किसान आंदोलन से जुड़े किसानों को अब समझौता कर लेना चाहिए?
किसान आंदोलन से जुड़े किसानों
शंभूनाथ शुक्ल। किसान आंदोलन के नेताओं में दिशाभ्रम जैसी स्थिति है. वे अब तय नहीं कर पा रहे कि तीनों कृषि क़ानून वापस होने के बाद अब वे अपने धरने को समाप्त कर दें या बैठे रहें. उनका एक वर्ग चाहता है कि सरकार ने जब क़ानून वापस ले लिए हैं तो अब घर वापस चला जाए. आख़िर एक वर्ष से अधिक हो गए धरने पर बैठे हुए. सिंघु बॉर्डर पर बैठे पंजाब और हरियाणा के किसानों को लगता है, कि जिन मांगों की वापसी के लिए वे दिल्ली की सीमा को घेरे थे, वह जब पूरी हो गई तो अब काहे की ज़िद!
लेकिन गाजीपुर सीमा पर बैठे राकेश टिकैत अपनी मांगों की सूची बढ़ाते जा रहे हैं. उनके साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की तराई क्षेत्र के कुछ किसान भी हैं. हालांकि राकेश टिकैत के भाई नरेश टिकैत भी अब उठने के मूड में हैं. एक तरह से टिकैत अब किसानों के बीच अकेले पड़ रहे हैं. उनको लगता है कि राकेश टिकैत की कुछ निजी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं हैं.
जब क़ानून ही नहीं रहा तो ज़िद क्यों!
पिछले वर्ष 26 नवंबर को किसानों ने कृषि क़ानूनों की वापसी के लिए आंदोलन शुरू किया था. उस समय उनकी मुख्य मांग तीनों कृषि क़ानूनों की वापसी थी, जो कि उसके दो महीने पहले क़ानून के रूप में लाये गए थे. किसानों को लगता था, कि इन क़ानूनों के अमल में आते ही कृषि कारपोरेट घरानों के पास चली जाएगी. चूंकि मंडी व्यवस्था पंजाब और हरियाणा में ज़्यादा असरदार है, इसलिए ये सहकारी मंडियां ख़त्म होते ही बाज़ार और उनकी उपज के बीच जो सहकार कि भावना है, वह ख़त्म हो जाएगी.
और कारपोरेट के लोग अपने बाज़ार के अनुरूप उनसे काम करवाएंगे. उनका यह भय ग़लत भी नहीं था, क्योंकि एक बार बाज़ार घुस गया, तो उपज उसकी मर्ज़ी से हो, यह अनिवार्य हो जाएगा. इसीलिए किसानों ने एक ही शर्त रखी, कि तीनों कृषि क़ानूनों की सम्पूर्ण वापसी. इससे कम पर वे राज़ी नहीं थे. यही कारण रहा कि सरकार और किसान नेताओं के बीच हुई 13 संधि-वार्त्ताओं से कुछ नहीं हुआ. जबकि सरकार इन क़ानूनों को ढीला करने और एमएसपी के बाबत कोई सख़्त नहीं थी.
किसानों के बीच दुविधा
अब टिकैत ख़ेमे के किसानों का अड़ना और पंजाब हरियाणा के किसानों द्वारा धरना समाप्त करने के संकेत से लगता है कि किसानों को कोई भ्रमित कर रहा है. जब कारपोरेट बाज़ार की शर्त ख़त्म हो गई तब एमएसपी को भला कौन रोक पाएगा. यह बात किसान समझ रहा है, इसीलिए अब वह आंदोलन समाप्त करने को लालायित है. यह किसान आंदोलन जितना लंबा चला है, उतना लंबा शायद ही कोई आंदोलन चला हो. यही कारण है कि अभी 19 नवंबर को ग़ुरुनानक जयंती के दिन अचानक प्रधानमंत्री ने इन क़ानूनों की वापसी की घोषणा कर दी. यही नहीं दस दिनों के भीतर ही संसद के ज़रिये उन क़ानूनों को ख़त्म कर दिया.
यह किसानों की बहुत बड़ी जीत है. किसान इसे समझ भी रहे हैं. पर टिकैत की जो प्रतिक्रिया, उससे यह भी लगता है कि टिकैत इसे लंबा खींचना चाहते हैं. क्योंकि वे मांगें बढ़ाते जा रहे हैं. उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा शायद किसानों के हित से ऊपर है, यह आरोप भी उन पर लग रहे हैं. सरकार को भी लग गया है, कि यह आंदोलन ना समाप्त हुआ तो 2022 में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में इसका बुरा असर पड़ेगा और संभव है, उत्तर प्रदेश में बीजेपी इसका शिकार बन जाए. इसीलिए विपक्ष भी राकेश टिकैत के ज़रिए इसको अभी नहीं समाप्त करवाना चाहता हो.
