यदि किसान नेताओं की सरकार से कहीं कोई बात नहीं हो रही है तो इसके लिए जिम्मेदार वे स्वयं हैं। जनवरी के बाद किसानों और सरकार के बीच बातचीत के रास्ते पूरी तरह बंद हैं। किसान नेता केंद्र सरकार से कह रहे हैं कि तीनों कृषि कानून वापस लो तभी कोई बात होगी। वापस नहीं लोगे तो आंदोलन जारी रहेगा। सरकार का कहना है कि यह शर्त नहीं मानी जा सकती। सरकार किसान नेताओं से पूछ रही है कि वे यह बताएं कि आखिर इन कानूनों में खराबी कहां है? सरकार के इस सवाल का जवाब देने के लिए ये आंदोलनजीवी तैयार नहीं हैं। किसान आंदोलन से जुड़े लोग अपनी जिद और हठधर्मिता पर उतरे हुए हैं।
पहले पंजाब के किसानों की बात करते हैं। पंजाब में भूमिगत जल स्तर बहुत नीचे जा चुका है। हालात लगातार खराब हो रहे हैं। इससे बेपरवाह किसान धान और गेहूं की खेती करने के अलावा कुछ और बदलाव करने को तैयार नहीं, जबकि इन दोनों फसलों की खेती के लिए पानी की खूब खपत और मांग होती है। इन फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य तो मिलता ही है, बिजली और पानी भी मुफ्त मिलता है। इसके अलावा खाद पर सब्सिडी भी मिलती है। पंजाब का किसान अपनी फसलों पर तमाम तरह के कीटनाशक डालता है। इस कारण जो उनके उगाए अनाज का सेवन करते हैं, उन्हें कैंसर जैसे असाध्य रोग कहीं आसानी से अपनी चपेट में ले रहे हैं। पंजाब में धरती बंजर हो रही है, लेकिन वहां के किसान इसे समझने को तैयार नहीं। वे पराली जलाने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। नए कृषि कानूनों से किसानों के हित सुरक्षित हैं, पर वे मान नहीं रहे। यह शीशे की तरह से साफ है कि किसानों का यह कथित आंदोलन कुछ विरोधी दलों, वामपंथी ताकतों, एनजीओ और साथ ही संदिग्ध किस्म के तत्वों के बल पर चल रहा है। यही लोग कभी नागरिकता संशोधन कानून और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के विरोध में सड़कों पर आ जाते हैं। बस इनके चेहरे बदलते हैं। ये सड़कों और हाईवे पर बैठ जाते हैं। आम जन को इनके धरने के कारण कितना भी नुकसान हो, इसकी परवाह नहीं की जाती। यह देश ने शाहीन बाग में भी देखा था।
अब हरियाणा के किसानों की बात करें, तो किसानों के कथित आंदोलन के साथ मुख्य रूप से राज्य के जाट जुड़े हुए हैं। इन्हें गुस्सा इस कारण से है कि राज्य में लगातार दो बार इनके समर्थन के बिना भाजपा की सरकार बन गई। पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ और दूसरी बार भाजपा को पूर्ण बहुमत से कुछ कम सीटें मिलीं। हरियाणा के जाट नेताओं को लगता है कि भाजपा ने उनकी ताकत छीन ली और उन्हें सियासत की दुनिया में हाशिये पर डाल दिया। याद करें कि उन्होंने जाट आरक्षण की मांग को लेकर किस तरह अराजकता फैलाई थी। यह तब हुआ था, जब मनोहर लाल पहली बार सत्ता में आए ही थे।
अगर बात पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों की करें तो वे शुरू से ही इस आंदोलन के साथ नहीं थे। यहां के किसान मुख्य रूप से गन्ना किसान हैं और उनकी उपज चीनी मिलें खरीद लेती हैं। हां, वे उन्हें गन्ने की कीमत अदा करने में कुछ देरी कर देती हैं। खुद को राजनीतिक परिदृश्य में स्थापित करने के लिए राकेश टिकैत इस आंदोलन का हिस्सा बन गए, पर अब आंदोलन लंबा खिंचने के कारण कई किसान आंदोलन से दूर हो रहे हैं।
किसी भी आंदोलन की कोई सीमा होती है। करीब एक साल बाद भी किसान नेता यह नहीं बता पा रहे हैं कि कृषि कानूनों से किसानों को क्या और कैसे नुकसान होगा? क्या यह किसानों के लिए खराब स्थिति होगी कि वे अपनी उपज देश में कहीं भी, किसी भी व्यक्ति या संस्था को अपनी मर्जी की कीमत पर बेच सकें? सरकार किसानों से धान-गेहूं की खरीद तो पहले की ही तरह करती रहेगी और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का लाभ भी पहले की तरह देती रहेगी। अब किसान मंडी के साथ-साथ मंडी से बाहर भी अपनी उपज बिना रोकटोक बेच सकेंगे। एक बात और। जैसे कृषि कानूनों को लेकर आशंका जताई जा रही है, वैसे ही कभी आर्थिक सुधारों को लेकर भी जताई जा रही थी और यह कहा जा रहा था कि सेवा क्षेत्र तबाह हो जाएगा, लेकिन आज तीन दशक के बाद सेवा क्षेत्र में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। भारत की 20 फीसद आबादी सेवा क्षेत्र से जुड़ गई है।
किसान नेता कुछ भी दावा करें, आम किसान उनके आंदोलन का हिस्सा नहीं रह गए हैं। वे तो अपने खेतों में काम कर रहे हैं। लोकतंत्र में अहिंसक आंदोलन करने का सबको अधिकार है। किसान नेताओं को भी है, लेकिन वे आंदोलन के नाम पर मनमानी नहीं कर सकते।
(लेखक पूर्व सांसद एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)