बंगाल पुलिस के पतन की पराकाष्ठा: वामपंथियों के समय शुरू हुआ बंगाल में पुलिस का पतन अब ममता के राज में भी जारी

पुलिस प्रशासनिक ढांचे की रीढ़ है

Update: 2021-07-22 06:32 GMT

[ यशपाल सिंह ]: पुलिस प्रशासनिक ढांचे की रीढ़ है, किंतु अगर वही रीढ़ रोगग्रस्त हो जाए तो फिर प्रशासनिक व्यवस्था का क्या होगा? बस वही जो आज बंगाल में हो रहा है। देश में कानून का राज है। कानून बिना भेदभाव के सभी नागरिकों के लिए समान है, पर बंगाल में जिन लोगों ने भाजपा को वोट दिया या समर्थन किया, उनके साथ सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता बेखौफ होकर कुछ इस तरह व्यवहार कर रहे हैं जैसे वे देशद्रोही हों। शर्मनाक यह है कि पुलिस मूकदर्शक बनी हुई है। कई मामलों में तो वह अराजकता फैलाने वाले गुंडों का ही साथ दे रही है। इसीलिए मानवाधिकार आयोग को यह कहना पड़ा कि बंगाल में कानून का नहीं, शासकों का कानून चल रहा है। बंगाल के हालात हमारे संघीय ढांचे पर कुठाराघात हैं। इसके परिणाम अत्यंत घातक हो सकते हैं। ऐसा नहीं है कि यह सब रातोंरात हो गया। बंगाल पुलिस के पतन के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जिम्मेदार हैं।

बंगाल में पुलिस का पतन तब प्रारंभ हुआ जब वामपंथी सत्ता में थे

बंगाल में पुलिस का पतन 30-35 साल पहले तब प्रारंभ हुआ था जब राज्य में वामपंथियों की पकड़ मजबूत हुई और वे सत्ता में आए। उन्होंने कार्यकर्ताओं का एक मजबूत कैडर खड़ा किया और जिले के पार्टी सचिव के पद को अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया। प्रारंभ में पार्टी सचिव पुलिस अधीक्षक से समय लेकर मिलते और समस्याएं रखते, परंतु बाद में उन्हें ही अपने पास बुलाने लगे। बात और आगे बढ़ी तो जब नया पुलिस अधीक्षक किसी जिले में जाता तो उसे पहले से ही चार-पांच लोगों के नाम बता दिए जाते कि उनसे वह स्वयं जाकर मिले। इससे पार्टी पदाधिकारी बहुत मजबूत हुए। वे पुलिस से जो चाहते, करा लेते। पुलिस का भय धीरे-धीरे कम होता गया। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अकेले दम पर संघर्ष छेड़कर वामपंथियों को परास्त तो कर दिया, लेकिन वही वामपंथी नेता-कार्यकर्ता धीरे-धीरे उनकी पार्टी से जुड़ गए, क्योंकि उन्होंने सत्ता का स्वाद चख लिया था। इस प्रक्रिया ने पुलिस का इकबाल ध्वस्त कर दिया। अब तो तृणमूल कांग्रेस की ओर से यहां तक कहा जाता है कि पुलिसिंग हम करेंगे।

गृहमंत्री, राज्यपाल की चेतावनियों के बाद भी स्थिति में सुधार नहीं

जब पुलिसिंग सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता करेंगे तो फिर प्रशासन कहां जाएगा? हाल के चुनावों के बाद भाजपा समर्थकों का जो भीषण उत्पीड़न हुआ, वह इसी का परिणाम है। गृहमंत्री, राज्यपाल की चेतावनियों के बाद भी स्थिति में सुधार नहीं हुआ, क्योंकि बंगाल में पुलिस का मतलब कुछ नहीं रह गया है। ऐसे माहौल में पुलिस में भ्रष्टाचार खूब पनपा। उच्च अधिकारी भी इससे अछूते नहीं रहे। स्वाभाविक है कि पूरे प्रदेश के प्रशासन पर इसका बुरा असर पड़ा। पुलिस का पतन तो सड़क पर दिखाई पड़ने लगता है, औरों का दिखाई नहीं पड़ता, परंतु वह दीमक की तरह व्यवस्था को खोखला कर देता है। आम तौर पर क्षेत्रीय पार्टियों का एकमात्र उद्देश्य केवल सरकार बना लेना ही होता है। उनकी सरकारों में हर प्रकार के माफिया खूब फलते-फूलते हैं। इसके बाद भी जनप्रतिनिधि प्रसन्न रहते हैं, क्योंकि वे किसी भी अधिकारी को पार्टी विरोधी बताकर हटवा देते हैं। अपने क्षेत्र के थानों को वे निजी थाना समझते हैं।