राजनीति के दांव
ख़ैर, यह राजनीति है और राजनीति में सबको अपने-अपने दांव खेलने की छूट होती है. लेकिन राकेश टिकैत को किसानों की अन्य समस्याओं पर भी गौर करना चाहिए. उत्तर प्रदेश के मेरठ, मुज़फ़्फ़रनगर और तराई के ज़िलों को छोड़ दें तो अन्य ज़िलों के किसानों की समस्या दीगर है. वहां जोत छोटी हैं, और वहां के किसानों की मुख्य उपज कैश क्रॉप्स नहीं परिवार की ज़रूरतों के अनुसार फसलों को उपजाना है. उन्हें अपनी फसलों की रखवाली के लिए रात-रात भर जागना पड़ता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में आवारा गो-वंश झुंड बना कर फसलों पर टूटता है.
किसान ज़रा भी चूक जाएं तो उसकी खड़ी फसल स्वाहा हो जाए. उसे समय पर खाद नहीं मिलती. पानी के लिए सरकारी ट्यूब-वेल की सुविधा नहीं मिलती, ऐसे में उसे पानी ख़रीदना पड़ता है. मालूम हो कि निजी ट्यूब-वेल मालिक तीस रुपया घंटा पानी देते हैं. एक एकड़ गेहूं या सरसों की सिंचाई में पूरे 24 घंटे लग जाते हैं. चूंकि गो-वंश को वह बेच नहीं सकता, इसलिए गाय-बैल पालना भी अब बहुत महंगा सौदा है. ऊपर से उनके लिए चारे की व्यवस्था भी आसान नहीं है.
उत्तर प्रदेश के किसानों की समस्या भी उठाओ
राकेश टिकैत ने कभी भी उत्तर प्रदेश के इन समस्याओं को अपना मुद्दा नहीं बनाया. वे जिस इलाक़े से आते हैं, वह गन्ना का क्षेत्र है. गन्ना किसानों की समस्या अलग है. उनके लिए एमएसपी की ज़रूरत है, लेकिन जब सरकार ने क़ानून वापसी का इतना बड़ा फ़ैसला कर लिया तो एमएसपी के लिए वह समस्या नहीं बनेगी. मांग तो होनी चाहिए, गन्ना किसानों के बकाए का फ़ौरन भुगतान या आवारा पशुओं को पकड़ने के लिए सरकार अभियान चलाये.
इन मुद्दों पर राकेश टिकैत कुछ साफ़ नहीं कर रहे. पंजाब और हरियाणा छोटे राज्य हैं. वहां के किसानों का कृषि दायरा भी बड़ा है. पांच एकड़ किसान का मालिक वहां इतनी फसल कर लेता है कि वह ठाठ से रह सके और अपने बच्चों को शहर में रख कर पढ़ा सके. इसके विपरीत उत्तर प्रदेश के किसानों के पास औसत कृषि आधा या एक एकड़ है. उसके पास अपने ट्यूब-वेल नहीं है. उपज के लायक़ उसको क़ीमत नहीं मिलती. सरकारी ख़रीद में बहुत रोड़े हैं. इसलिए उसे एमएसपी मिलती ही नहीं. उसे फ़ौरन पैसा चाहिए और सरकारी क्रय केंद्र में पैसा लटका रहता है.
आढ़तियों के बीच किसान
उत्तर प्रदेश और बिहार का किसान अपनी उपज लोकल आढ़तियों को बेचता है, और वह भी एमएसपी से बहुत कम क़ीमत पर. यह फसल वह पंजाब भेज देता है, जहां की मंडियों में यह एमएसपी पर बिकता है. प्रश्न यह उठता है, कि जब किसान को उसकी फसल पर एमएसपी मिलती ही नहीं तो फिर इसका लाभ क्या हुआ? ऐसी समस्याओं को उठाया जाना था, किंतु राकेश टिकैत ने अपनी मांगों को अपने क्षेत्र तक सीमित कर लिया. यही कारण रहा कि राकेश टिकैत को पूरे उत्तर प्रदेश के किसानों का समर्थन नहीं मिला.
जबकि पंजाब-हरियाणा में प्रत्येक ज़िले के किसान इस आंदोलन में थे. अब अगर किसान आंदोलन में फूट पड़ी, तो न सिर्फ़ आंदोलन को नुक़सान होगा बल्कि भविष्य में कोई भी जन आंदोलन ऐसी ही राजनीति का शिकार हो ज़ाया करेगा. इसलिए बेहतर है कि किसान भी अब समझौते का रास्ता अपनाएं. मुख्य मांग मान ली गई अब बाक़ी पर वार्त्ता ही सबके लिए उचित रहेगी.