आतंकवाद और बॉलीवुड की फिल्में
टेरेरिज़्म को अगर बॉलीवुड की क्रिएटिविटी से जोड़ें तो पता चलता है कि
टेरेरिज़्म को अगर बॉलीवुड की क्रिएटिविटी से जोड़ें तो पता चलता है कि आतंकवाद पर हुए क्रिएशन बॉक्स आफिस पर पैसे बरसाने वाले रहे हैं. आतंकवाद पर बॉलीवुड में अच्छी फिल्में भी बनी हैं, बुरी भी. खूब चलने वाली भी और भद्द पिटवाने वाली भी. लेकिन न चलने वाली फिल्मों की संख्या कम है. बाकी बातें छोड़ दें तो कहा जा सकता है यह भारतीय दर्शकों का पसंदीदा विषय है, जब ज़ोनर को दर्शक पसंद करेंगे, तो निर्माता-निर्देशक को तो भाएगा ही.
आपको फिल्म 'रोज़ा' का वो मीठा और मधुर गीत याद है ना 'दिल है छोटा सा छोटी सी आशा.' 'रोज़ा' आतंकवाद पर शायद पहली फिल्म थी, लेकिन उसकी याद अभी भी ताज़ा है. निर्देशक मणिरत्नम की यह फिल्म कश्मीर और आतंकवाद के बेक ड्राप पर सति सावित्री और सत्यवान के संबंधों पर आधारित थी. इसमें तमिलनाडु के एक छोटे से गांव की सामान्य सी लड़की अपने पति को खोजने का प्रयास करती है. उसके पति को एक गुप्त मिशन के अंतर्गत आतंकवादियों द्वारा अपहरण कर लिया गया है.
इस फिल्म से संगीतकार ए.आर.रहमान ने डेब्यु किया था. बाद में, मणि और रहमान की इस जोड़ी ने 'बाम्बे' और 'दिल से' जैसे क्रिएशन किए. 'दिल से' भी आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर केन्द्रित फिल्म थी और इसके गाने भी मधुर थे, 'चल छैंया, छैंया' तो याद में गहरे बसा हुआ है ही. कहने का मतलब ये है कि आतंकवाद जैसे विषय पर बनी होने के बावजूद इन फिल्मों ने मेलोडी का दामन नहीं छोड़ा था.
अब गानों का जि़क्र ही चल पड़ा है बताते चलें कि इन गानों का पिक्चराईज़ेशन भी कमाल का था. फिर चाहे वो 'छोटी सी आशा' हो या फिर 'छैंया-छैंया'. छैंया तो अपने खूबसूरत दृश्य बंधों के कारण भी याद रखा जाता है. हरी-भरी वादियों में ट्रेन की छत पर गाती मलाईका अरोड़ा की पहचान ही उस गाने की बदौलत ही इंडस्ट्री में बनी थी. बहरहाल, एजेंट विनोद एक और टेरर आधारित फिल्म थी, जिसमें एक मधुर गाना रचा गया था, 'कुछ तो है तुझसे राब्ता' गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य और संगीतकार प्रीतम द्वारा रचित इस गीत को निर्देशक श्रीराम राघवन ने अद्भुत तरीके से फिल्म में जगह दी थी.
बहुत ही सुंदर लिरिक्स वाले इस मधुर गीत की पृष्ठभूमि में गोलियां चल रही हैं, मशीनगन है, जबरदस्त मारधाड़ है और इन सबके बीच एक अंधी लड़की पियानो प्ले कर रही है. ये कंट्रास आतंकवाद की और भी फिल्मों में देखने को मिलता है. 'फेंटम' को ही ले लीजिए और 'अफगान जलेबी' सुनिए, इस मधुर और खूबसूरत गीत के बेकड्राप में भरपूर मारधाड़ और गोलीबारी है. निर्देशन कबीर खान ने किया है. इस तरह के गीत के फिल्मांकन बताते हैं कि परिस्थितियां चाहे कैसी भी हों, भारतीय दर्शक-श्रोता को गाना तो मधुर ही लगेगा.
कबीर खान ने आतंकवाद पर एक था टाईगर, काबुल एक्सप्रेस, न्यूयार्क फिल्में भी की हैं. टाइगर फ्रेंचाइजी की और भी फिल्में इसी विषय पर बनी हैं. फ्रेंचाइजी में बाकी टीम बदली है लेकिन जोड़ी सलमान-कटरीना की ही रही है.
आज जबकि टेक्नोलॉजी अपने विकास के चरम पर है सो क्या आतंकवादी और क्या पुलिस फोर्स दोनो के ही पास गज़ेट्स की भरमार है. एक के पास विध्वंस के नए-नए हथियार हैं तो दूसरे के पास विध्वंस रोकने की नई-नई तकनीकें हैं. वेपन्स को छोड़ दें तो उन्नत तकनीक के इस दौर में कम्युनिकेशन्स के गज़ेट्स बहुत कमाल करते हैं. कल्पना कीजिए जब मोबाइल नहीं आया था, तब आतंकवादी और फोर्स दोनो ही अपने काम को कैसे अंजाम देते होंगे. फिल्म '16 दिसंबर' इसकी बेहतर बानगी पेश करती है.
