन के डोरसेट शहर में गौशाला थी। जेस्टी ने अवलोकन किया कि जो व्यक्ति 'काऊ पॉक्स' नामक बीमारी से प्रभावित गायों के संपर्क में आते हैं, उनको बाद में चेचक की बीमारी नहीं होती। जेस्टी इस नतीजे पर पहुंचे कि काऊ पॉक्स के फोड़ों में कुछ ऐसा है जो चेचक से बचाव करता है।
वर्ष 1774 में, जेस्टी ने 'काऊ पॉक्स' प्रभावित गाय के मवाद को अपनी पत्नी और दो बच्चों की बांह पर, एक छोटा सा जख्म करके लगा दिया। इरादा था कि ऐसा करने पर वो भविष्य में चेचक से बच जाएंगे। जेस्टी के पड़ोसी और जानने वाले इस बात पर बहुत नाराज हो गए, और बेंजामिन जेस्टी को बुरा भला कहा। जानवरों की बीमारी इंसानों में फैल सकती थी और यह एक बड़ा खतरा हो सकता था।
कुछ महीने बाद, जब जेस्टी के गांव में चेचक फैला, तो कई लोगों को बीमारी हुई, लेकिन उनकी पत्नी और बच्चे बचे रहे। तब जाकर जेस्टी के पड़ोसियों और जानने वालों का गुस्सा कुछ हद तक शांत हुआ। माना जाता है कि इस घटना से प्रेरित होकर ही ब्रिटेन के चिकित्सक और वैज्ञानिक एडवर्ड जेनर ने 1796 में चेचक के टीके की खोज शुरू की, जो 1798 में पूरी हुई। दुनिया भर में जेनर को टीके के खोज का श्रेय दिया जाता है।
उस समय और अभी भी कई लोगों का मानना है कि टीके की खोज का कुछ श्रेय बेंजामिन जेस्टी को भी मिलना चाहिए। 1803 से 1807 के बीच कुछ डॉक्टरों ने कोशिश भी की लेकिन इसके लिए जरूरी था कि जेस्टी वैज्ञानिकों के समूह को विस्तार से अपनी प्रक्रिया के बारे में लंदन में आकर जानकारी दें।
जेस्टी एक बार तो लंदन आकर समिति से मिले, लेकिन एक आम किसान की तरह उन्हें इस बात में कोई रुचि नहीं थी कि चेचक का टीका बनाने का श्रेय किसे मिल रहा है, उन्होंने बाद में समिति से मुलाकात नहीं की। बात आई-गई हो गई। खैर, जिस प्रक्रिया की शुरुआत एक किसान ने की और वैज्ञानिक खोज से उसे वैक्सीन का रूप मिला, उससे 1980 में दुनिया से चेचक की बीमारी का नामोनिशान मिट गया।
कोविड-19 महामारी में टीकों का महत्व एक बार फिर हमारे सामने उभर कर आ रहा है। लेकिन भारत में कई लोग अभी भी टीकों के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। वजह कई सारी हैं। कुछ लोग सोचने लगे हैं कि अब बीमारी कम हो गई है और टीके की जरूरत नहीं है। कहीं-कहीं जागरुकता का भी अभाव है। लोगों के मन में कई भ्रांतियां मौजूद हैं।
हमें याद रखना होगा कोरोना का वायरस कहीं गया नहीं है और पूरी सुरक्षा के लिए दो डोज लगना निहायत जरूरी है। कई अन्य सोचते हैं कि ये टीके जल्दबाजी में बने हैं और सुरक्षित नहीं हैं। बात यह है कि जब वायरस ही नया है तो टीके भी नए होंगे। ये जल्दी जरूर बने हैं लेकिन जल्दबाजी में नहीं। कुछ टीके नई पद्धतियों, जैसे कि एम-आरएनए और वायरल वेक्टर, से बने पहले टीके हैं।
ये जल्दी इसलिए बन सके क्योंकि इन पद्धतियों पर टीके बनाने का काम करीब दो से तीन दशकों से चल रहा था। जैसे कि इबोला नामक गंभीर बीमारी के टीके पर इन पद्धतियों से खोज चल रही थी तो वैज्ञानिकों ने उसी पद्धति पर कोरोना का टीका बनाना शुरू कर दिया और सफलता मिली। अब कोरोना का नया रूप, ओमिक्रॉन फैलने लगा है। साथ ही डेल्टा भी दुनिया के कई देशों में फैल रहा है।
ओमिक्रॉन, डेल्टा से भी तेजी से फैलता है और इससे लड़ने के लिए जरूरी एंटीबाडी की मात्रा अधिक होने की जरूरत होती है। कई देश तो इस आधार पर टीके के तीसरे डोज अर्थात बूस्टर की बात कर रहे हैं। भारत में फिलहाल जरूरी है कि लोग दोनों टीके लगवाएं। ओमिक्रॉन हो सकता है भारत के लिए अभी बड़ा खतरा न हो। लेकिन यह वायरस का आखिरी रूप नहीं हैं।
कोई नहीं जानता कि कब और कहां से नया और भी खतरनाक वैरिएंट उभरकर आ जाए। फिर, वैरिएंट नया हो या पुराना, बचाव के तरीके वही पुराने हैं। अगर दोनों टीके लगे हुए हैं तो नए वैरिएंट आ भी जाएं, तब भी गंभीर बीमारी का खतरा कम रहेगा। हां, संक्रमण को रोकने के लिए टीके के बाद भी मास्क, शारीरिक दूरी और भीड़ भरी जगहों से दूरी बनाए रखना होगा।
साथ ही, महामारी के इस दौर में, हमें किसानों और वैज्ञानिकों के योगदान को सराहने की और भी अधिक जरूरत है। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कोविड के टीके देश के हर गरीब और हर किसान तक पहुंचें। आखिरकार, दुनिया के लिए टीके खोजने का कुछ श्रेय एक किसान को भी जाता है।