पुष्कर धामी और चरणजीत सिंह चन्नी की हार अन्य मुख्यमंत्रियों के लिए है सबक
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की हार चौंकाने वाली थी
दिनेश गुप्ता
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की हार चौंकाने वाली थी. मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए भी कोई व्यक्ति चुनाव हार सकता है, इसके उदाहरण कम ही मौजूद हैं. मुख्यमंत्री भी चुनाव हार सकते हैं यह संदेश पंजाब से भी आया और उत्तराखंड के वोटर ने भी दिया. उत्तराखंड में तो पश्चिम बंगाल जैसे हालत बने. पार्टी सरकार में आ गई लेकिन मुख्यमंत्री पद का जो चेहरा सामने था उसे जनता ने नकार दिया. मुख्यमंत्रियों की हार उन सभी मौजूदा मुख्यमंत्रियों के लिए यह सबक है जो राजनीति के केन्द्र में आने के बाद वोटर से कनेक्ट को लेकर लापरवाह हो जाते हैं. लोकप्रिय मुख्यमंत्री सत्ता विरोधी लहर में भी कई बार अपने आपको बचा लेता है.
मुख्यमंत्री की हार मजबूत लोकतंत्र का संकेत
प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए यदि कोई नेता चुनाव हार जाता है तो यह लोकतंत्र की मजबूती परिणाम होता है. 1977 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गईं थीं. इंदिरा गांधी की हार इमरजेंसी को लेकर जनता के गुस्से का परिणाम थी. देश में ऐसा घटनाक्रम कई राज्यों में देखने को मिलता रहता है, जिसमें वोटर मुख्यमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति के खिलाफ भी खुलकर मतदान करता है. झारखंड के बारे में तो यह प्रचलित है कि वहां मुख्यमंत्री चुनाव हार जाता है. वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव तक यह देखने को मिलता रहा है. रघुवर दास मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए चुनाव हार गए. इस हार के बाद से ही भाजपा नेताओं के बीच चुनावी राजनीति में एक नया शब्द तेजी से उभरा है. यह शब्द है रघुवर दास सिड्रोंम. इस सिंड्रोम का उपयोग ऐसे मुख्यमंत्री के लिए किया जा रहा है जो पद पर रहते हुए भी चुनाव हार सकता है. उत्तराखंड में पुष्कर धामी की हार सिंड्रोम को नया नाम दे सकती है. धामी का चेहरा भाजपा की भविष्य की राजनीति का बड़ा चेहरा है.
उत्तराखंड का वोटर ठंडे दिमाग से फैसला करता है. पिछले चुनाव में हरीश रावत को भी इसी तरह वोटर ने घर बैठाया था. वे दो जगह से चुनाव लड़े थे और हार गए. भुवन चंद्र खंडूरी की हार 2012 के विधानसभा चुनाव में हुई थी. पिछले तीन चुनाव से उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के हारने का ट्रेंड झारखंड की तरह ही बना हुआ है.
विपक्ष की मजबूती रणनीति बनती है मुख्यमंत्री की हार का कारण?
पश्चिम बंगाल में वोटर आमतौर पर सत्ता विरोधी लहर में मुख्यमंत्री को घर बैठाता है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बुद्धदेव भट्टाचार्य भी 2011 के विधानसभा चुनाव में जादवपुर की जनता द्वारा नकार दिए गए. इससे पहले बंगाल में प्रफुल्ल चंद्र सेन की हार मुख्यमंत्री रहते हुए ही हुई थी. वे कांग्रेस पार्टी से थे. 1967 के जिस चुनाव में सेन अपने विधानसभा क्षेत्र में पराजित हुए वह दौर कांग्रेस विरोध की राजनीति का था. कई राज्यों की कांग्रेस राजनीति में उथल-पुथल हुई थी.
नंदी ग्राम से ममता बनर्जी की हार उस स्थिति में हुई जब उनकी पार्टी को जनता ने दो तिहाई से ज्यादा सीटों के साथ सरकार बनाने का मौका दिया. ममता बनर्जी ने अपनी चुनावी रणनीति के तहत नंदीग्राम को चुनाव था. नंदीग्राम उनकी परंपरागत सीट नहीं थी. लेकिन, नंदीग्राम वह स्थान जरूर था, जहां से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का मार्ग मिला था. नंदीग्राम ममता बनर्जी भाजपा के शुभेंदु अधिकारी से चुनाव हारीं थीं. अधिकारी तृणमूल कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे. नंदीग्राम में अधिकारी का मजबूत जनाधार है. भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के बाद चुनाव में हिंदुत्व का मुद्दा ममता बनर्जी के चेहरे पर भारी पड़ा था. नंदीग्राम में ममता बनर्जी की हार में विपक्ष की मजबूत रणनीति बेहद महत्वपूर्ण रही.
