सड़कों पर कब्जा होने का खतरा, शांतिपूर्ण आंदोलन की जगह अराजकतापूर्ण था किसानों का प्रदर्शन

सड़कों पर कब्जा होने का खतरा

Update: 2021-12-15 05:21 GMT
राजीव सचान। आखिरकार कृषि कानून विरोधी आंदोलन समाप्त हो गया, लेकिन आंदोलनकारियों की वापसी के साथ ही उनके द्वारा कब्जा की गईं सड़कों से आवागमन शुरू नहीं हो सका, क्योंकि यह कब्जा एक तरह का स्थायी रूप ले चुका था। इन आंदोलनकारियों ने दिल्ली के सीमांत इलाकों की तीन सड़कों को अपने कब्जे में ले रखा था। इसके चलते दिल्ली-एनसीआर के लाखों लोग प्रतिदिन अपना समय और संसाधन जाया कर अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए मजबूर रहे। कथित किसान नेता यह बहाना बनाते रहे कि सड़कें हमने नहीं, दिल्ली पुलिस ने बंद कर रखी हैं और उसी की बैरिकेडिंग के कारण आवागमन बाधित है, लेकिन यह निरा झूठ था।
इस झूठ की पोल तब खुली, जब पुलिस ने अपनी बैरिकेडिंग हटा ली और फिर भी प्रदर्शनकारी रास्ते खोलने को तैयार नहीं हुए। किसान नेता अपने आंदोलन को भले ही शांतिपूर्ण बताते हों, लेकिन वह अराजक प्रकृति का था। आखिर जिस आंदोलन के कारण लाखों लोगों का आवागमन बाधित हुआ हो और उद्योग-धंधों को बेहिसाब नुकसान उठाना पड़ा हो, उसे शांतिपूर्ण कैसे कहा जा सकता है? इस आंदोलन की शुरुआत भी अराजकता से ही हुई थी। पंजाब में आंदोलनकारी पहले रेल पटरियों पर बैठे, फिर उन्होंने मोबाइल टावरों पर हमले किए। तब वहां अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री थे। उन्होंने इन आंदोलनकारियों के खिलाफ कुछ नहीं किया।
केंद्र सरकार एक अर्से तक कृषि कानून विरोधी आंदोलनकारियों को आंदोलनजीवी आदि बताती रही, लेकिन फिर उसने उन्हीं के आगे हथियार डाल दिए। उसने पहले तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की और फिर आंदोलनकारियों की अन्य मांगें भी मान लीं। इनमें आंदोलनकारियों पर दर्ज मुकदमे वापस लेना भी शामिल है और धरने-प्रदर्शन के दौरान बीमारी, कोरोना महामारी, सड़क हादसों में मरे किसानों को मुआवजा देना भी। किसान नेताओं के अनुसार आंदोलन के दौरान 750 से अधिक किसान मरे। य
ह आंकड़ा सही नहीं जान पड़ता, क्योंकि इस दावे पर यकीन करें तो इसका मतलब होगा कि हर दिन दो किसान मरे। सही आंकड़ा जो भी हो और आंदोलन के दौरान मरे किसानों के परिवार वालों को चाहे जितना मुआवजा मिले, यह सवाल तो उठेगा ही कि क्या वे लाखों लोग मुआवजे के हकदार नहीं, जो आंदोलनकारियों की ओर से सड़कों को घेरे जाने के कारण अपने समय और पैसे की बर्बादी के लिए विवश हुए?
कृषि कानून विरोधी आंदोलनकारी साल भर से अधिक समय तक सड़कों पर कब्जा किए बैठे रहे, लेकिन केंद्र सरकार ने उनसे सड़कों को खाली कराने और इन रास्तों से निकलने वालों के नागरिक अधिकारों को बहाल करने की कभी कोशिश नहीं की। उसकी मजबूरी समझी जा सकती है। यदि वह बल प्रयोग के जरिये सड़कों को मुक्त कराती तो इस आंदोलन के और भड़कने के साथ ही हिंसक हो उठने का खतरा था। सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी, लेकिन अफसोस की बात है कि वह भी अपनी नाक के नीचे नागरिक अधिकारों को कुचले जाते हुए देखता रहा।
उसने रास्तों पर कब्जा करने को अनुचित तो कई बार कहा, लेकिन ऐसा कोई आदेश कभी नहीं दिया कि आंदोलनकारियों के कब्जे वाली सड़कें खाली कराई जाएं। इन सड़कों को खाली कराने की मांग वाली कई याचिकाएं उसके समक्ष दायर हुईं, लेकिन पता नहीं क्यों उसने कुछ न करना ही बेहतर समझा। जिस सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कृषि कानूनों पर अमल रोक दिया था, उसने देश की राजधानी में सड़कों पर अवैध कब्जे के खिलाफ जिस तरह कुछ नहीं किया, उस पर न केवल सवाल उठने चाहिए, बल्कि उनके जवाब भी मांगे जाने चाहिए। इसलिए मांगे जाने चाहिए, क्योंकि कल को अन्य कोई संगठन-समूह इसी तरह सड़कों या रेल पटरियों पर बैठकर किसी कानून को खत्म करने की जिद पकड़ सकता है।
इसकी आशंका इसलिए है, क्योंकि नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में इसी तरह का आंदोलन हो चुका है। तब भी दिल्ली के शाहीन बाग इलाके की सड़क को मुक्त कराने के लिए न सरकार ने कुछ किया था और न ही सुप्रीम कोर्ट ने। यह तो गनीमत रही कि कोरोना के भय से आंदोलनकारी खुद ही भाग गए थे, अन्यथा यह आंदोलन और लंबा खिंचता। यह ध्यान रहे कि इसी आंदोलन के कारण दिल्ली में उस वक्त भीषण दंगे हुए थे, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत में थे। यह भी ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने शाहीन बाग आंदोलनकारियों से वार्ता के लिए एक समिति भी नियुक्त कर दी थी। इसके कारण आंदोनकारियों को यही संदेश गया कि उनकी ओर से सड़क पर कब्जा करना जायज है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह दिल्ली के सीमांत इलाकों की तीन महत्वपूर्ण सड़कों पर किए गए कब्जे को खाली कराने के लिए कुछ नहीं किया, उससे ऐसा ही संदेश कृषि कानून विरोधी आंदोलनकारियों को भी गया हो तो हैरत नहीं।
यह सही है कि शाहीन बाग आंदोलन खत्म होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया था कि धरने-प्रदर्शन के नाम पर सार्वजनिक स्थलों पर अनिश्चितकाल तक कब्जा नहीं किया जा सकता और प्रदर्शन का अधिकार कहीं भी-कभी भी नहीं हो सकता, लेकिन यह आदेश 'का वर्षा जब कृषि सुखाने' जैसा था। तथ्य यह भी है कि यह आदेश आने के पहले ही पंजाब में किसान आंदोलनकारी रेल पटरियों पर बैठ गए थे। इस आदेश का उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। हां, पंजाब और रेलवे को अरबों रुपये का नुकसान अवश्य उठाना पड़ा।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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