औद्योगिक क्रांति का सपना और हकीकत
दुनिया के एक-तिहाई देश, जिनमें भारत भी शामिल है, अगले साल कम से कम दो तिमाहियों तक आर्थिक संकुचन का सामना करेंगे और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने साफ कह दिया है
सुरेश सेठ: दुनिया के एक-तिहाई देश, जिनमें भारत भी शामिल है, अगले साल कम से कम दो तिमाहियों तक आर्थिक संकुचन का सामना करेंगे और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने साफ कह दिया है कि 2026 तक वैश्विक उत्पादन में चार लाख करोड़ डालर का नुकसान होगा। मंदी का जोखिम बढ़ेगा। अब ऐसी स्थिति में भारत या विश्व में चौथी औद्योगिक क्रांति होगी भी तो कैसे? भारत उसका नेतृत्व करेगा तो कैसे?
भारी उद्योग मंत्रालय द्वारा आयोजित सम्मेलन में पिछले दिनों प्रधानमंत्री का संदेश पढ़ा गया। संदेश था कि भारत पूरे विश्व में चौथी औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व करेगा। भारत बहुत बड़ा देश है, युवा देश है। इसकी एक सौ चालीस करोड़ जनता में से आधी कार्यशील है। इसके बलबूते और इतनी भारी जनसंख्या से पैदा होने वाली मांग तथा एक ऐसे शासन के बलबूते, जो पूरी तरह से न केवल स्थिर, बल्कि उसमें तत्काल निर्णय लेने की क्षमता भी है, पूरे विश्वास से कहा जा सकता है कि भारत विश्व की चौथी औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व करेगा। यह सब जानते हैं कि आज तक भारत विश्व की ऐसी किसी औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व नहीं कर सका है। मगर पिछले दिनों सुशासन और प्रतिबद्ध प्रशासन के कारण जो परिवर्तन आए हैं, वे बता रहे हैं कि भारत न केवल अपने देश, बल्कि पूरे विश्व में औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व कर सकता है।
वैसे, इस समय भारत में जो आर्थिक स्थिति है या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जैसा आने वाले आर्थिक दिनों का चित्रण किया है, उसमें एक नई औद्योगिक क्रांति की बात करना साहस की बात है। शायद यह बात इसलिए कही गई है, क्योंकि पिछले दिनों भारत ने विकट आर्थिक परिस्थितियों में भी कई उपलब्धियां हासिल की हैं। सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह है कि जब सारे देश एक निम्न विकास दर का सामना कर रहे हैं, महंगाई का कोई अंत नहीं है।
निवेश प्रोत्साहित नहीं हो रहा। मंदी लगातार बढ़ती जा रही है और उसका मुकाबला करने वाली आर्थिक नीतियां विफल हो रही हैं, तब भी भारत ने अपनी आर्थिक विकास दर को सात फीसद के आसपास बनाए रख कर सबसे तेज आर्थिक विकास दर प्राप्त करने वाले देश के रूप में पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया है। इसके अलावा, भारत को भरोसा है कि उसकी कर राजस्व संग्रह नीति बहुत सफल रही है और इसके कारण 'एक देश एक कर' की उसकी क्रांतिकारी योजना यानी जीएसटी एक लाख करोड़ रुपए के प्रारंभिक लक्ष्य को पार करके पिछले सात महीनों से 1.40 लाख करोड़ से ऊपर जा रही है।
खजाने के भरने की इस सफलता में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में कमी के बावजूद भारत ने जन सामान्य के लिए इसकी कीमतों को नहीं घटाया, बल्कि इससे पैदा होने वाले लाभ पर आकस्मिक लाभ कर लगाकर भी अपना खजाना भरा है। साथ ही पेट्रोल कंपनियों के नुकसान की भरपाई करने की कोशिश की है। इसलिए उसे अपने खजाने में बढ़ोतरी की स्थिति नजर आती है।
वैसे भारत पहली कृषि क्रांति के सीमित लाभ प्रभावों के समाप्त हो जाने के बावजूद दूसरी कृषि क्रांति शुरू नहीं कर पाया। न तो पंजाब से और न ही पूर्वोत्तर राज्यों से। मगर अब सरकार का मानना है कि कृषि क्षेत्र को लेकर उसने जो क्रांतिकारी फैसले किए हैं, उनसे कृषि को बहुत लाभ हुआ है। कृषि का आधुनिकीकरण हो रहा है। उत्पादित फसलों को वृहद विनिर्माण योजना से जोड़ने और सहकारिता आंदोलन को पुनर्जीवित करने से कृषि भी अब अपने पैरों पर खड़ी होने लगी है। भारत में कोविड का संकट लगभग समाप्त हो गया है। बंदी के माहौल में शून्य से शुरू करने वाला भारत एकदम उद्योग, व्यापार और सेवा क्षेत्र में गतिशील नजर आ रहा है और इसी कारण भारत ने दुनिया में सबसे तेज विकास करने वाले देशों में अपनी जगह बनाई है।