निर्वाचन क्षेत्र की अनदेखी पड़ जाती है भार
उत्तराखंड में पुष्कर धामी हारते हैं तो वजह विपक्ष की रणनीति या घेराबंदी कारण नहीं दिखती. राजनीतिक परिदृश्य सत्ताधारी दल भाजपा के पक्ष का था. यद्यपि भाजपा को 2017 के विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार दस सीटें कम मिली हैं. लेकिन, सत्ता चलाने के लिए उसके पास स्पष्ट बहुमत है. लेकिन,धामी खुद के मामले में अच्छे फिनिशर साबित नहीं हुए. धामी लगभग छह माह पहले ही तीरथ सिंह रावत के स्थान पर मुख्यमंत्री बनाए गए थे. उस वक्त रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उनकी तुलना क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी से करते हुए उन्हें अच्छा फिनिशर बताया था. राजनाथ सिंह का इशारा उत्तराखंड की राजनीतिक स्थितियों की ओर था. एंटी इनकंबेंसी हावी दिखाई दे रही थी. इसे काबू में करने के लिए ही भाजपा ने पांच साल में तीन मुख्यमंत्री इस राज्य को दिए. धामी अपनी जीत को लेकर आत्मविश्वास से भरे रहे. धामी के खटीमा विधानसभा सीट पर कांग्रेस के भुवन कापड़ी चुनाव जीते हैं. कापड़ी ने जातीय समीकरणों को साधकर जीत दर्ज की है. धामी की हार निर्वाचन क्षेत्र की चुनाव के वक्त अनदेखी का परिणाम है. धामी पूरे उत्तराखंड में पार्टी के लिए प्रचार करते रहे और खुद के निर्वाचन क्षेत्र में खिसकती जमीन की अनदेखी की.
दो सीट से चुनाव कमजोर आत्म विश्वास का प्रतीक
भारतीय राजनीति में ऐसे कई उदाहरण मौजूद है, जिनसे यह सबका लिया जा सकता है कि एंटी इनकंबेंसी यदि हावी है तो वह सीट बदलने अथवा एक साथ दो सीटों से चुनाव लड़ने से भी कम नहीं हो सकती. किसी मुख्यमंत्री एक साथ दो सीटों से चुनाव लड़ना इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वह अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं है. पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी ने भी दो स्थानों से चुनाव लड़ा था. दोनों ही स्थानों से वे चुनाव हार गए. चन्नी की हार में दो संकेत साफ है. पहला एंटी इनकंबेंसी को जाति का गणित लगाकर कम नहीं किया जा सकता है. दूसरा वोटर पार्टी की अंदरूनी कलह को पसंद नहीं करता है. पंजाब में कांग्रेस ने अमरिंदर सिंह को हटाकर चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया था. कांग्रेस को उम्मीद थी कि पंजाब में दलित चेहरा देने से सत्ता को बचाया जा सकता है. पंजाब में कुल 117 विधानसभा की सीटें हैं. इसमें 34 सीटें अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं. पंजाब में इस वर्ग की आबादी अन्य राज्यों की तुलना में काफी ज्यादा है. अनुसूचित जाति का वोटर सामान्य सीटों पर निर्णायक होता है. इसके बाद भी कांग्रेस हारी और चन्नी भी चूक गए. चन्नी ने चमकौर साहिब और भदौर से चुनाव लड़ा था.
पंजाब की तरह ही दिल्ली में भी शीला दीक्षित मुख्यमंत्री रहते चुनाव हारी थीं. हराने वाले अरविंद केजरीवाल थे. हरीश रावत भी ऐसे कांग्रेसी नेता हैं जो मुख्यमंत्री रहते हुए एक साथ दो सीटों से चुनाव हारे थे. मुख्यमंत्री रहते चुनाव हारने वाले कई चेहरे भारतीय राजनीति में है. इनमें मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कैलाश नाथ काटजू भी एक है. काटजू भितरघात के चलते 1962 का चुनाव जावरा सीट से हारे थे. मुख्यमंत्री रहते चुनाव हारने वाले अधिकांश नेता कांग्रेस पार्टी के हैं. कर्नाटक में मुख्यमंत्री रहते सिद्धारमैया भी चुनाव हारे थे. वे भी दो सीटों से चुनाव लड़े थे. एक सीट चामुंडेश्वरी में चुनाव हार गए थे. दूसरी सीट बादामी में मामूली अंतर से जीत मिल पाई थी. मिजोरम के मुख्यमंत्री रहे ललथनहवला ने भी दो सीटों से चुनाव लड़ा था. दोनों ही सीटों चुनाव हार गए. वे पांच बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे. मुख्यमंत्री रहते चुनाव हारने वालों वीरभद्र सिंह और हेमंत सोरेन का नाम भी है.
मुख्यमंत्रियों की हार से कितना बदलेगा नेतृत्व
बंगाल से लेकर उत्तराखंड तक के चुनाव में मुख्यमंत्री की हार राजनीतिक दलों के अलावा अन्य राज्यों के मौजूदा मुख्यमंत्रियों को भी संभलने का संकेत दे रही हैं. आने वाले कुछ महीनों में गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में भी विधानसभा के चुनाव होना है. धामी की हार के बाद भाजपा राज्यों के नेतृत्व को लेकर ज्यादा सतर्क दिखाई देगा. पुराने दौर की कांग्रेस में यह चलन था कि मुख्यमंत्री के पद बैठे व्यक्ति को सामान्यत: पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया जाता है. समय से पहले मुख्यमंत्री बदलकर कांग्रेस नेतृत्व गुटीय संतुलन भी बना लेता था और एंटी इनकंबेंसी भी हावी नहीं होती थी. भाजपा गुजरात और उत्तराखंड में भी इसी रणनीति पर आगे बढ़ी. कांग्रेस पंजाब में संतुलन नहीं बना पाई. अब राजस्थान और छत्तीसगढ़ की चुनौती उसके सामने हैं. वैसे भी कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व इतिहास के सबसे कमजोर दौर में है.