भारतीय इतिहास में 16 दिसंबर एक बहुत ही सुनहरा दिन है. 1971 में इसी दिन पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सेना के सामने सरंडर किया था. '16 दिसंबर' इसी पृष्ठ भूमि पर बनी रोमांच और एक्शन से भरपूर फिल्म हैं. लेखक-निर्देशक मणिशंकर की यह फिल्म 16 दिसंबर 2001 को नई दिल्ली को परमाणु बम से नष्ट करने की साजिश के कथानक पर रची गई है. 2002 की इस फिल्म में डैनी डेंजोगपा, गुलशन ग्रोवर, मिलिंद सोमन, दीपनिता वर्मा, सुशांत सिंह शामिल थे.
फिल्म में एक्शन-थ्रिलर के कथानक को इतनी खूबसूरती से बुना गया है कि फिल्म दर्शक को सिनेमा हाल की कुर्सी से पूरे समय चुंबक की तरह चिपका कर रखती है. शुरू के दृश्यों में ही निर्देशक मणिशंकर बता देते हैं कि कहानी कहने का उनका अंदाज़ बहुत निराला और बिलकुल ज़ुदा रहने वाला है. क्लाईमेक्स चरम पर है. परमाणु बम विस्फोट होने में दो मिनिट बचे हैं. एक वाक्य वाइस कमांड के रूप में है जिससे बम डिफ्यूस हो सकता है – 'दुल्हन की बिदाई का वक्त बदलना है.'
यह वाइस कमांड आतंकवादी गुलशन ग्रोवर से कहलवाना है, जो कतई नहीं कहने वाला. मिलिंद सोमन बम के पास खड़ा है और डेनी के निशाने पर गुलशन ग्रोवर है, जिसे पता है कि दो मिनिटि में विस्फोट होना तय है, क्योंकि डिफ्यूज़ वही कर सकता है और वो लाइन दोहराने वाला नहीं. खुद भी मरने को तैयार खड़ा है. मिलिंद और सोमन सेटेलाइट फोन के माध्यम से संपर्क में हैं. डैनी टुकड़ों में गुलशन से वो शब्द कहलवाता है. मिलिंद साउंड कट करके जोड़ता है और इस तरह वाक्य पूरा होता है, दुल्हन यानि परमाणु बम की बिदाई का वक्त बदल दिया जाता है, हमेशा के लिए टाल दिया जाता है.
फिल्म का कथानक दो भागों में विभक्त है. कह सकते हैं दो कथानक हैं. पहले भाग को बहुत ही खूबसूरती से दूसरे भाग से लिंक किया गया है. मनी लांड्रिंग की छानबीन के तार आतंकवाद से जुड़ जाते हैं. मामला गंभीर तब हो जाता है जब जानकारी मिलती है कि पाक सेना के सरंडर के समय सेना के साथ दोस्त खान (गुलशन ग्रोवर) ने भी सरंडर किया था. उसे तभी से हिंदुस्तान से खुन्नस है और वो पाक सेना के अपमान का बदला लेना चाहता है. इस दौरान रूस का विघटन हो चुका है. वहां से एक परमाणु बम दोस्त के हाथ लग चुका है जिसके माध्यम से वो दिल्ली को तबाह करने की योजना बना रहा है. जो अंतत: असफल होती है.
आतंकवाद पर बनने वाली फिल्मों में इंडियाज़ मोस्ट वांटेड, बाटला हाउस, टाईगर जि़ंदा है, फैंटम, वज़ीर, नीरजा, शाहिद, बेबी, एजेंट विनोद, न्यूयार्क कुरबान, अ वेडनसडे, मिशन इश्ताम्बुल, यहां, हाईजेक, दस, फना, बंगिस्तारन, मुंबई मेरी जान, आमिर, मैं हूं ना, 16 दिसंबर, ब्लेक फ्राइडे, जो बोले सो निहाल,हीरो, लव स्टोरी ऑफ अ स्पाई, काबुल एक्सप्रेस, ज़मीन, मिशन कश्मीर, दिल से, माचिस, असंभव, लकी नो टाईम फार लव, देव आदि शामिल हैं.
आतंकवाद पर बनी फिल्मों में मारधाड़, हत्या, खूनखराबा एक्शन होना स्वाभाविक तौर पर जरूरी है. लेकिन क्या आप भरोसा करेंगे कि बॉलीवुड में आतंकवाद पर बनी सबसे बेहतरीन फिल्म में ना तो मारधाड़ है, न गोलीबारी, न बम विस्फोट, एक्शन भी थोड़ा बहुत ही है. वो फिल्म है – 'अ वेडनेसडे'. घर के लिए सब्जी-भाजी लेने निकले एक आम आदमी के इर्द-गिर्द बुनी इस कहानी को नीरज पांडे (लेखक-निर्देशक) ने दिलचस्प अंदाज़ में पेश किया है.
फिल्मी पंडित कहते हैं कि फिल्म में कहानी से ज्यादा पावरफुल स्क्रीनप्ले होता है. एक साधारण से कथानक को एक परफेक्ट स्क्रीनप्ले के सहारे असाधारण रूप दिया जा सकता है. इसीलिए तो कहा जाता है कि सिनेमा निर्देशक का माध्यम है. वेडनेसडे नसीरूद्दीन शाह और अनुपम खेर के निर्देशन के लिए भी याद की जाती है.
एक और फिल्म थी जिसके बेकड्राप में आतंकवाद था, फिल्म के मुख्य विलेन आतंकवादी थे. उनके इलाके पाकिस्तान के गांव में थे, उनके आतंकवादी के अड्डे थे, सब कुछ था लेकिन फिल्म में हिंसा नहीं थी. मजेदार बात ये है कि ये एक कॉमेडी फिल्म थी. 2013 में इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया था. फिल्म थी – फिल्मिस्तान.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शकील खान, फिल्म और कला समीक्षक
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.