न्यायपालिका की स्वतंत्रता-निष्पक्षता बनाए रखते हुए न्यायिक नियुक्तियों का खोजा जा सकता है श्रेष्ठ मार्ग

न्यायिक नियुक्तियों का खोजा जा सकता है श्रेष्ठ मार्ग

Update: 2021-12-06 05:31 GMT
हृदयनारायण दीक्षित। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था अद्वितीय है, जिसके विधायिका न्यायपालिका व कार्यपालिका जैसे तीन स्तंभ हैं। संविधान निर्माताओं ने शक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत अपनाया है। इस सिद्धांत को उन्होंने नीति निर्देशक तत्वों में भी स्पष्ट किया है। सर्वोच्च न्यायालय की अपनी गरिमा है। वह संविधान का व्याख्याता और संरक्षक भी है। यह अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय से भी शक्तिशाली है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की अपीलीय अधिकारिता परिसंघीय संबंधों से उत्पन्न मामलों तक सीमित है, लेकिन हमारी न्यायपालिका ने अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाया है।
जजों की नियुक्तियों के मसले पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की बैठक में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश नहीं गए। तब तक कोर्ट ने आयोग की विधिमान्यता को निरस्त नहीं किया था। संसद के दोनों सदनों व आधे से अधिक विधानमंडलों में उक्त आयोग से संबंधित 99वां संविधान संशोधन पारित किया गया था। तब यह भारत की विधि का भाग था। बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध बताकर निरस्त कर दिया था। संविधान में मूल ढांचे का उल्लेख नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने आधारिक लक्षण या अपरिगणित मूल अधिकार आदि कई नवीन सिद्धांत प्रतिपादित किए। पता नहीं कि किन-किन क्षेत्रों में नए सिद्धांतों का विस्तार होगा। अंतिम निर्णय न्यायालय का है। संविधान संशोधन विधायिका का अधिकार है। विधायिका ने उसके सदुपयोग से नियुक्ति आयोग बनाया था। आखिरकार संवैधानिक विधि का निरसन विधायिका के क्षेत्रधिकार का अतिक्रमण क्यों नहीं है?
ताजा मसला विधायिका पर गंभीर टिप्पणी है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने संविधान दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में कहा है कि विधायिका कानूनों के प्रभाव का आकलन नहीं करती, जो कभी-कभी बड़े मुद्दों की ओर ले जाते हैं। इससे न्यायपालिका पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है।' संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्र विधायिका की व्यवस्था दी है। कानून बनाना विधायिका का काम है। विधायिका के सदस्य निर्वाचित जनप्रतिनिधि होते हैं। वे सरकार बनाते हैं। विधायिका मंत्रिपरिषद को जवाबदेह बनाती है। मंत्रिमंडल नीति निर्धारित करता है। विधायिका सदन में कार्यपालिका नीति की चर्चा करती है। विधि निर्माण की प्रक्रिया भी संविधान में सुस्पष्ट है। मंत्रिपरिषद विधि बनाने या संशोधन के लिए विधेयक लाती है। विधेयक में संबंधित विधि का विस्तृत औचित्य बताया जाता है। सदन में चर्चा होती है। यह कहना गलत है कि विधायिका कानून के प्रभाव का अध्ययन नहीं करती।