मुख्यमंत्री ने मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट को किया दरकिनार

बंगाल गई मानवाधिकार आयोग की टीम ने अपनी जांच में तमाम शिकायतों को सही पाया और यह सिफारिश की कि हत्या, दुष्कर्म आदि मामलों की जांच सीबीआइ द्वारा कराई जाए ताकि दोषियों को सजा दी जा सके, परंतु मुख्यमंत्री ने आयोग की रिपोर्ट को ही दरकिनार कर दिया। आखिर नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों और कानून के राज का मतलब क्या है? पुलिस और प्रशासन का कार्य क्या है?

सरदार पटेल ने अखिल भारतीय सेवाओं को देश के संघीय ढांचे के लिए 'स्टील फ्रेम' कहा था

देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने अखिल भारतीय सेवाओं को देश के संघीय ढांचे के लिए 'स्टील फ्रेम' कहा था। एक अर्से से कहा जा रहा है कि अब इस स्टील फ्रेम में जंग लग गई है। अधिकारी प्रशिक्षण समाप्ति के समय संविधान की शपथ लेते हैं और लोकसेवक के रूप में सेवा प्रारंभ करते हैं, परंतु पार्टियां उन्हें पार्टी कार्यकर्ता के रूप में प्रयोग करना चाहती हैं। जो इसका विरोध करते हैं, उनका वे उत्पीड़न करती हैं, क्योंकि उन्हें न्यायपालिका की तरह कोई विधिक सुरक्षा प्राप्त नहीं होती। उत्तर प्रदेश में 2006-07 में एक पुलिस अधिकारी को नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा था, क्योंकि उसने मुख्तार अंसारी गैंग द्वारा अवैध रूप से खरीदी लाईट मशीन गन को बरामद कर लिया था। इस बरामदगी के बाद उसने मुख्तार समेत कई पर एफआइआर करा दी। बाद में उस पर उच्चतम स्तर से दबाव डाला जाने लगा कि एफआइआर वापस लो। यह असंभव था। फिर उसका उत्पीड़न प्रारंभ हुआ और उसने इस्तीफा दे दिया। उत्तर प्रदेश में सरकार बदलने के साथ लोग इस मामले को भूल गए, परंतु बंगाल में वही सरकार काफी दिनों तक रहीं, अत: ऐसी अनेक घटनाएं छोटे-बड़े पैमाने पर होती रहीं और आज वे प्रशासनिक कैंसर बन गई हैं।

बंगाल में पुलिस-प्रशासन का पतन रुके

अखिल भारतीय सेवाओं का स्टील फ्रेम स्वरूप बनाए रखना केंद्र का दायित्व है। उसे हर हाल में इस दायित्व का पालन करना होगा, चाहे नियमावली बदलनी पड़े। आइपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह द्वारा इस संबंध में दायर की गई जनहित याचिका का उद्देश्य यही था कि पुलिस का पतन रुके। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका की सुनवाई करते हुए सितंबर 2006 में दिशानिर्देश भी जारी किए, लेकिन प्रदेश सरकारों ने कुछ नहीं किया, क्योंकि वे पुलिस को हमेशा अपनी पार्टी का लठैत बनाकर रखना चाहती हैं। कानून का राज समाज में विश्वास और सुरक्षा का वातावरण बनाता है, जिससे उसके सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। यह सही समय है कि केंद्र सरकार बंगाल के पुलिस-प्रशासन के पतन के मूल कारणों का पता लगाने के लिए एक आयोग गठित करे, जो गहन समीक्षा कर अपनी आख्या दे, ताकि इस राज्य में अखिल भारतीय सेवाओं की गुणवत्ता बनाए रखने संबंधी कदम समय रहते उठाए जा सकें। संवैधानिक प्रजातंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए ऐसे कदम आवश्यक हैं।

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