सुंदरता के दुश्चक्र में किशोर
किशोरवय विद्यार्थियों में सौंदर्य संवर्धन से लेकर वजन घटाने और शारीरिक सौष्ठव के नाम पर अजब-गजब खानपान अपनाकर बलिष्ठ बनने से जुड़े उत्पादों का सेवन बढ़ जाता है।
मोनिका शर्मा: किशोरवय विद्यार्थियों में सौंदर्य संवर्धन से लेकर वजन घटाने और शारीरिक सौष्ठव के नाम पर अजब-गजब खानपान अपनाकर बलिष्ठ बनने से जुड़े उत्पादों का सेवन बढ़ जाता है। तकलीफदेह है कि खुद को सुंदरता की एक तयशुदा छवि में ढालने के फेर में बच्चे गलतियों के कुचक्र में फंस जाते हैं।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीइआरटी) द्वारा किए गए एक ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक देश के पैंतालीस प्रतिशत बच्चे अपनी शारीरिक संरचना से खुश नहीं हैं। नई पीढ़ी की एक बड़ी आबादी अपने वजन, रंग-रूप और ऊंचाई को लेकर हीन भावना से ग्रस्त है। गौरतलब है कि यह अध्ययन देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लगभग चार लाख स्कूली विद्यार्थियों को लेकर किया गया है। अपनी शारीरिक छवि को लेकर चिंतित बच्चों में छात्र और छात्राएं दोनों शामिल हैं।
यह वाकई चिंतनीय है कि मन-जीवन के निखार और व्यक्तित्व विकास के दौर में स्कूली बच्चे अपनी शारीरिक छवि को लेकर परेशान हैं। अच्छा दिखने के भाव से जुड़ी यह परेशानी असल में कई शारीरिक और मानसिक व्याधियों की जड़ बन रही है। इतना ही नहीं, कम उम्र में ही अपने निखार-संवार के लिए बच्चे बाजार के जाल में फंस रहे हैं। खेलकूद और अकादमिक स्तर पर बेहतर बनने का यह दौर उन्हें कई मनोवैज्ञानिक उलझनों में फंसा रहा है। शारीरिक संरचना को लेकर हमउम्र सहपाठियों से अपनी तुलना करने और खुद को कमतर आंकने की वजह से बच्चे अवसाद के घेरे में भी आ जाते हैं। किशोरमन में जड़ें जमाती यह असहजता कई मोर्चों पर उनके व्यक्तित्व और विचार दोनों को प्रभावित करती है।
हाल के बरसों में सोशल मीडिया और स्मार्ट गैजेट्स ने हर उम्र के लोगों को अपने व्यक्तित्व को लेकर सहज रहने के बजाय असहज बना दिया है। तस्वीरों की दुनिया का नया संसार है ही ऐसा कि कोई अपने असल रंग-रूप में नहीं दिखना चाहता। जबकि खुद के प्रति स्वीकार्यता की सोच अपने अस्तित्व की चेतना को मान देने से जुड़ी है। यह आत्मविश्वास की कुंजी है। वैचारिक स्तर पर बेहतर इंसान बनने का मार्ग सुझाती है।
अफसोस कि तकनीकी विस्तार ने शारीरिक छवि को लेकर भी एक-दूसरे की बराबरी करने और कमतरी की अनुभूति को बढ़ाने का काम किया है। सोशल मीडिया में अपने जीवन के हर पल को साझा करने की सोच ने कुछ ऐसा परिवेश बना दिया है कि स्कूली बच्चों को यह लगने लगा है कि उनके परिचित-अपरिचित मित्र, रिश्तेदार और सहपाठी सभी उनसे ज्यादा सुंदर दिख रहे हैं। ऊपर से तकनीक ने तस्वीरों में रंग-रूप बदलने की ढेर सारी सुविधाएं भी उपलब्ध करा दी हैं, जिसके चलते दूरदराज के इलाकों में बसे बच्चे भी खुद की तुलना तस्वीरों में दिख रहे हमउम्र बच्चों से करने लगते हैं।
दुखद है कि सामान्य-सा लगने वाला यह व्यवहार बच्चों के मन पर खासा असर करता है। मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि तकनीक ने संवाद के मोर्चे पर दूरियां घटाई हैं, पर दूसरे स्तर पर कमतरी और प्रतिस्पर्धा भी भावना बढ़ा दी है। शोध पत्रिका 'न्यूरो रेगुलेशन' में छपे एक अध्ययन के अनुसार सोशल मीडिया से ज्यादा जुड़ाव रखना इंसान के व्यवहार में बदलाव की वजह बन रहा है। डिजिटल माध्यमों की लत हमारी जैविक प्रतिक्रियाओं पर भी गहरा असर डाल रही है। ऐसे में कम उम्र में ही सौंदर्य संवर्धन और शारीरिक संरचना को एक तयशुदा खांचे में ढालने की सोच चिंतनीय है।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा बच्चों की मोबाइल फोन और अन्य उपकरणों की मदद से इंटरनेट तक बढ़ी पहुंच का शरीर, व्यवहार और मन पर पड़ने वाले प्रभावों से जुड़े अध्ययन में बताया गया था कि स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करने वाले लगभग 23.8 प्रतिशत बच्चे सोने से पहले स्मार्टफोन का उपयोग करते हैं। स्मार्टफोन के उपयोग के कारण 37.15 प्रतिशत बच्चों में एकाग्रता की कमी देखने को मिली है।