मगर इन सब अच्छी-अच्छी बातों के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था के छिद्र छिपाए नहीं जा सकते। पहला छिद्र तो यही है कि बेशक हमारे पास बड़ी कार्यशील युवा आबादी है, लेकिन उनके पास काम नहीं है। उन्हें काम देने वाली नीति भी कारगर साबित नहीं हो रही, जिसमें जैसे ही युवक काम के काबिल हो, उसे उचित नौकरी मिल जाए। यहां तो नौकरी की जगह राहतों और रियायतों का एक माहौल बना दिया गया है।
इस बात पर गर्व किया जा रहा है कि भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो अस्सी करोड़ जनता को रियायती अन्न प्रदान कर रहा है। सितंबर में यह योजना समाप्त होनी थी, लेकिन इसे दिसंबर तक बढ़ा दिया गया है। दूसरी ओर सर्वेक्षण बताते हैं कि काम करने वाली जनता या तो काम मांगने से ऊब गई है और उसे रियायतों के लिए हाथ फैलाने की आदत हो गई है या वह इस माहौल से निराश होकर देश से पलायन करने के लिए कमर कस रही है। जिन देशों की ओर पलायन बढ़ रहा है- अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड और अन्य यूरोपीय देश हैं। वहां जो स्थिति है, उसमें वे भी अब ऐसे भारतीय निष्क्रमण को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। हर देश में भारतीयों के आगमन पर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। अब वहां जाकर काम पाना और बसना तो दूर, शिक्षा प्राप्त करने के बहाने प्रवेश भी मुश्किल हो रहा है।
इधर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने चेतावनी दी है कि अगला साल भारत ही नहीं, दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के लिए संकट भरा है। अमेरिका में मंदी के स्पष्ट संकेत हैं। फेडरल ब्याज दरें बढ़ाने के बावजूद वहां स्थिति संभलती नजर नहीं आ रही। हां, दूसरे देशों में लगा निवेश अवश्य भगोड़ा होकर वापस उनके देश में चला आया है। दुनिया के एक-तिहाई देश, जिनमें भारत भी शामिल है, अगले साल कम से कम दो तिमाहियों तक आर्थिक संकुचन का सामना करेंगे और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने साफ कह दिया कि 2026 तक वैश्विक उत्पादन में चार लाख करोड़ डालर का नुकसान होगा। मंदी का जोखिम बढ़ेगा। अब ऐसी स्थिति में भारत या विश्व में चौथी औद्योगिक क्रांति होगी भी तो कैसे? भारत उसका नेतृत्व करेगा तो कैसे?
भारत में विकास दर की विसंगति बता रही है कि उसके मुख्य क्षेत्र- सेवा क्षेत्र- से उत्पादन प्राप्ति और राजस्व प्राप्ति पहले से कम हो रही है। यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद जो तंगी पैदा हुई है, उसका सामना करने में भारत अभी तक विफल है। भले रूस के साथ व्यापारिक समझौते के कारण उसे रियायती कीमत पर कच्चा तेल मिल रहा है, मगर ओपेक का अनुसरण करते हुए रूस भी अगर अपने कच्चे तेल के उत्पादन को घटा देता है, तो भारत के लिए मुक्ति का रास्ता कहां रह जाएगा और ऐसे मुक्ति के रास्ते बंद हो जाने के बाद औद्योगिक क्रांति होगी भी तो कैसे? मांग बढ़ेगी तो कैसे?
आज का शासन बेशक निर्णय लेने में सक्षम है, अपने निर्णयों पर टिका भी रह सकता है, लेकिन इस समय स्थिति यही है कि उसे इस आर्थिक विमूढ़ता के चक्रव्यूह से लौटना होगा अपने देश की ओर, उसके ग्रामीण उद्योगों के विकास की ओर। देश के ग्रामीण उद्योगों को विनिर्माण के साथ जोड़ कर सहकारी आंदोलन की सहायता से गांवों में एक नई कार्यशीलता का स्पंदन पैदा करने की ओर। अगर ऐसा स्पंदन पैदा हो जाता है तो 2026 तक वैश्विक उत्पादन में चार लाख करोड़ डालर का जो नुकसान अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने घोषित किया है और भारत की विकास दर को रिजर्व बैंक ने सात फीसद से घटाकर 6.5 फीसद कर दिया है, उससे किसी हद तक हम बच निकलेंगे।
अभी हमारे सामने रास्ता आत्मनिर्भरता, क्रमिक विकास से परिवर्तन और परिवर्तन से ठोस बदलाव का ही है। औद्योगिक क्रांति का नारा और भारत द्वारा विश्व का नेतृत्व करने की घोषणा संतोषजनक हो सकती है, लेकिन वह अन्य घोषणाओं की तरह वायवीय न हो जाए, इसलिए भारत अपने धरतीपुत्रों को बल दे, तभी बात बनेगी।