भारतीय विधायी संस्थाओं ने अनगिनत उपयोगी कानून बनाए हैं। वे 'कानून के प्रभावी आकलन' के बाद ही अधिनियमित हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के ही कई निर्णय विधि बन जाते हैं। उनके प्रभाव दूरगामी होते हैं। बहुधा न्यायालयों के निर्णयों से बनी विधि अव्यावहारिक भी होती है। दलबदल विरोधी कानून में सुनवाई से लेकर निर्णय के अधिकार संसद व विधानमंडल के अध्यक्ष/सभापतियों पर होते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले में ऐसी सुनवाई के लिए तीन माह का समय निर्धारित किया है। न्यायालयों में तमाम मुकदमें लंबी अवधि तक चलते हैं। न्यायपालिका ने अपने लिए मुकदमों के निस्तारण की कोई अवधि क्यों नहीं बनाई? बंगाल हिंसा और शाहीन बाग जैसे कई मसले हैं। न्यायालयों से अतिरिक्त सक्रियता की अपेक्षा थी। कई बार न्यायमूर्ति सरकार या वादी-प्रतिवादी को फटकारते हैं। उससे कार्यपालिका के वरिष्ठ अधिकारी भी आहत महसूस करते हैं। संविधान दिवस पर आयोजित उसी कार्यक्रम में राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने कहा, 'यह न्यायाधीशों का दायित्व है कि वे अदालत कक्षों में अपनी बात कहने में अत्यधिक सावधानी/विवेक का प्रयोग करें।
अविवेकी टिप्पणी भले ही भली मंशा से की गई हो, परंतु न्यायपालिका के महत्व को कम करने वाली संदिग्ध व्याख्याओं को जगह देती है।' राष्ट्रपति की यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। अपने तर्क के समर्थन में उन्होंने डेनिस बनाम अमेरिका मामले में अमेरिकी उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश फ्रेंकफर्ट को उद्धृत किया है। फ्रेंकफर्ट ने कहा था, 'अदालतें प्रतिनिधि निकाय नहीं हैं। ये लोकतांत्रिक समाज का अच्छा प्रतिबिंब बनने के लिए डिजाइन नहीं की गईं।' न्यायपालिका की स्वतंत्रता अविनाशी है। इसका संरक्षण जरूरी है। राष्ट्रपति ने ठीक कहा है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता तब खतरे में पड़ जाती है जब अदालतें भावना संबंधी जुनून में झूल जाती हैं और प्रतिस्पर्धी राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक दबाव के बीच चयन करने में प्राथमिक जिम्मेदारी लेना शुरू कर देती हैं।'
प्रधान न्यायाधीश ने यह भी कहा कि तमाम लोग मानते हैं कि अदालतें कानून बनाती हैं। यह गलतफहमी है, लेकिन सही बात यही है कि न्यायालयों के निर्णयों से बहुधा कानून निकलते हैं। ऐतिहासिक केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में ही एक नई प्रस्थापना आई कि 'संविधान के कुछ आधारिक लक्षण हैं। यदि संविधान संशोधन अधिनियम संविधान की आधारिक संरचना या ढांचे को प्रभावित करने वाला है तो न्यायालय उसे शून्य घोषित करने का पात्र होगा।' वस्तुत: संविधान के आधारिक लक्षण का कोई उल्लेख संविधान में नहीं। संविधान सभा में भी ऐसे विषय पर किसी चर्चा का संदर्भ नहीं। आधारिक लक्षणों की अंतहीन सूची एक कल्पना जैसी है। निष्पक्ष न्यायपालिका भी इसी सूची का अंश है और इसी आधार पर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग को न्यायपालिका ने निरस्त किया था। न्यायिक सक्रियता पर भी यदाकदा सवाल उठते हैं और निष्क्रियता पर भी। न्यायालय द्वारा एक मामले में सरकारी अधिवक्ता पर टिप्पणी की गई कि आप काम नहीं करेंगे तो क्या हम चुप बैठे रहेंगे? सुनने में यह अच्छा लगता है, लेकिन इसका अर्थ गंभीर है।
अगर विधायिका और कार्यपालिका अपेक्षानुसार काम नहीं करती तो क्या न्यायालय, कार्यपालिका व विधायिका का काम करेंगे? कभी ऐसा प्रतीत हो कि न्यायपालिका अपना काम नहीं करती तो क्या विधायिका न्यायपालिका का काम करने लगेगी? संविधान ने तीनों महत्वपूर्ण स्तंभों को कर्तव्य और अधिकार सौंपे हैं। सब अपनी सीमा में रहें, उसी में भारत का भविष्य उज्ज्वल है। न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था विचारणीय है। राष्ट्रपति जी ने उचित ही कहा कि न्यायपालिका में स्वतंत्रता-निष्पक्षता बनाए रखते हुए नियुक्तियों का श्रेष्ठ मार्ग खोजा जा सकता है। इस पर विमर्श होना चाहिए।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)
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