हालांकि कोरोना काल में आनलाइन पढ़ाई की मजबूरी ने बच्चों की स्मार्ट फोन तक पहुंच बढ़ा दी है, पर स्कूली बच्चों की एक बड़ी आबादी पढ़ाई से इतर भी इन गैजेट्स का इस्तेमाल करती है, जो न केवल उनका समय और सेहत छीन रहा है, बल्कि खुद के प्रति नापसंदगी की उलझन भी ला रहा है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के ही अभिभावकों, विद्यार्थियों और शिक्षकों को लेकर किए एक अन्य राष्ट्रव्यापी अध्ययन के मुताबिक केवल 10.1 फीसद बच्चे ही आनलाइन सीखने की गतिविधियों के लिए स्मार्टफोन का उपयोग करना पसंद करते हैं।
दस साल के 37.8 फीसद बच्चों का फेसबुक अकाउंट है। इसी आयुवर्ग के 24.3 फीसद बच्चों का इंस्टाग्राम अकाउंट है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आठ से अठारह साल की उम्र के 30.2 फीसद बच्चों के पास अपना अलग स्मार्टफोन है और वे उसका इस्तेमाल सभी उद्देश्यों के लिए करते हैं। इसका सीधा अर्थ है कि बच्चों का काफी समय आभासी मंचों पर बीत रहा है, जहां हमउम्र साथियों की तस्वीरें, चर्चित चेहरे और बाजार से जुड़ी अबाध जानकारियां उनके मन-मस्तिष्क में अपनी शारीरिक छवि के प्रति भटकाव पैदा कर रही है।
मनस्थिति के इसी मोड़ पर बाजार की रणनीति बच्चों को घेरती है। किशोरवय विद्यार्थियों में सौंदर्य संवर्धन से लेकर वजन घटाने और शारीरिक सौष्ठव के नाम पर अजब-गजब खानपान अपना कर बलिष्ठ बनने से जुड़े उत्पादों का सेवन बढ़ जाता है। तकलीफदेह है कि खुद को सुंदरता की एक तयशुदा छवि में ढालने के फेर में बच्चे गलतियों के कुचक्र में फंस जाते हैं। शारीरिक संरचना को लेकर खुद को कमतर आंके जाने के माहौल में कई किशोरवय लड़के-लड़कियां दुबले होने, रंग गोरा करने, यहां तक कि नैन-नक्श जैसी बातों को लेकर सेहत को नुकसान पहुंचाने वाले तरीके अपना लेते हैं।
इतना ही नहीं, शारीरिक संरचना में औरों से पीछे छूट जाने का भाव उनमें ईर्ष्या और अवसाद जैसे नकारात्मक भावों को भी जन्म देता है। खुद की अवास्तविक छवि बनाने की सोच असली संसार और आभासी दुनिया में अजब-गजब लोगों से जुड़ने की ओर भी ले जाती है। कुल मिलाकर देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चे अपने गुणों को तराशने के बजाय पहचान के संकट का शिकार हो जाते हैं।
दरअसल, अधिकतर सोशल मीडिया मंच इन्सान की एक दिखावटी-बनावटी छवि रचने वाले माध्यम बन गए हैं। खासकर इंस्टाग्राम जैसा मंच तो चर्चित चेहरों और अपने दोस्तों को अनुसरण करने और अपनी जिंदगी की मनचाही छवि पेश करने का ही मंच है। यही वजह है कि किशोरों को ज्यादा आकर्षित भी करता है और उनके मानस पर नकारात्मक असर भी डालता है।
बड़े होते बच्चों में शारीरिक छवि से लेकर जीवन के प्रति संतुष्टि की सोच तक, प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इंस्टाग्राम पर लोकप्रिय चेहरों और जाने-अनजाने दोस्तों की साझा की गर्इं तस्वीरें और आदर्श छवि देखकर किशोरों में खुद को कमतर समझने और पीछे रह जाने की सोच जड़ें जमा लेती है। अपनी शारीरिक बनावट को लेकर हीन भावना आने लगती है। अफसोस कि स्क्रीन की दुनिया में समय बिता रहे किशोरों का मन इस जाल में उलझता ही जा रहा है। ऐसे मनोभावों से जूझते बच्चों द्वारा आत्महत्या जैसा अतिवादी कदम उठा लेने के समाचार भी आए हैं।
जरूरी है कि अपनी शारीरिक छवि को लेकर मन-जीवन के मोर्चे पर उलझनों में घिरती नई पीढ़ी को मार्गदर्शन मिले। अभिभावक और शिक्षक वास्तविक जीवन से जोड़ते हुए नई पीढ़ी को किसी भी शारीरिक नापतौल के तयशुदा घेरे में फंसने से बचाएं। अपने आप के प्रति उपजा असहजता का भाव शारीरिक-मानसिक व्याधियों को न्योता देने वाला ही नहीं, बच्चों के मन-मस्तिष्क को दिशाहीन करने वाला भी है। डिजिटल होती जीवनशैली के इस दौर में बच्चों की वैचारिक सबलता और व्यक्तित्व विकास के लिए बड़ों के सार्थक संवाद, सहयोग और संवेदनशील समझ की दरकार है।